रक्षा उत्पादन में भारत की आत्मनिर्भरता

रक्षा उत्पादन में भारत की आत्मनिर्भरता

हर इंसान और समाज अपने समपन्न और सुखी जीवन के लिए में आत्मनिर्भर बनना चाहता है। ठीक उसी तरह सुरक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनना, हर राष्ट्र का सपना होता है। आज पूरे विश्व में खरबों डॉलर का व्यापार रक्षा-सामाग्री के क्रय-विक्रय में होता है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद आज रूस-युक्रेन युद्ध से यूरोप की रक्षा, ऊर्जा और वित्तीत परिस्थितियों में बड़ा परिवर्तन हुआ है। जिस वजह से कई यूरोपीय देश अपनी सुरक्षा को मजबूत बनाने हेतु बड़ी मात्रा में युद्ध सामाग्री में वृद्धि कर रहे हैं और जाहिर है कि इस प्रक्रिया में खरबों डॉलर का व्यापार होगा। परिस्थिति कुछ भी हो युद्ध सामाग्री आयात से देशों की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पढ़ता है। भारत भी रक्षा सामग्री के आयात से वंचित नहीं है।

रियर एडमिरल (से.नि.) ओम प्रकाश सिंह राणा 

भूतपूर्व महा निदेशक नौ सेना आयुध निरीक्षण & महा प्रबंधक ब्रह्मोश एयरोस्पेस

 

स्वतंत्रता उपरांत से आज तक हमारी अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा रक्षा सौदों पर खर्च होता आया है। इसका कारण सही प्राथमिकताएं, वातावरण या नीतियों में कमी आदि कुछ भी हो, आज भी भारत रक्षा सामान के आयात में विश्व के दूसरे या तीसरे स्थान पर है। विगत वर्षों में इस क्षेत्र में काफी उन्नति हुई है और वर्तमान सरकारी नीतियां भी इस दिशा में एक अच्छा वातावरण प्रदान करती हैं। फिर भी पूर्ण रूप से आत्मनिर्भरता अभी भी बहुत दूर है। इस पृष्ठ भूमि में मैंने रक्षा उत्पादन क्षेत्र में आत्मनिर्भरता पर अपने विचार रखने का प्रयास किया है।

भू-राजनीति तथा सामरिक वातावरण के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा की नीति और आवश्यकतानुसार सुरक्षा सामग्री और मानव संसाधनों की रूप-रेखा बनती है। रक्षा सामाग्री की कीमतें सामाजिक, तकनीकी, राजनीतिक और व्यापारिक दृष्टि से बहुत अधिक होती है और इनके आयात में खर्च की गयी धनराशि, राष्ट्र के अन्य क्षेत्रों में उन्नति और जनता की मूलभूत सुख सुविधा योजनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।

इसलिए रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता हर राष्ट्र की एक दूरगामी जरूरत है और इसके लिए देश में उचित रक्षा अनुसंधान, तकनीकी प्रबंधन और आधुनिक उत्पादन कारखानों की आवश्यकता होती है। साथ ही इन क्षमताओं को समयबद्ध रूप में विकसित करने में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा खर्च होता है।

इसलिए उचित आर्थिक अनुकूलन व्यवस्था से विदेशी आयात और स्वदेशीकरण के मध्य सही समन्वय से रक्षा उपकरणों की आपूर्ति हेतु छोटे और लम्बी अवधि में आयात तथा स्वदेशीकरण रोडमैप द्वारा नीति निर्धारण की जाती है। लेकिन लम्बी अवधि में आत्मनिर्भरता ही एकमात्र समाधान है।

अगर हम 1947 के पहले देश में रक्षा उत्पादन पर नजर डालें, तो हम पायेंगे कि प्रथम विश्व युद्ध के आसपास अंग्रेजों ने भारत में आयुध निर्माणी कारखाने कोरडाइट फैक्ट्री अरुवनकाडू, आयुध निर्माणी खमरिया और गन केरिएज फैक्ट्री जबलपुर तथा गन – शैल फैक्ट्री कोशीपुर और आयुध निर्माणी डमडम, कोलकाता में थे।

 

इन कारखानों में तोपें, केरिएज, गोला बारूद और बम आदि का निर्माण होता था। इस प्रकार इन आयुधों से अंग्रेजी शासन की प्रशांत महासागर तथा दक्षिण पूर्व एशिया में सुरक्षा सामाग्री की काफी हद तक जरूरत पूरी होती थी और उचित आपूर्ति प्रबंधन से आर्थिक बचत भी।

स्वतंत्रता के बाद इन कारखानों में उत्पादन सीमित रहा। इसके मुख्य कारण थे; भारत की सुरक्षा नीति दिशा-बद्ध हो रही थी, स्वदेशी रक्षा उत्पादन और आत्मनिर्भरता हेतु सीमित दिशा निर्देश तथा स्वदेशी तकनीकी, वैज्ञानिक मानव संसाधन और उत्पादन आधार में कमी। साथ ही सरकार का ध्यान पड़ोसियों से अच्छे सामाजिक, राजनीतिक एवं सौहार्दपूर्ण संबंधों पर केंद्रित था। लेकिन 1962 के चीनी हमले के कारण भारत को सुरक्षा व्यवस्था की आवश्यकताओं का अहसास हुआ।

 

समय के साथ, भू-राजनीति तथा सामरिक वातावरण में परिवर्तन, शीत युद्ध, अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को बड़ी मात्रा में हथियारों की आपूर्ति आदि से देश की बढ़ती सुरक्षा जरूरतों की पूर्ति हेतु प्रक्रिया शुरू हुई। धीरे-धीरे स्वदेशी तकनीकी एवं वैज्ञानिक मानव संसाधन का विकास किया गया, सुरक्षा संस्थान स्थापित किए गए और आयुध कारखानों का भी विस्तार हुआ।

इसके अंर्तगत सुरक्षा जरूरतों के लिए भारत का सोवियत संघ/रूस से सामरिक समझौता हुआ और बड़ी मात्रा में रूस से तीनों सेनाओं के लिए रक्षा सामग्री का आयात प्रारम्भ हुआ। कई आयुध निर्माणियों और सरकारी उत्पादन कारखाने स्थापित किये गये और देश में रक्षा सामाग्री का लाइसेंस प्रबंधन के अंतर्गत उत्पादन की नीव पड़ी।

देश की रक्षा अनुसंधान – विकास संगठन (डीआरडीओ) को पुनः व्यवस्थित किया गया और रक्षा सामानों के स्वदेशीकरण में दिशागत काम शुरु हुआ। आयुध निर्माणी कारखानों की संख्या में वृद्धि हुई, भारतीय शिपयार्डों में युद्धक जहाजों का उत्पादन शुरू हुआ। इन परिवर्तनों से देश की मूलभूत आवश्यकताओं की कुछ हद तक पूर्ति तो हुई, लेकिन फिर भी वर्ष 2000 तक बड़ी मात्रा में रक्षा सामान विदेशों से ही आयात होता रहा।

धीरे-धीरे, आयात किए गए रक्षा उपकरणों के रखरखाव हेतु, देश के रक्षा और निजी कारखानों में क्रिटिकल कल पुर्जों का स्वदेशीकरण शुरु हुआ। सेनाओं, वैज्ञानिक तथा उत्पादन संस्थानों में उचित समन्वय और प्रबंधन से क्रिटिकल कल पुर्जों के स्वदेशीकरण में सफलता के बाद, सब-सिस्टम तथा सिस्टम लेबल रक्षा सामानों के स्वदेशीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ और विदेशी मुद्रा की बचत की शुरुआत हुई।

स्वदेशीकरण एक जटिल और लम्बी प्रक्रिया है। इसके लिए देश में एक मजबूत शैक्षणिक, तकनीकी तथा अभियांत्रिकी, ज्ञानाधार, विकसित तकनीकी का उत्पादन, उत्पादन आधार, परीक्षण, आदि की आधारिक सुविधाएं और सशस्त्र सेनाओं की भागीदारी की नितांत आवश्यकता होती है। इन सब मूलभूत सुविधाओं के बिना आत्मनिर्भरता की बात करना भी बेकार है।

यहां ध्यान देने योग्य बात ये है कि स्वदेशीकरण हेतु बाहरी देशों से कोई सहयोग नहीं मिलता क्योंकि, कोई भी देश किसी भी कीमत पर अपना डिजाइन, व्यक्तिगत मालिकाना हक दूसरे देश को नहीं देगा। उत्पादन के बाद सिस्टम की गुणवत्ता और आवश्यकताओं के अनुरूप स्वीकार करने हेतु जल, थल और हवाई परीक्षण होता है। इन सब प्रक्रियाओं में किसी भी उपकरण के स्वदेशीकरण में समय लगता है।

पिछले दशकों के प्रयास से हमारे शैक्षणिक एवं तकनीकी संस्थानों, रक्षा अनुसंधान – विकास संगठन, शस्त्र सेनाओं और सरकारी/ प्राइवेट उत्पादन कारखानों ने काफी उन्नति की है और आगे भी प्रयास जारी हैं। शैक्षणिक एवं तकनीकी क्षेत्र में हमारे देश में कई तकनीकी संस्थान (आईआईटी, एनआईटी, आईआईएससी), तकनीकी विश्वविद्यालय, सुरक्षा अनुसंधान – विकास संगठन की 50 से ज्यादा प्रयोगशालाएं, वैज्ञानिक तथा औद्योेगिक अनुसंधान परिषद की प्रयोगशालाएं एवं अन्य कई वैज्ञानिक संस्थान स्थापित किए गये हैं जो कि हमारे आत्मनिर्भरता में बहुत बड़ी ताकत है।

रक्षा उत्पादन हेतु 40 से भी ज्यादा आयुध निर्माणी फैक्टरियां और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (मझगांव डोक, गोआ शिपयार्ड, हिंदुस्तान शिपयार्ड, गार्डन रीच, कोचीन शिपयार्ड, भारत इलेक्ट्रोनिक्स, भारत फोर्ज, भारत हेव्वी एलेक्ट्रिकल्स, भारत डाइनामिक्स, ईसीआइएल, आदि) हैं। खुशी की बात है कि, आज विभिन्न रक्षा उपकरण देश में ही विकसित और निर्मित हो रही हैं।

आज देश में निजी शिपयार्डों तथा कंपनियां; टाटा, एल – टी, रिलायेंस इंडस्ट्री, महेंद्रा, गोदरेज, ब्रह्मोस एयरोस्पेस, जिंदल डिफेंस, अस्त्रा, डेटा पेटर्न, अनंत, कल्याणी ग्रुप, डायनामेटिक, अशोक लीयलेंड, काल्टेक इंजीनियरिंग, लाखों एमएसएमई और अन्य कई निजी उत्पादन कंपनियां है। कई का तो विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्त समझौते भी है।

ये सब मिलकर भारत को एक विशाल उत्पादन क्षमता और आत्मनिर्भर बनाने का बृहत आधार है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सरकार की आत्मनिर्भरता हेतु उदारवादी नीतियां, विदेशी निवेश में बढ़ोतरी, विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्त उत्पादन, अनुसंधान एवं विकास, मेक इन इंडिया हेतु प्रोत्साहन, उचित दिशा निर्देश आदि कुल मिलाकर आज देश में स्वदेशीकरण हेतु अत्यंत और अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं।

आज निजी कंपनियों की रक्षा सामाग्री उत्पादन में बड़ी भागीदारी है। हर्ष की बात है कि कुछ निजी कंपनियां जहाजों, तोपें, मिसाइलें, क्रिटिकल इलेक्ट्रोनिक तथा मेकेनिकल सिस्टम, फेब्रिकेसन, पावर उत्पादन सिस्टम, रडार, संचार सिस्टम, उच्च इनर्जी बैट्रियां, रोकेट लांचर, मानव रहित एरियल व्हेकिल आदि का उत्पादन कर रहे हैं।

आयुध निर्माणी बोर्ड का विभिन्न सरकारी उपक्रमों मे पुनर्व्यवस्था एक बहुत बड़ा कदम है और इसके परिणाम लाभदायक सिद्ध हो रहे हैं। थोड़ा ही सही पर आज भारत रक्षा सामाग्री का भी निर्यात करता है, जो कि इस समय लगभग 17,000 करोड़ रुपये है और वर्ष 2024 तक इसे 35,000 करोड़ सालाना करने का लक्ष्य है।

आज देश में सामरिक रक्षा सामग्री के विकास में निजी कंपनियों की बहुत बड़ी भागीदारी है। देश ने इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग क्षेत्र में बहुत तरक्की की है। सरकारी तथा निजी उत्पादन कारखानों में नई तकनीकों, कंप्यूटर चालित मशीनों का जाल बिछा हुआ है।

कुल मिलाकर आज देश के डिजाइन, सरकारी और निजी उत्पादन संस्थानों, गुणवत्ता, रखरखाव, सेनाओं और सरकार सभी संस्थानों के मध्य उचित समन्वय है। सेनाएं रक्षा जरूरतों के अनुसार रक्षा उपकरणों की ‘स्टाफ रिक्वाइरमैंट’ द्वारा उस उपकरण का सामान्य परिचालन विवरण, आर्थिक, सेल्फ लाइफ, गुणवत्ता, रखरखाव, परीक्षण प्रक्रिया, समयबद्ध आपूर्ति, आदि के बारे में पूरी जानकारी देती है और सही संपर्क भी रखती है।

फिर सफलतापूर्वक डिजाइन, उत्पादन, परीक्षण आदि प्रक्रिया के बाद उपकरण को सेना द्वारा स्वीकार किया जाता है और इनके रखरखाव और दैनिक इस्तेमाल प्रक्रिया, ट्रेनिंग, उत्पादन डोकुमेंटेशन, आदि से उपकरणों के ‘प्रारब्ध से अंत’ तक नीति से लाइफ साइकिल प्रबंधन किया जाता है और यही आत्मनिर्भरता नीति अन्य सेनाओं में भी सफल हो रहा है और होता रहेगा।

सेनाओं की आवश्यकतानुसार, निकट और दूरगामी सुरक्षा योजनाओं के तहत डीआरडीओ से तालमेल द्वारा समयबद्ध स्वदेशीकरण/ आत्मनिर्भरता योजनाएं बनाई गयी हैं। सरकार द्वारा विदेशी खरीद और स्वदेशीकरण हेतु रक्षा खरीद गाइड, रक्षा उत्पादन नीतियां और रक्षा खरीद प्रक्रिया भी जारी किए हैं। स्वदेशीकरण हेतु सरकार, उत्पादन संस्थानों और सेनाओं में पारदर्शिता है। कोई भी भारतीय कंपनी विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्त डिजाइन, उत्पादन, संयुक्त उत्पादन, विदेशी निवेश नीति, आफसेट क्लोज आदि के द्वारा रक्षा सामान का उत्पादन कर सकती है।

इस प्रक्रिया से रक्षा उपकरणों की समय पर आपूर्ति, उनके कीमत में कमी और साथ ही उचित पैसे की कीमत पर सामान भी मिलेगा। नौ सेना द्वारा डिजाइन विमान वाहक युद्धपोत विक्रांत और एके-630 अम्युनिसन का क्रमशः ‘कोचीन सिप्यार्ड’ तथा ‘इकोनोमिक इक्सप्लोसिव कम्पनी’ नागपुर द्वारा सफलतापूर्वक उत्पादन कर नौ सेना को समर्पण करना आत्मनिर्भरता प्रक्रिया का एक उत्तम उदाहरण हैं।

आत्मनिर्भरता पथ पर अग्रसर होने के लिए एयरोस्पेस और रक्षा सेक्टर में डिफेंस इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर की स्थापना, 500 से अधिक रक्षा सामानों के आयात पर प्रतिबंध, देश की उत्पादन संरचना और विश्वास को प्रदर्शित करता है। साथ ही सरकार ने 2025 तक घरेलू रक्षा उत्पादन का $25 बिलियन और निर्यात का $5 बिलियन का लक्ष्य रखा है।

इसके अलावा सामरिक भागीदारी मॉडल के अंतर्गत भी देश में युद्ध पोतों, लड़ाकू विमानों, हेलिकॉप्टरों, टैंकों, आदि की प्रक्रिया एक उत्तम कदम है। सरकार द्वारा, सेना की जरूरतों के लिए, वार्षिक बजट का 70 प्रतिशत देश में खर्च करने, रक्षा सामान का भारत मे निर्माण और आयात पर प्रतिवंध इस दिशा में एक सही प्रयास है। लेकिन, इन रक्षा सामाग्रियों के सभी सब-सिस्टम/ कम्पोनेंट देश में ही निर्माण की क्षमता हो, यही सही मायने में आत्मनिर्भरता है।

आज भारत आत्मनिर्भरता पथ पर अग्रसर हो रहा है। इनमें आधुनिक युद्धपोत, लडाकू विमान, हेलिकॉप्टर, टैंक, मिसाइलें, टोरपीडो, माइन्स, राकेट, गोला बारूद, तोपें, रोकेट लान्चर तथा कई पारंपरिक एवं सामरिक मिसाइल सिस्टम (अग्नि क्रम की मिसाइलें, आकाश, नाग क्रम की मिसाइलें, एमआरसेम, पानी के नीचे से मार करने वाली बेलेस्टिक मिसाइलें, वरुणास्त्र टोरपीडो, ब्रह्मोस मिसाइल आदि), रडार, संचार प्रणाली, मिसाइल लांचर, नेटवर्क प्रणाली, आदि मुख्य हैं।

मेरे विचार से ये पहला चरण है और इनमें निरंतर डिजाइन सुधार, एक सामान्य प्रक्रिया रहेगी और आधुनिक सामरिक जरूरतों के अनुसार हमारे रक्षा वैज्ञानिकों द्वारा नई तकनीकी का स्वदेशी विकाश और उत्पादन में लगातार महत्वपूर्ण भागीदारी रहेगी। अंत में सभी डीआरडीओ, सरकारी – निजी उत्पादन संस्थानों, सेनाओं तथा सरकार के बीच सही समन्वय से आत्मनिर्भरता को गति मिलेगी और साथ-साथ रोजगार के अवसर भी बढ़ेगें।

देश की आत्मनिर्भरता के परिप्रेक्ष्य का मेरा ये छोटा सा प्रयास रहा है। अंत में इस दिशा में कुछ सुझाव इस प्रकार हैं;

1) आज भी हम लगभग बड़ी मात्रा में रक्षा सामग्री विदेशों से आयात करते हैं। इसलिए सरकार द्वारा उचित दिशा निर्देश, सशक्तीकरण, संसाधनों का उचित प्रयोग, आदि द्वारा समयबद्ध आयात को कम करने की दिशा में ओर अधिक प्राथमिकता होनी चाहिए।

2) देशी या विदेशी कंपनियों के निवेश, संयुक्त उत्पादन एवं विकास, उत्पादन कारखाने लगाने हेतु, आदि सभी प्रस्तावों के स्वीकृति हेतु एकल बिंदु समाधान की व्यवस्था होनी चाहिए।

3) हमारा बिंदुगत ध्यान बड़े प्रणालियों (पोत, हवाई जहाज, टेंक, मिसाइल) के समयबद्ध 100 प्रतिशत स्वदेशीकरण पर होना चाहिए। यही सही मायनों में आत्मनिर्भरता है और ये सब हमारे वैज्ञानिकों और उत्पादन संस्थानों के लिए बड़ी चुनौती है।

4) डिफेंस इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर, नीति निर्धारण आदि में कुशल सेवानिवृत्त सैनिकों का डिजाइन, उत्पादन, गुणवत्ता, परीक्षण, आदि क्षेत्रों में उपयोग हेतु सरकारी नीति निर्धारण से इस अनुभवी मानव संसाधन का सदुपयोग हो सकता है।

5) आत्मनिर्भरता नीति पर नजर रखने और उचित दिशा निर्देश हेतु सरकार द्वारा एक निगरानी कमेटी होनी चाहिए।

6) आत्मनिर्भरता गति को सफल बनाने हेतु हर नागरिक से सहयोग और ईमानदारी अपेक्षित है।

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