उत्तराखंड प्राकृतिक संपदा और जैव विविधता के साथ ही यहां मिलने वाली जड़ी-बूटियों के लिए भी प्रसिद्ध है। देवभूमि में मिलने वाली जड़ी-बूटियों में जीवनदायिनी शक्ति है। पहाड़ के ग्रामीण इलाकों में आज भी इन जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल कई बीमारियों के इलाज में किया जाता है। इन्हीं जड़ी-बूटियों में से एक है पहाड़ में मिलने वाला जंगली फल गीठीं प्राचीन समय से ही पहाड़ों में लाइलाज बीमारियों का इलाज परंपरागत तरीकों से ही किया जाता रहा है।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
आज के दौर में भी कई बीमारियों के लिए कंदमूल फलों का उपयोग कर पहाड़ी क्षेत्रों में लोगों का इलाज किया जाता है। ऐसा ही एक फल है गीठीं जो आम तौर पर जंगलों में पाया जाता है। गीठी में कई औषधीय गुण पाएं जाते हैं। जो कई रोगों से लड़ने में मदद करते हैं। वहीं अब इसके औषधीय गुणों को देखते हुए लोग घरों में भी गीठी की खेती कर रहे हैं। गीठी की उत्पत्ति का स्थान दक्षिण एशिया माना जाता है। यह डायोस्कोरिएसी कुल का पौधा है। इसका वानस्पतिक नाम डायोस्कोरिया बल्बीफेरा है। इसे संस्कृत में वरही कंद, मलयालम में कचिल और मराठी में दुक्कर कंद कहते हैं। हिंदी में इसे गेंठी, गीठी या गिन्ठी कहते हैं और उत्तराखंड में भी ऐसे गेठि या गेंठी, गीठी ही कहते हैं। अंग्रेजी में गीठी को एयर पोटैटो) कहते हैं।
भारत मे गीठी की 26 प्रजातियां पाई जाती हैं। जिनमे गीठी के साथ तरुड़ कंद भी पहाड़ों में पाया जाता है। भारत के आयुर्वेद ग्रन्थ चरक संहिता और सुश्रुतसंहिता में गीठी को दिव्य अठारह पौधों में स्थान दिया गया है। चवनप्राश के निर्माण में भी गीठी का प्रयोग होता है। नाइजीरिया को गीठी का सबसे बड़ा उत्पादक देश माना जाता है। नाइजीरिया के अलावा घाना ब्राजील ,क्यूबा, जापान इसके मुख्य उत्पादक देश हैं। भारत के कुछ राज्य, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडु में इसकी खेती की जाती है। उत्तराखंड में 2000 मीटर तक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में गीठी कई बेल पाई जाती है। गीठी एक बेल वाला पौधा है। गीठी को दवाई के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। यह खांसी ठीक करने में लाभदायक है। इसमें ग्लूकोज और फाइबर काफी मात्रा में होता है, जिस वजह से यह एनर्जी बूस्टर का भी काम करती है। इसमें कॉपर, आयरन, पोटेशियम, मैगजीन भी होता है। यह विटामिन बी का एक बेहतरीन सोर्स है। इसका लेप लगाने से फोड़े-फुंसी भी ठीक हो जाती हैं। इसका सेवन कोलेस्ट्रोल को कम करने में भी मदद करता है।
शरद ऋतु के दौरान गीठी बाजार में देखने को मिल जाएगी। इसकी कीमत 60 से 70 रूपये प्रति किलो तक होती है। ठंड के मौसम में इसका प्रयोग बहुत लाभदायक होता है। पहाड़ी क्षेत्रों में इसे गर्म राख में पका कर इसका सेवन करते हैं। इसे खांसी की अचूक औषधि माना जाता है। गीठी ऊर्जा का अच्छा स्रोत है। गीठी में शर्करा (ग्लूकोज) और रेशेदार फाइबर सही मात्रा में पाए जाते हैं। जिससे खून में ग्लूकोज का स्तर बहुत धीरे बढ़ता है। गीठी में कई ऐसे तत्व पाए जाते हैं, जिनके कारण शरीर मे कोलस्ट्रोल कम बढ़ता है। साथ ही यह मोटापा घटाने में भी लाभदायक है। इसमे विटामिन बी प्रचुर मात्रा में मिलता है। जो बेरी बेरी और त्वचा रोगों की रोकथाम में सहायक होता है। गीठी या वराह कंद ऊर्जा का अच्छा स्रोत है। गेंठी में शर्करा (ग्लूकोज) और रेशेदार फाइबर सही मात्रा में पाए जाते हैं। जिससे खून में ग्लूकोज का स्तर बहुत धीरे बढ़ता है।
गीठी में कई ऐसे तत्व पाए जाते हैं, जिनके कारण शरीर मे कोलस्ट्रोल कम बढ़ता है। एयर पोटैटो मोटापा घटाने में लाभदायक है। इसमे विटामिन बी प्रचुर मात्रा में मिलता है, जो त्वचा रोगों की रोकथाम में सहायक होता है। गीठी में कॉपर, लोहा, पोटेशियम, मैगनीज आदि खनिज (मिनरल्स) पाए जाते हैं। जिसमे से पोटेशियम रक्तचाप को नियंत्रित रखता है और कॉपर रूधिर कणिकाओं के निर्माण के लिए आवश्यक है। वराह कंद या गीठी की पत्तियों और टहनियों के लेप से फोड़े फुंसियों में लाभ मिलता है। गेंठी को उबालकर सलाद या सब्जी रूप में खाने से खांसी व जोड़ों के दर्द से राहत मिलती है।
गीठी के तनों व पत्तियों के अर्क में घाव भरने की क्षमता होती है। ऐसा भी माना जाता है कि इसके अर्क में कैंसर कोशिकाओं को मारने की क्षमता भी होती है। जिससे कैंसर जैसी भयानक बीमारी में लाभ मिलता है। इसके पत्तियों के लेप से सूजन व जलन में लाभ मिलता है। इसकी गांठों में स्टेरॉयड मिलता है जो कि स्टेरोएड हार्मोन और सेक्स हार्मोन बनाने के काम आता है। गीठी बबासीर के मरीजों के लिए किसी वरदान से कम नही है। दस्त के लिए भी यह अति लाभदायक है। इसमे एंटीऑक्सीडेंट प्रचुर मात्रा में होने के कारण रोग प्रतिरोधक क्षमता भरपूर रहती है और कैंसर में तो लाभदायक होता ही है। गीठी में डायोसजेनिन और डायोस्कोरिन नामक रसायनिक यौगिक पाए जाते हैं। इसका उपयोग कई रोगों के इलाज में किया जाता है। साथ ही पहाड़ी क्षेत्रों में लोग इसका उपयोग सब्जी के रूप में भी करते हैं। आम तौर पर गीठी के फल को पानी में उबालने के बाद इसका छिलका उतारा जाता है। जिसके बाद इसे तेल में भून कर इसमें मसाले मिलाए जाते हैं। जिसके बाद इसका उपयोग सब्जी के रूप में किया जाता है।
गीठी में प्रचुर मात्रा में फाइबर पाया जाता है। इसका उपयोग च्यवनप्राश बनाने में भी किया जाता है। गीठी का सेवन करने से शरीर में ऊर्जा का स्तर भी बढ़ता है। खास तौर पर गीठी का औषधीय उपयोग मधुमेह, कैंसर, सांस की बीमारी, पेट दर्द, कुष्ठ रोग, अपच, पाचन क्रिया संतुलित करने, दागों से निजात, फेफड़ों की बीमारी में, पित्त की थैली में सूजन कम करने और बच्चों के पेट में पनपने वाले कीड़ों को खत्म करने में किया जाता है। गीठी जैसे औषधीय कंदमूल फल उत्तराखंड में विलुप्त हो रहे हैं या उनके गुणों और उनके बारे में सही जानकारी ना होने के कारण हम उनका सही प्रयोग नही कर पा रहे हैं। बाजार में गीठी के दाम आसमान छू रहे है, मंडियों में गीठी 50 रुपये से 80 रुपये प्रति किलो के भाव में बिक रही है,मैदानी क्षेत्र की मंडियों में भी गीठी की डिमांड काफी बढ़ गई है। डिमांड अधिक होने के चलते इनकी आपूर्ति भी पूरी नहीं हो पा रही। पहाड़ में लाइलाज बीमारियों को ठीक करने के लिए आज भी परम्परागत नुस्खे अपनाए जाते है। जिसका उपयोग कई रोगों के उपचार में किया जाता है।
जंगलों में होने वाले कंदमूल गीठी का उपयोग प्राचीन काल से ही कई बीमारियों के इलाज में होता आया है। इसके ओषधीय उपयोग को देखते हुए लोग घरों में भी गीठी का उत्पादन करने लगे है। मगर ये चमत्कारी वनस्पति अब धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर है। देवभूमि उत्तराखंड में पिछले कुछ वर्षों में पलायन बहुत तेजी से हुआ है। जिस तेजी से पलायन बढ़ा है उसी तेजी से वहां की वन संपदा और भोजन की थाली से पहाड़ में उगने वाले कंदमूल फल जिसकी स्थानीय लोग सब्जी बनाते है भी अब गायब से हो गए है। ये कंदमूल फल न केवल स्वादिष्ट होते हैं अपितु शरीर को स्वस्थ रखने में भी सहायक होते हैं। उत्तराखंड के जंगलों में विभिन्न प्रकार के कंदमूल फल होते है जिनको सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है इन्हीँ में एक है गींठी। जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है कि ये एक गांठ की तरह का होता है। इसके फल बेल में लगते है जो गुलाबी, भूरे और हरे रंग के होते हैं।
आमतौर पर गीठीं के फल की पैदावार अक्टूबर से नवंबर महीने के दौरान होती है। उत्तराखंड के जंगलों में ये वर्षों पहले से पाया जाता है और वहां लोग इसकी सब्ज़ी को खूब पसंद करते हैं क्योंकि ये स्वादिष्ट होने के साथ-साथ पाचनक्रिया को भी दूरस्थ करता है और सांस व फेफड़ों को भी तरोताजा रखने में मदद करता है। इस कंदमूल फल के औषधीय गुणों के कारण आज बाजार में इसकी डिमांड बहुत बढ़ गई है जिसे देखते हुए उत्तराखंड के कुछ एक स्थानों पर अब इसकी खेती भी होने लगी है। ऐसी अनेकों वनस्पतियां जिनमे कि औषधीय गुण भी छिपे हैं आज के समय में जंक फ़ूड के चलते समाप्ति के कगार पर हैं। हमें व सरकारों को चाहिए कि इन बेसकीमती वनस्पतियों के संरक्षण के लिए कोई ठोस निति निर्धारण करें तांकि हमारे जीवन को जीवनदान देने वाली ये वनस्पतियों फिर से हमारे आस-पास मौजूद रहे।
यह लेखक के निजी विचार हैं और वह दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।
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