गांव और पहाड़ में महिलाओं के मंच पर जागर गाने की परंपरा नहीं थी। मां ने उन्हें सिखाया था लेकिन बाकी कोई प्रोत्साहन नहीं मिला। वह गीत-संगीत में तो रुचि लेतीं लेकिन मंच पर जाकर गाने की उनकी हसरत सामाजिक वर्जनाओं के चलते पूरी नहीं हो सकी। शादी के बाद जब पति ने उन्हें गुनगुनाते हुए सुना तो विधिवत रूप से सीखने की सलाह दी।
बसंती बिष्ट ने उत्तराखंड के जागर गायन को न सिर्फ नए आयाम दिए, बल्कि पुरुष एकाधिकार वाले जागर गायन क्षेत्र की तमाम वर्जनाओं को तोड़कर आकाशवाणी, दूरदर्शन और विभिन्न मंचों पर पहुंचकर एक ऐसा मुकाम भी हासिल किया, जो आज एक नजीर बन गया है। वर्तमान में वे देहरादून में रह रही हैं और विभिन्न मंचों पर जागर की प्रस्तुति देकर पहाड़ की संस्कृति के संवर्द्धन में जुटी हुई हैं। जनवरी 2017 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। बसंती बिष्ट ने मां नंदा के जागर को स्वरचित पुस्तक ‘नंदा के जागर-सुफल ह्वे जायां तुम्हारी जात्रा’ में संजोया है।
गांव और पहाड़ में महिलाओं के मंच पर जागर गाने की परंपरा नहीं थी। मां ने उन्हें सिखाया था लेकिन बाकी कोई प्रोत्साहन नहीं मिला।वह गीत-संगीत में तो रुचि लेतीं लेकिन मंच पर जाकर गाने की उनकी हसरत सामाजिक वर्जनाओं के चलते पूरी नहीं हो सकी। शादी के बाद जब पति ने उन्हें गुनगुनाते हुए सुना तो विधिवत रूप से सीखने की सलाह दी। पहले तो बसंती तैयार नहीं हुई लेकिन पति के जोर देने पर उन्होंने सीखने का फैसला किया।
बसंती देवी बिष्ट की शादी 15 वर्ष की उम्र में हो गई थी। कुछ वर्ष तक वे अपनी ससुराल में रहकर घास-पानी और खेत खलिहान के कार्य करती रहीं और बाद में अपने पति के साथ पंजाब चली गई, जो सेना में नौकरी करते थे। पंजाब में उन्होंने प्राचीन कला केंद्र चंडीगढ़ में एडमिशन ले लिया और पांच वर्ष तक संगीत की बारीकियां सीखी। बाद में वे देहरादून आ गईं और परिवार की जिम्मेदारियां निभाने लगीं। देहरादून में किसी ने उन्हें आकाशवाणी जाने की सलाह दी। आकाशवाणी में उन्होंने जागर गायन का प्राथमिकता दी। बसंती बिष्ट अब तक तमाम मंचों पर एक हजार से अधिक प्रस्तुतियां दे चुकी हैं। उन्हें कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है। बसंती बिष्ट का जन्म चमोली जनपद के ल्वाणी गांव में 14 जनवरी, 1953 को हुआ।
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