उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल का सु-विख्यात नंदादेवी महोत्सव सम्पन्न

उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल का सु-विख्यात नंदादेवी महोत्सव सम्पन्न

उत्तराखंड में स्थापित रहे सभी राजवंशों मे देवी मां नंदा की अनेको अलग-अलग कहानियां जनमानस के मध्य प्रचलित रही हैं। लोककथाओं में देवी नंदा को हिमालय पुत्री कहा गया है। नव दुर्गाओं में से एक माना जाता है। हिमालय का नंदा पर्वत मायका व कैलाश पर्वत ससुराल माना जाता है। नंदा को राज राजेश्वरी भी कहा जाता है। गढ़वाल अंचल के पंवार राजाओं के साथ-साथ कुमांऊ अंचल के कत्युरी राजवंश और चंद राजाओं की ईष्ट व कुलदेवी के रूप में देवी मां नंदा को जाना जाता है।

सी एम पपनैं

ऐतिहासिक तथ्यों व मान्यताओं से जुडे रहे नंदा देवी मेले की भव्य तैयारी इस वर्ष उत्तराखंड पर्वतीय अंचल के कस्बों व शहरों में 20 सितंबर से आरंभ कर दी गई थी। 23 सितंबर अष्टमी के दिन विधिवत ब्रह्म मुहूर्त में वैदिक मंत्रोचार के बीच मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा के बाद से आदि शक्ति मां नंदा के प्रति दृढ़ व अटूट आस्था रखते हुए उत्तराखंड के अल्मोडा, नैनीताल, रानीखेत, कोटमन्या, भवाली, बागेर्श्व, चम्पावत, चांदपुर, रणचुला, डनगोली, बदियाकोट, कर्मी, सोरांग, तल्ली दसौली, तल्ली धूरी, सिमली, सरमूल, पोथिंग, गैडलोहवा, चिल्ठा इत्यादि इत्यादि में पूजा अर्चना व मुख्य मेलां के साथ-साथ अन्य विविध विधाओं के कार्यक्रमों का श्रीगणेश कर दिया गया था।

उत्तराखंड पर्वतीय अंचल के कस्बों व शहरों में अष्टमी के दिन बडी संख्या में आराध्य देवी की सामूहिक आरती और पूजा अर्चना के लिए श्रद्धालुओं का उमडने वाला जन सैलाब अटूट आस्था का प्रदर्शन करता नजर आया। 23 सितंबर अष्टमी के दिन से 27 सितंबर मूर्ति विसर्जन के दिन तक पूजा अर्चना के बाद देवी मां नंदा-सुनंदा को पारंपरिक रूप से हल्वे का भोग लगाया जाता रहा। स्थानीय मंदिर कमेटियों द्वारा आयोजित किए गए भव्य मेले, सांस्कृतिक व विविध आयामों के कार्यक्रम अलग ही छटा बिखेरे रहे।

पूजा अर्चना में अष्टमी के दिन अंचल की महिलाओं द्वारा पारंपरिक मांगलिक परिधानों में सज-संवर बडी संख्या में प्रातःकाल से सांय तक देवी मां नंदा-सुनंदा के दर्शन कर सुहाग सामग्री, पकवान, फल-फूल व पाती चढ़ा सामूहिक आरती व कीर्तन-भजन कर धन्य की भागी बनने का सौभाग्य प्राप्त किया।

27 सितंबर नंदादेवी महोत्सव के समापन दिवस पर कदली स्तंभों मे निर्मित देवी मां नंदा-सुनंदा की मूर्तियों को भव्यता के साथ कस्बों व नगर भ्रमण के बाद तय स्थानों पर सांध्य वक्त भावभीनि विदाई देकर विसर्जित कर दी गई।

उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में देवी नंदा को श्रद्धा से पूजने की परंपरा सदियों से रही है। प्रतिवर्ष विधि विधान से स्थानीय सिद्धहस्त शिल्पियों द्वारा अपनी प्रतिभा और प्रज्ञा से परंपरानुसार देवी मां नंदा मुखाकृतियों के आंगिक श्रृंगार और आभूषणों से अलंकृत करने के बाद निर्मित प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा व तत्संबंधी पूजा संपन्न की जाती रही है। पूजा तारा शक्ति के रूप में षोडशोपचार, पूजन, यज्ञ और भैसे व बकरे की बलि देकर की जाती रही है। वर्तमान में विगत कुछ वर्षो से बलि प्रथा पर सामूहिक निर्णयों के बाद रोक लगा दी गई है।

ऐतिहासिक तथ्यों से जुडे रहे उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के कुछ स्थानों पर आयोजित नंदादेवी महोत्सव की रोनक कुछ अलग ही छटा बिखेरे होती है जो अंचल से तीव्रगति से हो रहे पलायन के बाद भी अपनी संपन्न लोक विरासत के बल आज की युवा पीढी को समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा से रूबरू कराते नजर आते हैं।

नंदादेवी समूचे उत्तराखंड और हिमालय के अन्य भागों में जनसामान्य की लोकप्रिय देवी मानी जाती है। प्राचीन काल से ही देवी मां नंदा की उपासना किए जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रन्थों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं। स्कंद पुराण के मानसखंड और केदारखंड मे नंदा ’दारुमूर्तिसमासीना’ कहा गया है। पुराणों के आधार पर ही देवी मां नंदा की प्रतिमा परंपरानुसार काष्ट (कदली वृक्ष) पर निर्मित की जाती रही है।

कुमांऊ व गढ़वाल की संस्कृति को समझने के लिए नंदादेवी मेला देखना जरूरी है, इस तथ्य की पुष्टि नंदादेवी मेले में लोकगायकों, जगरियों, लोक नृतकों की टोलियां, झोडा, छपेली, छोलिया, हुड़का वादको, बैरिए इत्यादि इत्यादि के लोकगायन व अन्य लोक विधाओं को प्रत्यक्ष देख-सुन की जा सकती थी। विगत दो-चार दशक पूर्व तक अंचल की इस स्मृद्ध लोकसंस्कृति का बोल-बाला देखा जा सकता था, प्रत्यक्ष अवलोकन किया जा सकता था। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से अंचल से पलायन का क्रम कुछ ज्यादा ही बढ़ने से इस पलायन त्रासदी का गहरा असर उत्तराखंड में आयोजित होने वाले मेलों की गतिविधियों पर भी पडे बिना नहीं रह सका है। पारंपरिक लोकगायन, नृत्य, संगीत का वह ताना-बाना अब आयोजित मेलों में कम ही देखने को मिलता है।

उत्तराखंड में स्थापित रहे सभी राजवंशों मे देवी मां नंदा की अनेको अलग-अलग कहानियां जनमानस के मध्य प्रचलित रही हैं। लोककथाओं में देवी नंदा को हिमालय पुत्री कहा गया है। नव दुर्गाओं में से एक माना जाता है। हिमालय का नंदा पर्वत मायका व कैलाश पर्वत ससुराल माना जाता है। नंदा को राज राजेश्वरी भी कहा जाता है। गढ़वाल अंचल के पंवार राजाओं के साथ-साथ कुमांऊ अंचल के कत्युरी राजवंश और चंद राजाओं की ईष्ट व कुलदेवी के रूप में देवी मां नंदा को जाना जाता है। दोनो अंचलो का जनमानस देवी मां नंदा का उपासक पीढी दर पीढी रहता आया है। नंदा देवी को कोई बेटी तो कोई बहन मानता है। बहुमान्य और बहुपूज्य देवी मां नंदा अधिष्ठात्रि देवी मानी जाती है। मानवीय रिश्तों में बांध कर देवी मां को प्रेम और स्नेह के बंधन मे बांधना भक्ति का एक अलग ही रूप है।

उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल मे देवी नंदा के अनेकों मंदिर हैं। नगर, नदियों, पर्वतों, के नाम हैं। ये सब नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते नजर आते हैं। इसी मान्यता स्वरूप इस वर्ष नंदा देवी मंदिर परिसर नैनीताल के मुख्य मंच से उत्तराखंड सरकार के संस्कृति मंत्री सतपाल महाराज द्वारा नंदा देवी मेले को राजकीय मेला घोषित किया गया है, जो स्वागत योग्य कदम माना जा सकता है। स्थापित राज्य व केन्द्र सरकार को चाहिए वे अंचल के पर्यटन व धार्मिक यात्राओं के संवर्धन के लिए रानीखेत, अल्मोडा, बागेश्वर व चम्पावत के मंदिरों में आयोजित होने वाले धार्मिक मेलों को भी राजकीय मेला घोषित कर कर्तव्य निर्वाह करें।

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