डेरी में अपार संभावनाएं, उत्तराखंड में ‘श्वेत क्रांति’ की शुरुआत का इंतजार

डेरी में अपार संभावनाएं, उत्तराखंड में ‘श्वेत क्रांति’ की शुरुआत का इंतजार

अभी तक उत्तराखंड में सकल दूध उत्पादन के मूल्य पर जो वृद्धि देखी गई है उसका अधिकतर हिस्सा उत्पादक पशुओं के अनुपात, सहकारी समितियों की सदस्यता, कृतिम गर्भधान और बेहतर सड़क सुविधाओं के योगदान से आया है। राष्ट्रीय स्तर पर पिछले कुछ वर्षो से डेरी सेक्टर 6 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा है।

  • डॉ. मनमोहन सिंह चौहान एवं डा. गुंजन भंडारी

ऊबड़-खाबड़ भूमि और कम जोत के कारण उत्तराखंड के पहाड़ी ज़िलों में फसल आधारित कृषि की अपनी सीमाएं एवं बाध्यताएं है। ऐसे में इन इलाकों में आजीविका निर्वाह करनेके लिए डेरी उद्योग एक बेहतर विकल्प है। पहाड़ी ज़िलों के ग्रामीण क्षेत्र में आज भी अधिकतर घरों में कम से कम एक गाय या भैंस पाली जाती है जो परिवार की दूध की जरूरतों को पूरा करती है। इसके साथ ही डेरी पशु कुछ घरों को नियमित और अतिरिक्त आय भी प्रदान करते है। भू- स्वामित्व के विपरीत, डेरी पशु विभिन्न सामाजिक और आर्थिक वर्ग के घरों में सामान रूप से वितरित है और संसाधन विहीन और समाज के गरीब तबके के लोग भी इनका पालन कर रहे है।

कई अध्ययनों में गाय और भैंस की संख्या उन घरों में अधिक पाई गई है जिन का कोई भी सदस्य प्रवाशी नहीं है और न ही किसी वेतनभोगी रोजगार से जुड़ा हुआ है। अतः यह कहा जा सकता है की बिना प्रवाशी वाले और कृषि में निर्भर घरों की आय में डेरी का महत्वपूर्ण योगदान है। निरंतर बढ़ते आय के स्तर और डेरी उत्पादों की मांग में हो रही वृद्धि के बीच डेरी उद्योग में अपार संभावनाएं दिखाई दे रही है। ऐसे में डेरी का विकास न केवल पहाड़ी इलाकों की उन्नति में सहायक बल्कि इसके साथ ही समृद्धि और सामाजिक समानता लाकर पलायन की दर घटाने में भी कारगर सिद्ध हो सकता है ।

 

पहाड़ी क्षेत्रों में अभी तक डेरी का विकास काफी धीमी गति से हुआ है।वर्ष 2004 से 2016 तक राज्य में सकल दुग्ध उत्पादन का मूल्य 2.57 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ा जबकि इस अंतराल में राष्ट्रीय औसत 4.51 प्रतिशत था। इसी प्रकारवर्ष 2000 में राज्य के निर्माण के बाद से दूध का उत्पादन 3.89प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ा है। यह दर उत्तराखंड के समकक्ष हिमाचल प्रदेश की वृद्धि दर (3.59 %) से थोड़ी सी अधिक अवश्य है पर 5.28 प्रतिशत की राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे है। यह दर्शाता है कि हिमालयी राज्य में श्वेत क्रांति की शुरुआत होनी अभी बाकी है।

राज्य के आकड़ों को विघटित करने पर ये आसानी से देखा जा सकता है कि डेरी के क्षेत्र में पहाड़ी ज़िले मैदानी भागों से काफी पीछे है। राज्य के कुल दूध के उत्पादन में 38प्रतिशत हिस्सा तीन मैदानी जिलों – देहरादून, ऊधम सिंह नगर और हरिद्वार से आता है जबकि शेष 10 पहाड़ी जिलें का हिस्सा केवल 62 प्रतिशत है। अगर नैनीताल को भी मैदानी जिलों के साथ जोड़ दिया जाये तो 50 प्रतिशत दूध का उत्पादन केवल इन 4 जिलों में हो जाता है। यह क्षेत्रीय विषमता उत्पादन के साथ ही उसकी विकास दर में भी दिखती है। उपरोक्त 4 जिलों में दूध उत्पादन की वार्षिक विकास दर 6.43 है जो बाकी 10 पहाड़ी जिलों की औसतन दर (2.04) के तीन गुना से भी अधिक है।

इसी के अनुरूप राज्य में देशी गाय, संकर गाय और भैंस की उत्पादकता क्रमश: 2.19, 7.23 और 4.66 कि.ग्रा. प्रति पशु प्रति दिन है जबकि राष्ट्रीय औसत 3.01, 7.95 और 5.62कि.ग्रा. प्रति पशु प्रति दिन है। उत्तराखंड में दूध की उत्पादकता पड़ोसी राज्य हिमाचल से अधिक है पर राज्य में उत्पादकता के विकास की दर (1.14%), हिमाचल (2.66 %) से कम है। देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और ऊधम सिंह नगर को अगर छोड़ दे तो बाकी सभी जिलों में दूध की उत्पादकता राज्य के औसत से कम है। सभी 13 जिलों में दूध की सबसे कम उत्पादकता पौड़ी (2.85कि.ग्रा. / पशु/ दिन) और फिर चमोली (2.86 कि.ग्रा. / पशु/ दिन) में है।

वर्ष 2018-19 में उत्तराखंड ने देश के कुल दूध उत्पादन में केवल 0.95 प्रतिशत का योगदान किया। चिंताजनक बात यह है कि यह हिस्सा लगातार कम हो रहा है और वर्ष 2009-10 में 1.18 प्रतिशत से 2018-19 में 0.95 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इस गिरावट को रोकने के लिए लक्षित, समावेशी और डेरी का समग्र विकास करने वाले प्रयासों की जरुरत है।

सकल पशुधन उत्पादन के मूल्य (लाखरु. प्रति हज़ार गोजातीय पशु) के आधार पर उत्तराखंड के 13 जिलों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है- कम, मध्यम और उच्च श्रेणी (तालिका 01)। इनमें से अधिकतर जिले (07) प्रथम श्रेणी (कम) में आते है और शेष 6 जिले बाकी दोनों श्रेणियों में सामान रूप से विभाजित है। अगर क्षेत्रीय दृष्टिकोण से देखे तो श्रेणी-1 और श्रेणी-2 में सारे पर्वतीय जिले है और उच्च श्रेणी में तीनों मैदानी क्षेत्र के जिले है। गोजातीय (गाय एवं भैंस)पशुओंकी उत्पादकता पर जलवायु और भौगोलिक स्थितियों के अलावा और भी अनेक कारकों का प्रभाव पड़ता है। ऐसे ही कुछ मुख्य कारकों और विशेषताओं का श्रेणी-वार वर्णन तालिका-01 में किया गया है।

 

पहली श्रेणी में आने वाले जिलों में कुल गोजातीय पशुओं का प्रमुख हिस्सा देशी नस्ल की गायों का है जबकि बाकी दोनों श्रेणियों के दूध उत्पादन प्रणाली में भैंस का प्रभुत्व है। तीसरी श्रेणी जिसमें सकल पशुधन उत्पादन का मूल्य सर्वाधिक है, उसमें भैंस के साथ साथ संकर गायों का अनुपात भी अधिक है। तीनों ही श्रेणियों में संकर गाय और भैंस की दूध उत्पादकता देशी गायों से अधिक है । इससे इन पशुओं के अधिक अनुपात और सकल पशुधन उत्पादन के उच्चत्तर मूल्य के बीच का संबंध आंशिक रूप से स्पष्ट हो जाता है। एक ओर जहाँ देशी नस्ल की गायों की संख्या सबसे अधिक है, वहीँ दूसरी और उनकी उत्पादकता न्यूनतम है। इस कारण राज्य में डेरी के विकास के लिए नस्ल सुधार अनिवार्य है। तालिका – 02 में ये स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि देशी नस्ल की गायों में भी श्रेणी-01 और श्रेणी-02 में 95 प्रतिशत से अधिक वर्णनातीत गाय हैऔर अच्छी देशी नस्ल की गायें या भैंस की संख्या बहुत कम है।

 

पिछले पंद्रह वर्षों (2001-2015) में श्रेणी-1 की देसी नस्लों की गाय की दूध उत्पादकता में नाममात्र (0.42%) का सुधार हुआ है। श्रेणी-1 और श्रेणी -2 के जिलों में कृतिम गर्भधान की कम संख्या भी नस्ल सुधार की धीमी रफ़्तार को दर्शाती है। इस के साथ ही पर्वतीय इलाकों में कृत्रिम गर्भाधान केंद्रों की संख्या भी कम है। अतः सबसे पहले नस्ल सुधार के लिए पहाड़ों के लिए उपयुक्त नस्ल की पहचान करनी होगी और साथ ही वर्णनातीत गायों का बेहतर गुणवत्ता वाले शुक्राणु का प्रयोग कर कृतिम गर्भधान करवाना होगा। गाय की लाल सिंधी नस्ल को पर्वतीय इलाकों में प्रचलित किया जा सकता है। यह नस्ल एक दिन में 5-6 कि. ग्रा. दूध देने में सक्षम है और साथ ही पहाड़ी इलाकों के लिए भी उपयुक्त मानी गई है। देसी गायों की नस्ल सुधार के द्वारा न केवल किसान दूध का उत्पादन बढ़ा सकता है बल्कि बेहतर नस्ल की देशी गाय का पालन कर ऑर्गेनिक और ए-2 दूध से भी मुनाफा कमा सकता है। देशी गाय के उपोत्पाद जैसे की गोबर और गोमूत्र का उपयोग ऑर्गेनिक खेती या बायोगैस के लिए कर के किसान अपनी आमदनी को और बढ़ा सकते है। पहाड़ी और मैदानी जिलों के मध्य गाय की तुलना में भैंस की उत्पादकता में कम अंतर है अतः उपयुक्त पहाड़ी क्षेत्रों में भैंस पालन को भी बढ़ावा दिया जा सकता है।

देश के डेरी विकास में दुग्ध सहकारी समितियों का योगदान सर्वविदित है, परन्तृ पहाड़ी क्षेत्रों में इनकी व्याप्ति अभी भी सीमित है। अगर तालिका -1 को पुनः देखे तो भले ही राज्य के दूध उत्पादन का 33 प्रतिशत श्रेणी-1 से आता है पर दुग्ध सहकारी समितियों द्वारा एकत्र किये जाने वाले कुल दूध में इस श्रेणी का हिस्सा केवल 12.8 प्रतिशत है। इन समितियों द्वारा सर्वाधिक दूध श्रेणी – 2 के जिलों से एकत्र किया जाता है। श्रेणी- 2 में नैनीताल और अल्मोड़ा जिले है जो राज्य की सहकारी समिति आँचल के मुख्य कार्यालय के समीप है। श्रेणी – 3 के जिलों में भी सहकारी समितियां संतोषजनक रूप से सक्रिय है। सड़क-संपर्क को बेहतर बना कर श्रेणी – 1 में भी ज्यादा से ज्यादा डेरी किसानो को संगठित क्षेत्र में लाये जाने की आवश्यकता है।

पशुओं के लिए पर्याप्त चारे की अनुपलब्धता एक ऐसी समस्या है जो हर श्रेणी में दिखाई दे रहीहै। बेहतर दूध उत्पादकता के लिए पशुओं को संतुलित और पर्याप्त मात्रा में चारा मिलना आवश्यक है। अमूमन दूध उत्पादन की कुल लागत का 60-70 प्रतिशत खर्चा चारे पर होता है। इसलिए डेरी उद्योग में मुनाफे के लिए चारे का उचित प्रबंधन होना अपरिहार्य है। हरा चारा उगाने के लिए बंजर भूमि उपयोग में लाई जा सकती है। कुछ किसान मिलकर व्यावसायिक स्तर पर भी इसका उत्पादन कर सकते है। इसके साथ ही किसानों को संतुलित राशन के प्रति भी जागरूक किया जाना चाहिए। पर्वतीय इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं की भी भारी कमी है। पशुओं के लिए उचित चिकत्सीय परामर्श और सही इलाजका प्रबंध होने पर ही डेरी विकास को सुनिश्चित किया जा सकता है।

अभी तक राज्य में सकल दूध उत्पादन के मूल्य पर जो वृद्धि देखी गई है उसका अधिकतर हिस्सा उत्पादक पशुओं के अनुपात, सहकारी समितियों की सदस्यता , कृतिम गर्भधान और बेहतर सड़क सुविधाओं के योगदान से आया है। राष्ट्रीयस्तर पर पिछले कुछ वर्षो से डेरी सेक्टर 6 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा है। इसी दर पर राज्य में डेरी सेक्टर के विकास के लिए सहकारी समितियों/ संगठित क्षेत्र की सदस्यता, कृतिम गर्भधान और सड़क-संपर्क में क्रमसः 16, 36 और 14 प्रतिशत की व्यापक बढ़ोतरी चाहिए होगी बशर्ते शेष मुख्यकार कभी वर्तमान दर पर बढ़ते रहे और चारे की उपलब्धता सुनिश्चित हो।

(डॉ. मनमोहन सिंह चौहान हरियाणा के करनाल स्थित प्रख्यात राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान के निदेशक और डॉ. गुंजन भंडारी वैज्ञानिक हैं।)

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