‘मैती’ एक पर्यावरण आंदोलन

 ‘मैती’ एक पर्यावरण आंदोलन

डॉ. हरेन्द्र सिंह असवाल मैती पर्यावरण से जुड़ी उत्तराखंड की एक ऐसी संस्था है, जिसने एक नए तरह से प्रकृति को समझने और समझाने का प्रयास किया।कल्यान सिंह रावत ने इस संस्था की शुरुआत 1995 में की थी। वह मूलरूप से वनस्पति विज्ञान के प्रवक्ता

डॉ. हरेन्द्र सिंह असवाल

मैती पर्यावरण से जुड़ी उत्तराखंड की एक ऐसी संस्था है, जिसने एक नए तरह से प्रकृति को समझने और समझाने का प्रयास किया।कल्यान सिंह रावत ने इस संस्था की शुरुआत 1995 में की थी। वह मूलरूप से वनस्पति विज्ञान के प्रवक्ता के पद पर थे लेकिन सरकार की पर्यावरण संबंधी सोच और कार्यवृत्ति से मन ही मन असन्तुष्ट थे। अब कल्याण सिंह रावत को पद्मश्री सम्मान देने की घोषणा हुई है।

वनीकरण पर किए जाने वाले सरकार के वृक्षारोपण को वह देखते तो दुखी होते। ऐसे ही जब उन्होंने देखा कि सरकारी वृक्षारोपण का कार्यक्रम मात्र एक रस्म के अलावा कुछ नहीं साथ ही सरकारी धन का वर्षों से दुरुपयोग हो रहा है तो उनके मन में एक एक विचार आया कि क्यों न हम वनीकरण के काम को सामाजिक सरोकारों, परंपराओं के साथ जोड़कर देखें। उन्होंने मैती संस्था की स्थापना की। मैती का अर्थ है मायका या पीहर।

पढ़ें, पर्यावरण के नायकों अनिल जोशी, कल्याण सिंह को पद्म सम्मान

मैती संस्था ने वनीकरण को विवाह के साथ जोड़ा, जिस भी गांव, परिवार में लड़की की शादी होगी वह परिवार लड़की की स्मृति में गांव से विदा होने से पहले वर-वधू एक पेड़ लगाएंगे और उस पेड़ को सुरक्षित रखने का काम लड़की की मां करेगी। गांव की लड़कियां जूता छुपाई में धन राशि दूल्हे से लेती हैं। संस्था का मानना है कि जूता छुपाई की परंपरा हमारी नहीं है उसके बदले जो धन लड़कियां लेती हैं वह गांव की लड़कियों के कोष में जमा होती है और वही धन ग़रीब बच्चियों की पढ़ाई पर, विवाह पर या उन महिलाओं पर खर्च होता है जिनके पास आजीविका के कोई साधन नहीं हैं। गांव की लड़कियां नव दम्पति द्वारा लगाए गए पेड़ की देखभाल  करती हैं। इस तरह से सामाजिक भागीदारी और लोकमंगल दोनों काम हो जाते हैं ।

इसी तरह जब दूल्हा-दुल्हन के साथ अपने गांव जाएगा तो वहां भी एक पेड़ लगाएंगे। उत्तराखंड की एक परंपरा है जब भी दुल्हन ससुराल में जाती है तो सबसे पहले उस पानी के स्रोत की पूजा करती है जिसका पानी वह परिवार या गांव पीता है, दुल्हन पानी की पूजा करने के बाद यह शपथ भी लेती है कि मैं इस पानी के स्रोत को सदा अक्षुण्ण बनाए रखने का आजीवन प्रयास करूंगी तब वह पानी लेकर नए परिवार को पानी पिलाती है।

वह एक पेड़ अपने गांव में भी लगाती है। पेड़ पानी के प्राकृतिक स्रोत होते हैं। उत्तराखंड में बांज के जंगल थे जो पानी का निर्माण करते हैं लेकिन जब से अंग्रेज़ों ने बाँज की जगह चीड़ के जंगल लगाए उसका परिणाम यह हुआ कि जंगल तो बरबाद हुए ही पानी के स्रोत भी सूखने लगे। उत्तराखंड में पीने के पानी स्रोत हिमालय से निकलने वाली नदियां नहीं हैं बल्कि उसकी छोटी-छोटी सहायक ट्रिब्यूटरी जिन्हें क्षेत्रीय भाषा में गाड गदेरे कहा जाता है, पीने के पानी के प्राकृतिक स्रोत हैं।

इतना ही नहीं, सिंचाई की जो ज़मीन उत्तराखंड में है उसके लिए भी इन्हीं गाड गदेरों से पानी मिलता है और ये गाड गदेरे किसी ग्लेशियर से नहीं बल्कि वहां के जंगलों से निकलते हैं। अपनी प्राकृतिक स्वरूप में उत्तराखंड के जंगल जितने विविधतापूर्ण हैं उससे निकलने वाले पानी में भी उतनी ही औषधीय विविधता है। औषधीय गुणों से भरे बुग्यालों से निकलने वाली इन छोटी नदियों से ही गंगा के जल में वह गुण पैदा होता है जो उसे अनेक प्रकार के बैक्टीरिया से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता देती है।

ग्लेशियरों से निकलने वाले पानी में कोई गुण नहीं होता। उसमें जो भी गुण आता है वह इन्हीं गाड गदेरों जो विविधतापूर्ण जंगलों से निकलती हैं, से आता है। अगर ये जंगल ख़त्म हुए तो समझ लो गंगा, यमुना ही नहीं हिमालय से निकलने वाली हर नदी मिट्टी की गाद के अलावा कुछ नहीं रहेगी। न वह प्राणदायिनी होगी न मुक्तिदायिनी। हिमालय से निकलने वाली किसी भी नदी से उत्तराखंड को कुछ भी आर्थिक लाभ नहीं मिलता। लाभ बिजली कंपनियों और पानी बेचने वालों को मिलता है उत्तराखंड तो इन नदियों को ही सींचने का काम करता है।

पहाड़ों पर यदि जंगल नहीं बचेंगे तो नदियां नहीं बचेंगी और नदियां नहीं बचेंगी तो हमारी सभ्यता और संस्कृति भी नहीं बचेगी। जीवन की विविधता तभी बचेगी जब जंगल की विविधता बचेगी। प्रकृति में कुछ भी बेकार नहीं और कुछ भी अतिरिक्त नहीं। मैती संस्था इन्हीं सरोकारों को जन सामान्य तक पहुंचाना चाहती है। इन्हें जन-जन तक तब तक नहीं पहुंचाया जा सकता जब तक हम उसे पंरपंरा और संस्कृति साथ ही हर व्यक्ति के मानवीय सरोकारों से नहीं जोड़ते।

कल्याण सिंह रावत ने उसका ऐसा मार्मिक पहलू उठाया जिससे हर मनुष्य जुड़ सकता है। उन्होंने कहा कि हम जब विवाह करते हैं तो हर मनुष्य अपनी वंश परंपरा को आगे बढ़ाने का सपना भी संजोता है। जब विवाह पर हर मनुष्य पेड़ लगाएगा और उसकी देखभाल करेगा तो वह सिर्फ पेड़ नहीं लगा रहा बल्कि अपनी होने वाली संतान के लिए जिसके लिए उसके मां-बाप अनेक सपने जन्म से पहले से देखने लगते हैं तो जन्म लेने वाले बच्चे के लिए इस दुनियां में आने के लिए क्या चाहिए कपड़े, खाना, पालना ये तो तब उपयोगी होंगे जब वह बच्चा बचेगा और बचने के लिए जीवन के लिए सबसे पहले बच्चे को सांसें चाहिए। अगर आक्सीजन ही नहीं होगी तो वह बचेगा कैसे इसलिए जो दो पेड़ हमने अपने विवाह पर लगाए थे वे दो पेड़ सिर्फ पेड़ नहीं हमारे बच्चे की सांसों की भी गांरटी बन जाते हैं।

आपने अपने बच्चे के लिए कृत्रिम आक्सीजन सिलेंडर नहीं बल्कि प्राकृतिक रूप से पूरे जीवन के लिए सांसों की, पानी की, नदी की बल्कि कहें एक पूरे इको सिस्टम की नदी बहा दी। प्रकृति को समझने और समझाने का यह नया प्रयोग धरती की दिशा बदल सकती है।

मैती संस्था इतना ही नहीं इससे आगे बढ़कर विवाह पर जिन फलदार पेड़ों को लगाती है जब आप के बच्चे आठ-दस साल के हो जाएंगे तो तब तक वह पेड़ फल देने लगेंगे और जब वे बच्चे ननिहाल में उन फलों का आनन्द लेंगे और नानी उन्हें बताएगी कि ये फल उसकी मां ने विवाह के समय लगाए थे तो बच्चों का उनके प्रति एक ख़ास क़िस्म का लगाव और अपनत्व का भाव पैदा होगा, जिससे फल और जीवन दोनों का आनन्द दोगुना हो जाएगा ।

जीवन के प्रति, प्रकृति के प्रति, संस्कृति और इतिहास के प्रति आपका यह मानवीय दृष्टिकोण जाग जाए तो फिर यह धरती सदा-सदा के लिए बची रह जाएगी। तब हमें न पर्यावरण पर अलग से सोचने और बजट बनाने की ज़रूरत होगी, न ओज़ोन मंडल की चिंता होगी, न गैस चेंबर में बदलने वाली धरती की चिंता होगी, न सदानीरा नदियों के सूखने और गंदे नालों में बदलने की चिंता होगी। हम अगर जीवन में सिर्फ दो पेड़ लगा कर उन्हें बड़ा होने तक देखभाल करेंगे तो वे हमारी पीढ़ियों तक इस धरती को अनुकूल बनाए रखेंगे।

कवि केदारनाथ अग्रवाल की एक छोटी कविता है
पेड़ नहीं धरती के वंशज हैं
फूल लिए फल लिए
मानव के अग्रज हैं।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked with *

विज्ञापन

[fvplayer id=”10″]

Latest Posts

Follow Us

Previous Next
Close
Test Caption
Test Description goes like this