चंद्र सिंह राही ने जो शब्द बुने, जो धुन विकसित की, उसमें पहाड़ ने अपने सुकून को तलाशा। वही गीत पहाड़ की महिलाओं, सीमा पर जाते फौजी ने गुनगुनाए। इन गीतों से दूर परदेश में रहने वाले युवा ने अपने घर को याद किया। कुछ ऐसे गीत जो हमेशा पहाड़ की संस्कृति में घुले-मिले रहेंगे।
उत्तराखंड की संस्कृति एवं लोक विरासत के पुरोधा चंद्र सिंह राही को उनकी 5वीं पुण्यतिथि इस बार अनोखे अंदाज में याद किया जाएगा। 10 जनवरी को शाम पांच बजे राही के परिजन एक ऑनलाइन कार्यक्रम में गीतों के जरिये उन्हें याद करेंगे। इस कार्यक्रम का आयोजन पहाड़ी सोल म्यूजिक बैंड द्वारा किया जा रहा है।
चंद्र सिंह राही को आप किसी भी रूप में याद कर सकते हैं। एक बड़े लोकगायक, कई साजों के जानकार, लोकभाषा के अनुरागी, जिस स्वरूप में उन्हें याद कीजिए एक तरह का मतवालापन आपको जरूर दिखेगा। हुड़का, डोर थाली, ढोल, हर साज में उतना ही अपनापन। हर साज उतना ही पूज्य जितना गांव के जंगलों का बांझ, बुराश, काफल। चंद्र सिंह राही के गीतों में पहाड़ झूमा, पहाड़ रोया, पहाड़ ने अपनों को पुकारा। राहीजी का कोई भी गीत लीजिए, उसे सुनिए, पहाड़ों की संस्कृति आपको एकदम किसी दृश्य की तरह महसूस होगी। वे गीत बहुत सहज थे, लोकलुभावन थे। पहाड़ों में लोग बिना जाने समझे कि यह गीत किसने लिखा, किसने गाया, बस उसे गुनगुनाते थे। वे गीतों पीढ़ियों दर पीढ़ियों चलते रहे।
राहीजी ने जो शब्द बुने, जो धुन विकसित की, उसमें पहाड़ ने अपने सुकून को तलाशा। वही गीत पहाड़ की महिलाओं, सीमा पर जाते फौजी ने गुनगुनाए। इन गीतों से दूर परदेश में रहने वाले युवा ने अपने घर को याद किया। कुछ ऐसे गीत जो हमेशा पहाड़ की संस्कृति में घुले-मिले रहेंगे। जरा ठंडो चला दी, भाना रे रंगीली भाना, हिमला चांदी को बटन, सौली घुरा-घुर, एक पूरी गीतमाला है। राहीजी पर कोई भी चर्चा तब तक अधूरी है, जब तक जागर पर बात न हो। कहा जा सकता है कि जागर इसलिए भी विलुप्त नहीं हो पाया कि चंद्र सिंह राही जैसे साधकों ने रह रहकर लोगों को सुनाया, जागर की अनुभूतियों को समझाया। साजों से उसके तालमेल को बताया।
किसी अच्छे लोक कलाकार के लिए यह बिडंबना होती है कि अपनी कला संगीत की तमाम निपुणता के बावजूद वह एक क्षेत्र विशेष के दायरे में सिमट कर रह जाता है। बहुत कम लोककलाकार ऐसे होते हैं जिन्हें समाज इस स्तर पर चर्चा मिल पाती है कि वे राष्ट्रीय फलक पर जाने जाएं। मेरा हमेशा मानना रहा है कि चंद्र सिंह राही और नरेंद्र सिंह नेगी जैसे साधक कलाकार के योगदान को राष्ट्रीय क्षितिज पर स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन राही भी अपने उत्तराखंड में सिमट कर रह गए। जिस स्तर पर शारदा सिन्हा , गुरदास मान भूपेन हजारिका या तीजन बाई को अपनी लोककला और गायकी के बदौलत राष्ट्रीय स्तर पर जाना पहचाना गया, लोकगायन और लोकवादन के लिए अपनी बेहद सार्थक भूमिकाओं के बावजूद राही उस उपलब्धि से वंचित रह गए।
वह उत्तराखंड के लगभग सभी परंपरागत साजों के जानकार थे। वह एक तरह से लोकसंस्कृति और लोकगीतों के लिए किसी वटवृक्ष की तरह थे। साठ के दशक में रेडियो में जब लोगों ने पहले पहले उनके गीत सुने तो वे गीत किसी लोकगीत की तरह हो गए। इसके बाद चंद्र सिंह राही हर बड़े सांस्कृतिक आयोजनों में अपने हुड़के के साथ होते थे। समय बदला लेकिन राही ने अपने संगीत में परंपरागत साजों को नहीं बदला। लोकगीतों की मौलिकता को बरकरार रखा। उन्होंने जिन गीतों को गाया उनमें पहाड़ों की खूशबू थी, वहां का जीवन था।
पौड़ी जिले के गिंवाली गांव में जन्मे चंद्र सिंह राही के मन में बचपन से ही लोकगीतों की ओर रम गए थे। लोकपरंपरा में मिले लोकगीतों की तरफ उनका गहरा रुझान हुआ। इस विधा में पारंगत होने के लिए उन्होंने कई पहलुओं पर एकाग्र साधना की। उन्होंने लोकगीतों के मर्म को समझा। शास्त्रीयता की समझ विकसित की। साथ ही पहाड़ों के परंपरागत साजों को सीखा। उत्तराखंड का शायद ही कोई ऐसा साज हो जिसे उन्होंने न बजाया हो और हुड़का की तो बात ही क्या। उन्हें हुडका के साथ गाते हुए सुनना एक दिव्य अनुभव से गुजरने की तरह था। उनके अंगुलियों की थाप पर हुड़का और मीठा बोलने लगता था। हुडका ही नहीं डौंर थाली, बांसुरी, हारमोनियम , मशकबीन ढोल हर साज को वह बखूबी बजाते थे।
राही जी ने स्थानीय स्तर पर प्रचलित लोकस्वरों को भी पहचान दी। फ्वां बागा रे इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। राहीजी के काम को आगे लाने का प्रयास होना चाहिए। राहीजी के बेटे राकेश भारद्वाज ने पहाड़ी सोल म्यूजिक बैंड चलते हैं। यह परंपरागत साजों के विकल्प में नहीं बल्कि एक सामांतर धारा की तरह खड़ा किया गया है। जिसमें युवा पुराने गीतों को नए साजों और रिद्म में गा रहे हैं। राकेश भारद्वाज के बैंड में जो मुरली बजती है, वह पहाडों की है। गिटार इसमें रफ्तार भरता है। ड्रम बीट झंकार और गूंज। यह नया संगीत भी लुभावना है। पहाड़ों से अलग नहीं करता।
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