कोरोना काल में पढ़ाई का पूरा स्वरूप बदल गया लेकिन उत्तराखंड में भौगोलिक और आर्थिक चुनौतियों के बाद भी शिक्षकों ने बच्चों को कैसे पढ़ाई से जोड़े रखा। इसकी अपनी एक कहानी है।
कोरोना काल में पढ़ाने-लिखाने का तरीका काफी कुछ बदल गया है। इस बीच, केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति की घोषणा भी की है। लेकिन उत्तराखंड राज्य की अपनी चुनौतियां हैं, ऐसे में हिल-मेल ने शिक्षा व्यवस्था की चुनौतियों को समझने के लिए उन लोगों से बात की, जो जमीन पर रहकर इस समय काम कर रहे हैं। यह समझने की कोशिश थी कि कोरोना काल के बाद क्या बदला है और आगे शिक्षा का स्वरूप कैसा होगा।
इस कार्यक्रम में देहरादून स्थित लक्ष्य यूनिवर्सल एकेडमी की प्रिंसिपल मिनी त्रिपाठी, पोखड़ा स्थित एस्ले स्कूलडेज एकेडमी के प्रिंसिपल प्रदीप जोशी, अल्मोड़ा के राजकीय प्राथमिक विद्यालय बजेला में सहायक अध्यापक भास्कर जोशी और राजकीय प्राथमिक विद्यालय घेराधार, टिहरी में शिक्षक अनिल कुकरेती शामिल हुए।
…ताकि लॉकडाउन में शिक्षा हो अनलॉक
लॉकडाउन के बाद शिक्षा प्रणाली में आए बदलाव पर मिनी त्रिपाठी ने कहा कि लॉकडाउन हमारे लिए बिल्कुल नई चीज थी। किसी को कुछ पता नहीं था कि आगे बच्चों की पढ़ाई कैसे कराई जाएगी। सब कुछ बंद होने से पहली चुनौती यह थी कि बच्चों को स्टडी मैटेरियल कैसे पहुंचाए जाएं। इसके लिए हमने व्हाट्सएप पर एक रिसोर्स मैटेरियल ग्रुप बनाया और सीबीएसई की साइट से चैप्टर को डाउनलोड करके बच्चों तक पहुंचाना शुरू कर दिया।
अच्छी बात यह थी कि हमारे व्हाट्सग्रुप पहले से बने थे क्योंकि हम बच्चों को सारा होमवर्क उसी के जरिए देते थे। कुछ बच्चे ऐसे थे जिनके पास स्मार्टफोन नहीं थे और वे व्हाट्सएप का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे थे, उनके लिए हमें अलग सोचना पड़ रहा था। दूसरी चीज थी अध्यापकों की ट्रेनिंग और वह हमने ऑनलाइन ही सोची। अध्यापकों को तकनीक का ज्ञान पहले से था बस हमें ऑनलाइन कैसे पढ़ाएं, इसका प्रशिक्षण उन्हें देना था। धीरे-धीरे एप के जरिए पढ़ाई का दौर शुरू हो गया, अब बच्चों को भी यह आसान लगने लगा है।
कनेक्टिविटी बड़ी समस्या
उत्तराखंड में करीब 80 प्रतिशत क्षेत्र पहाड़ी है। ऐसे में वहां कनेक्टिविटी की दिक्कत होती है। लक्ष्य एकेडमी की प्रिंसिपल ने कहा कि इंटरनेट कनेक्टिविटी तो मैदानी इलाकों में भी कई गांवों में स्लो है पर पहाड़ों में ज्यादा है। वहां मौसम के कारण भी दिक्कत होती है। कोरोना के आने के बाद अब जरूरत इस बात की है कि ऑनलाइन शिक्षा और दूसरी ऑनलाइन चीजों की सुविधा के लिए सरकार को हाईस्पीड इंटरनेट हर जगह उपलब्ध कराने के बारे में सोचना पड़ेगा।
उन्होंने कहा कि यहां करीब 25 प्रतिशत लोगों के पास ही इंटरनेट कनेक्टिविटी है। गांवों के बच्चों को ज्यादा समस्या का सामना करना पड़ता है, ऐसे में सरकार से मदद की दरकार रहती है।
प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाने के लिए छोड़ दी सरकारी नौकरी
सरकारी शिक्षक से इस्तीफा देकर प्राइमरी शिक्षा की मुहिम चलाने वाले एस्ले स्कूलडेज एकेडमी के प्रिंसिपल प्रदीप जोशी भी कार्यक्रम में शामिल हुए। उन्होंने कहा कि जब वह इंटरमीडिएट के बच्चों को पढ़ाते थे तो यह एहसास होता था कि इनकी प्राइमरी शिक्षा अच्छी नहीं हुई क्योंकि उनका कॉन्सेप्ट क्लियर नहीं था। 25 साल पढ़ाने के बाद मुझे लगा कि इस काम को मुझे अपने हाथों में लेना चाहिए।
कोरोना काल के बारे में उन्होंने कहा कि परेशानियां तो हैं, पर हमें इसे अवसर में बदलना है और टीचर नहीं करेगा तो कौन करेगा। प्रदीप जोशी ने कहा कि 25 अप्रैल से हमने नए तरीके से काम करना शुरू कर दिया। एक चार्ट के माध्यम से बच्चों और उनके अभिभावकों को प्रशिक्षित किया गया। कोरोना से निपटने के तरीके समझाते हुए पढ़ाई जारी रखने की बात समझाई गई। हमने नए कैलेंडर के तहत काम किया। हमने घर-घर अभियान छेड़ा। जून के आखिरी महीने में किताबें लाकर घर-घर पहुंचाई गई।
प्रिंसिपल जोशी ने बताया कि आज के समय में बच्चों का बेस मजबूत होना जरूरी है। सरकारी या प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे, उनका प्राइमरी एजुकेशन अच्छा रहता है तो उन्हें आगे सफलता मिलने की गारंटी बढ़ जाती है। हालांकि अगर नींव मजबूत नहीं होती है तो बच्चों को आगे की कक्षाओं और नौकरी, प्रतियोगिता में मुश्किल आती है
दुर्गम इलाकों के बच्चों की पढ़ाई ज्यादा प्रभावित
ग्रामीण अंचल के विद्यालय में सहायक अध्यापक भास्कर जोशी ने कोरोना काल में पहाड़ में रहने वाले बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होने पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि इस मुश्किल वक्त में दुर्गम इलाकों में रहने वाले बच्चों की पढ़ाई-लिखाई सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। इसका कारण यह है कि शहरों में रहने वाले बच्चों के अभिभावक अमूमन ज्यादा पढ़े-लिखे होते हैं, जो खुद अच्छे से पढ़ा सकते हैं। ऑनलाइन एजुकेशन पर उन्हें उनके स्कूल से अच्छा सपोर्ट मिल जा रहा है। गांव के स्कूल में अध्यापकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि बच्चों को पढ़ाई से कैसे जोड़े रखा जाए।
300 रुपये रोज कमाने वाला महंगा डेटा कैसे लेगा…
उन्होंने कहा कि समस्याएं एक नहीं कई हैं। गांवों, दुर्गम इलाकों, पहाड़ों में रहने वाले बच्चों के अभिभावकों के पास स्मार्टफोन ही नहीं है, जिनके पास है उन्होंने 3जी कनेक्शन ले रखा है। यह काफी स्लो चलता है। कुछ अभिभावकों के पास अगर नेटवर्क भी मिल जा रहा है तो उनके पास पर्याप्त डेटा नहीं है। इसमें हमें हालात को भी समझना होगा कि जो अभिभावक दिनभर मेहनत-मजदूरी करके 300-400 रुपये रोज कमाता होगा, वह बच्चों की पढ़ाई के लिए डेटा कैसे रिचार्ज करा सकता है। इस तरह की कई समस्याएं आईं।
भास्कर जोशी ने आगे कहा कि हमारा क्षेत्र कामकाजी है, जहां बच्चे अपने माता-पिता के काम में हाथ बंटाते हैं। ऐसे में कोरोना काल में ज्यादातर बच्चों ने तो मान लिया कि यह लंबा अवकाश है। अब पढ़ाई-लिखाई कुछ नहीं करनी है। इन समस्याओं का सामना किया गया है और उन्हें समझाकर वापस पढ़ाई से जोड़ने की कोशिश लगातार जारी है।
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लेक्चर का वीडियो बना बच्चों तक पहुंचाया
वहीं, शिक्षक अनिल कुकरेती ने कहा कि हमारी भौगोलिक परिस्थितियों के विषम होने के साथ हमारे राज्य के लोगों की आर्थिक परिस्थिति भी खराब हैं। स्मार्टफोन की समस्या तो है ही। ऐसे में स्कूल और शिक्षा विभाग की ओर से मुहिम चलाई गई। कोरोना तो लंबा चलने वाला है, ऐसे में हमने डिस्ट्रिक्ट रिसर्च ग्रुप बनाया और लेक्चर रिकॉर्ड करके वीडियो बनाए गए। पूरे जिले के विषयवार बेहतरीन शिक्षकों को लिया गया, बाकी लोगों से सुझाव लिए गए। एक-एक विषय पर 12-15 अध्यापकों की टीम बनी और फिर मैटेरियल तैयार किया गया। इसका आकलन करने के लिए डायट को भेजा गया। उन्होंने मैटर को अप्रूव किया और फिर हमने इस अध्ययन सामग्री को स्कूलों में पहुंचाने के लिए एक मुहिम चलाई, जो लगातार जारी है।
अनिल कुकरेती ने कहा कि नेटवर्क और दूसरे संसाधनों की कमी रहने वाली है। ऐसे में इसे कम कैसे किया जा सकता है, इस पर ध्यान देना जरूरी है। इसके अलावा हमने टीवी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया। पहाड़ों में कलर नहीं होगा तो ब्लैक एंड व्हाइट टीवी तो होगी ही। सरकार भी टीवी शिक्षा को बढ़ावा दे रही है। कोई चैनल नहीं आएगा तो दूरदर्शन और सरकारी चैनल तो आते ही होंगे। ऐसे में हमने बच्चों और अभिभावकों तक चैनल और समय के बारे में जानकारी पहुंचाई जिससे पढ़ाई चलती रहे।
टीवी पर आने वाले प्रोग्राम को टीचर भी देखते हैं और बच्चे भी, उस प्रोग्राम पर केंद्रित होमवर्क दिया जाता है। अब समस्या इस बात की थी कि हम पढ़ा रहे हैं लेकिन क्या पहाड़ी गांवों में रहने वाले बच्चे पढ़ रहे हैं? इसके लिए हमने गांव के हिसाब से बच्चों का ग्रुप बनाया और फिर उनके होमवर्क के आधार पर रिवॉर्ड की घोषणा करनी शुरू कर दी। इससे बच्चों में प्रतिस्पर्धा बढ़ी है कि उनके गांव के ग्रुप को अच्छी पढ़ाई करनी है आगे रहना है।
मिनी त्रिपाठी ने कहा कि कोरोना के चलते फेस टु फेस पढ़ाई और ह्यूमन टच में तो रुकावट जरूर पैदा हो गई है। लेकिन कनेक्टिविटी की जहां तक बात है तो बस उसका स्वरूप थोड़ा बदला है। पहले हम फोन पर बात ही करते थे, अब पढ़ाई-लिखाई का वह माध्यम बन गया है। शिक्षक और बच्चे अब इस तरह के फॉर्मेट में कुछ हद तक ढल चुके हैं। उन्होंने कहा कि दिलचस्प बात यह है कि हमने कोरोना से पहले का जो एनुअल प्लानर बनाया था, ठीक वैसे ही ऑनलाइन भी कर रहे हैं। वह चाहे 15 अगस्त, शिक्षक दिवस या योग कक्षाएं सब कुछ ऑनलाइन किया गया। बच्चे भी ये सब करके काफी खुश दिखे। हमारा उद्देश्य यही था कि बच्चों और अभिभावकों को यह बात समझ में आए कि बदली हुई परिस्थिति में भी हमें सब काम करने हैं और उसी अंदाज में करने हैं, बस माध्यम बदल गया है।
उन्होंने बताया कि बच्चों की नोटबुक चेक करनी हो तो 2-3 दिन रोककर, सैनिटाइज करके फिर उसे चेक किया जा रहा है। ऐसे में बच्चों की नोटबुक चेक हो रही है, और अभिभावक उसे ले जाते हैं।
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