कंधे पर 10 लीटर का पानी का डिब्बा लिए मैं पूरी फुर्ती के साथ चल रहा था। सर्दियों के दिन होने के बावजूद मेरे चेहरे से पसीना टपक रहा था। अंदर कहीं न कहीं डर धीरे-धीरे गहराता जा रहा था। तेज- तेज चलते हुए मैं उस गध्येरे तक पहुँच गया।
गांव में किसी को कानों-कान खबर नहीं थी। शाम को नोह पानी लेने के लिए जमा हुए बच्चों के बीच में जरूर गहमागहमी थी- ‘हरि कुक भो टेलीविजन आमो बल’ (हरीश लोगों के घर में कल टेलीविजन आ रहा है)। भुवन ‘का’ (चाचा) की इस जानकारी को पुष्ट करते हुए चंदन ने कहा- ‘हम ले यसे सुणेमुं’ (हम भी ऐसा ही सुन रहे हैं)। इसके बाद तो नोह के चारों ओर बैठे लोगों के बीच से टेलीविजन पर दुनिया भर का ज्ञान उमड़ आया। जिसने भी पहले टीवी देखा हुआ था वह अपनी तई भरपूर ज्ञान दे रहा था। उसमें हम जैसे लोग भी थे जिन्होंने टीवी सुना भर ही था लेकिन मुफ्त के ज्ञान देने में हम भी पीछे नहीं थे। टीवी में फ़िल्म आती है । यह ज्ञान सबके पास था। इसके आगे का ज्ञान किसी को नहीं था। इसके आगे तो एंटीना, से लेकर उसके आकार-प्रकार पर बात चल रही थी।
इस ज्ञान के चक्कर में शाम के नोह गए हम लोगों को अब रात हो चुकी थी। नोह में ‘चमकिड'(जुगनू) से कुछ रोशनी जरूर दिखाई दे रही थी। बाकी तो भयंकर अँधेरा था। नोह् गध्यर के इस भयंकर अंधेरे और सन्नाटे के बीच में मेंढकों की टर्र-टर्र भी सुनाई दे रही थी। हमारा नोह नीचे गध्येरे में था। चारों ओर से पहाड़ से घिरा हुआ था। साथ ही 7 गगनचुंबी आम के पेड़ों ने पूरे इलाके को घेर रखा था। दिन में भी सूरज की रोशनी बमुश्किल आती थी। अब जब रात हो “अमूसिक” (अमावस्या की) तो अँधेरे की कल्पना की जा सकती है।
टेलीविजन की बात कई लोगों के साथ शुरू हुई थी। परन्तु उसमें से कुछ लोग बीच-बीच पानी भरकर घर को जाते रहे लेकिन हम 5 लोग टेलीविजन की बातों में ऐसे रम गए कि शाम से कब रात को गई पता ही नहीं चला। हम तो बस एक दूसरे की बातों को काटने और खुद को श्रेष्ठ टेलीविजन ज्ञाता साबित करने में लगे हुए थे।
यह चर्चा तब छूटी जब रमेश की ईजा ने घर से 5 ‘पटो’ (खेत) नीचे आकर उसे ‘धत्ता-धत्त’ (आवाज) लगाने लगी कि- “अरे रमेशा… रमेश तू आज घर हैं आछै कि नि आने, अमुसिक रात छो आज और तुम इतन जुक तक नोह गध्यर में के पंचात कम छा…” (रमेश..रमेश आवाज लगाते हुए, आज तू घर आता है कि नहीं? आज अमावस्या की रात है और तुम लोग इतनी रात तक नोह के गधेरे में क्या पंचायत कर रहे हो)। रमेश की ईजा की इस धात और ‘आज अमुसिक रात छू’ वाक्य को सुनते ही हम सबका टेलीविजन ज्ञान काफ़ूर हो गया।
हम लोगों ने तुरंत अपने-अपने डब्बे और गगरी भरी और नोह से निकल पड़े। अब मसला ये था कि 4 लोगों को तो एक साथ ‘पारे बाखे’ वाले रास्ते पर जाना था लेकिन मुझे अकेले ही ‘बीचेक बाखे’ के लिए आना था। वो चारों तेज-तेज लेकिन बात करते हुए जा रहे थे। मैं इधर अकेला डरा हुआ, पूरी तेजी के साथ चल रहा था। साथ ही मन ही मन हनुमान चालीसा भी पड़ रहा था। इसका कारण मेरे मन में चल रहे चार डर थे। एक तो घुप्प अँधेरा, दूसरा अमावस्या की रात, तीसरा शाम का पानी लेने गया हुआ और इतनी रात हो गई तो ईजा का डर, चौथा बीच में एक गध्यर पार करना था जिसके ‘मसाण’ (भूत) के किस्से बचपन से ही सुन रखे थे। साथ में यह भी कि अमावस्या की रात तो छल और मसाण की ही होती है।
दिमाग में यह सब चल रहा था। कंधे पर 10 लीटर का पानी का डिब्बा लिए मैं पूरी फुर्ती के साथ चल रहा था। सर्दियों के दिन होने के बावजूद मेरे चेहरे से पसीना टपक रहा था। अंदर कहीं न कहीं डर धीरे-धीरे गहराता जा रहा था। तेज- तेज चलते हुए मैं उस गध्येरे तक पहुँच गया। अब उसे दम भर दौड़ लगाकर पार करना चाह रहा था क्योंकि वहाँ भी घनघोर अँधेरा था। साथ में ऊपर- नीचे झाड़ियाँ ही झाड़ियाँ थीं। उन झाड़ियों से बनी आकृतियां भी अंधेरे में बड़ी डरावनी लग रही थीं।
मुझे अँधरे के साथ इन झाड़ियों और मसाण के डर को भी चीरते हुए आगे निकलना था। बाकी दिन तो रात होने पर डर नहीं लगता था लेकिन आज अमावस्या ने डर पैदा कर दिया था। खैर, मैं दम लगाकर तेज-तेज कदमों से गधेरे को पार कर रहा था। जब लगभग पार कर चुका था तभी नीचे की झाड़ियों में से पत्तों के चर चराने की आवाज आई। ऐसा लगा कोई नीचे से ऊपर को आ रहा है। इस आवाज से तो डर के मारे प्राण निकल गए थे। मैं और तेजी से भागने की कोशिश करने लगा लेकिन एक पत्थर पर ठोकर लगने से गिर पड़ा। कंधे का डिब्बा नीचे आ गया। ढक्कन लगा था तो पानी नहीं गिरा और डब्बा भी सुरक्षित रहा लेकिन मेरे घुटने में चोट लग गई थी। उस डर की चोट के सामने चोट मामूली थी। मैंने झटपट डिब्बा उठाया और घर की तरफ चल दिया। थोड़ा आगे जाने पर ही घर में जल रहे ‘लम्फू’ की रौशनी दिखाई देने लगी थी। उसे देख कर मेरी सांस में सांस आई।
मैं किसी तरह घर पहुंचा। घर पहुंच कर ईजा ने जमकर डांटा और दो ‘सटाक’ (पतले डंडे की मार) भी लगा दिए। ईजा को कुछ कह भी नहीं पा रहा था। एक तो गलती का एहसास था दूसरा वहाँ गिरने और वो झाड़ियों से किसी के आने की आहट का डर अभी तक मन से गया नहीं था। ईजा लगातार कुछ बोले जा रही थीं। मैं चुपचाप सब सुन रहा था। ईजा गोठ रोटी बना रही थीं और मैं चुपचाप ‘देहे’ के पास ही बैठा था। बाहर की तरफ देखने पर डर भी लग रहा था। इसलिए धीरे-धीरे अंदर को खिसकता जा रहा था।
मेरे अंदर का डर बढ़ता जा रहा था। खाना खाते-खाते तक मैं बुखार से तपने लगा। ईजा ने देखा तो चिंतित हो गई। ईजा ने पूछा- ‘नोहपन लफाई और डरे तो नि छै’ (नोह के पास गिरा और डरा तो नहीं था)। मैंने सब बता दिया। ईजा समझ गई थीं कि ‘च्यले कें छाव लागि गो रे’…।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में तदर्थ अध्यापक हैं)
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AnaNd Bharti
July 10, 2020, 8:18 pmपंक्ति पंक्ति उत्सुकता जगाने में कामयाब…
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