यह सपना नहीं, हकीकत है पहाड़ों को लेकर …..!

यह सपना नहीं, हकीकत है पहाड़ों को लेकर …..!

गांवों में रह रही वर्तमान पीढ़ी की बात करें तो गांवों में बच्चों की संख्या बहुत कम होती जा रही है। बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिए लोग गांवों के निकट ही शहरों की ओर पलायन कर गए हैं। कुछ लोग अपनी सामर्थ्यानुसार शहरों, महानगरों की ओर चले गए हैं और वहीं अपनी नौकरी या रोजगार भी कर रहे हैं।

उत्तराखंड में पलायन की स्थिति एवं गांवों का पुनरोत्थान कैसे संभव होगा…!

भ्रमणशील और कुछ नया सोचने की प्रवृत्ति समय के साथ बढ़ती जा रही है समय – समय पर गांवों का भ्रमण किया जाता रहा और इसी दिसंबर अंत में भी कुछ प्रमुख गावों का भ्रमण किया गया। जब आप भीतर तक किसी चीज से जुड़ते हैं तो समाधान देने की स्थिति में भी होते हैं। पलायन और गांवों के विकास जैसे विषय पर गहनता से सोचने पर कुछ नवीन तथ्य मन – मस्तिष्क में उभरते हैं जो ज़मीनी (धरातलीय) हो सकते हैं जिन्हें समझा जा सकता है और किसी निर्णय पर भी आगे पहुंचा जा सकता है।

आज से पचास – साठ दशक पूर्व या उससे पहले, जो लोग गांवों से शहरों में चले गए और शहरों में एक ठीक – ठाक जीवन व्यतीत कर रहे हैं उनका वापस गावों में आकर बसना बहुत मुश्किल होगा, कारण हैं :- स्वास्थ्य तथा उनके मुताबिक सुविधाओं का न मिल पाना…। उनके बच्चे भी अपने – अपने स्थानों पर पढ़ – लिखकर देश-विदेशों में अच्छे से व्यवस्थित हो गए हैं। उनका पहाड़ों में आकर बसना नामुमकिन नहीं भी हो तो मुश्किल अवश्य है।

अब गांवों में रह रही वर्तमान पीढ़ी की बात करें तो गांवों में बच्चों की संख्या बहुत कम होती जा रही है। बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिए लोग गांवों के निकट ही शहरों की ओर पलायन कर गए हैं। कुछ लोग अपनी सामर्थ्यानुसार शहरों, महानगरों की ओर चले गए हैं और वहीं अपनी नौकरी या रोजगार भी कर रहे हैं। बच्चों के लिए वहां कमरा आदि दिलाकर या रिश्तेदारी में उन्हें पढ़ने के लिए भी छोड़ा जा रहा है। गांवों के कई प्राइमरी स्कूल इसलिए बंद हो गए हैं क्योंकि अब वहां बच्चे नहीं हैं… कहीं कुछ गांवों को मिलाकर 12-13 बच्चे हैं और एक भोजन माता, एक दो अध्यापक… यह अधिकांश गांवों की स्थिति होगी।

गांवों से पलायन करने का मुख्य कारण रहा है… कृषि के अतिरिक्त रोजगार के अन्य अवसर उपलब्ध न होना, अच्छे विद्यालयों की कमी, स्वास्थ्य के लिए अस्पतालों का अभाव, आने – जाने के लिए आज भी परिवहन की ठोस व्यवस्था का न होना, जंगली जानवरों का आतंक, गांवों से बाजारों का दूर होना, गांवों की ही उत्पादित साग – सब्जी, दालों दूध आदि पर निर्भरता होना, विपणन की सही व्यवस्था न हो पाना, पुस्तकालयों, युवा पीढ़ी के उत्थान के लिए किसी सेंटर, विचार – विमर्श के लिए किसी स्थल का न हो पाना आदि कारण ऐसे कहे जा सकते हैं।

हालांकि इन कुछ वर्षों के भीतर ही गांव – गांवों में शौचालय, बिजली जिसमें सौर ऊर्जा भी शामिल हो गई है, आ गई है। इस बार गांवों में घर – घर पानी के नल भी लगते हुए देखे गए। जब यह सुविधाएं आ गईं तो फिर भी लोग गांवों से पलायन कर रहे हैं। क्योंकि गांवों में रहने या टिकने के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। इसके पीछे और भी कई कारण हैं जो ऊपर दिए जा चुके हैं। सड़कें बनती भी हैं तो हर बारिश में फिर टूट जाती हैं। जब तक रोजगार के साधन, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कें, अच्छे स्टडी सेंटर गांव में नहीं होंगे, इस पीढ़ी को रोका नहीं जा सकेगा।

अब बात करते हैं कि किस प्रकार गांवों का पुनरुत्थान किया जा सकता हैः-

सर्वप्रथम जिन्हें बाहर अच्छी सुविधाएं उपलब्ध हो रही हैं उन्हें गांवों में फिलहाल रोकना मुश्किल होगा। स्वतः की प्रेरणा से कोई आएं, रुकें, गांवों को विकसित करें तो सदैव उनका स्वागत रहेगा। अब गांवों के विकास के लिए व्यक्तिगत प्रयासों की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी। जिसके अच्छे परिणाम आने की भी पूरी संभावना होगी।

महत्वपूर्ण है कि अब गांवों में उन्हें रोका जा सकता है जो गांवों में रहकर कुछ काम करने को तैयार हैं जिससे अपनी आमदनी बढ़ा सकें। अच्छा जीवन जी सकें।

इसके लिए एक महत्वपूर्ण उपाय यह नजर आता है कि गांव के बहुत पहले से खाली पड़े कुछ मकानों को ठीक करवाकर उन्हें “होम स्टे“ की तरह इस्तेमाल किया जा सके। शुरुआती दौर में इन्हें बहुत अधिक भव्य व महंगा न बनाकर, साफ – सुथरा व अपने प्राकृतिक रूप में रखा जाए। इनका शुल्क भी प्रति दिन (24 घंटे) के हिसाब से 500 रुपए तक ही रखा जाए। जो इतना न दे पाने की स्थिति में हों उन्हें प्रति व्यक्ति के हिसाब से कम भी किया जा सके। जिससे गांव की यात्रा पर जाने वाले बच्चे, बड़े, बूढ़े सभी उस खर्च को वहन कर सकें। चाय – भोजन आदि भी सही मूल्य पर उपलब्ध हो सके।

जिसमें बाहर से जाने वालों की रहने – खाने की बुकिंग पहले करवाने का भी प्रावधान हो। इससे एक फायदा यह होगा कि जो लोग कई वर्षों से अपने ही गांव नहीं जा पा रहे हैं कि गांव में किस प्रकार भोजन की व्यवस्था कर पाएंगे, कहां सोएंगे, कैसे रह पाएंगे.. आदि आदि! यह व्यवस्था हो जाने से वह लोग भी अपने गांव की ओर आयेंगे। अच्छी आबोहवा, अच्छा पहाड़ी भोजन मिलेगा तो आगे भी लोगों का आना – जाना बरकरार रहेगा। अपने परिचित लोगों को भी अपनी पैतृक भूमि में लोग भेज पाएंगे। बाहर के लोगों के आने – जाने के लिए देवभूमि में कुछ नियम अवश्य लागू करने होंगे जिससे गलत मंशा से या गलत कृत्यों के लिए प्रवेश करने वालों को रोका जा सके।

दिल्ली, मंबई हो या कोई भी शहर आज जब अपने गावों में पूजा करने या पितृकुड़ी कार्य के लिए लोग गांव आते हैं तो यही सोचते हैं कि गांव जा रहे हैं तो निकट से पहले खाने का सामान गाड़ी में भर लिया जाय, कुछ लोग तो बावर्ची लेकर भी मैदानों से पहाड़ों की ओर चलने लगे हैं। इस सीधी-सरल व्यवस्था से लोगों को गांवों के भीतर ही एक अच्छा रोजगार मिलेगा और लोगों को भी गांवों में जाने पर सुविधा होगी। लोगों की आवाजाही बढ़ेगी। अपनी खेती में भी लोग अच्छा उपजा पाएंगे। नई – नई कृषि तकनीक का विकास करेंगे।

जो आज पहाड़ों में हाईटेक “होम स्टे“ बना रहें हैं वह सामान्य नागरिक के किसी काम के नहीं। प्रति रात्रि डेढ़ – दो हजार से अधिक का उनका किराया आम आदमी की सामर्थ्य से बाहर है। इसलिए वह सिर्फ एक वर्ग तक ही सीमित रह गए हैं और सामान्य जन के लिए महत्वहीन…।

अब जंगली जानवरों से खेती बचाने की बात करें तो पूर्व में जैसा होता था कि कुछ लोग गावों में ही मसालें लेकर समूह में चल पड़ते थे। कभी कभी यह युक्ति भी गांव वालों को मिलकर करनी पड़ेगी। अच्छी फेंसिंग, घरों में स्वानों को पालना जिससे उजाड़ करने वाले जानवरों की सूचना मिल सके। दूर तक अच्छी लाइटें, अच्छा प्रकाश कारगर हो सकता है।

वर्तमान में देखें तो गांवों की एक समस्या यह है कि शौचालय घर से थोड़ा दूर बने होते हैं। घर में ही शौचालय पुरानी परंपरा नहीं थी। जो अब नए मकान गांवों में बना रहे हैं वह तो टॉयलेट भी साथ ही बना रहे हैं। पुराने मकानों का निर्माण इस तरह से होता था कि उसमें घर के भीतर टॉयलेट नहीं बनाए जाते थे। अतः किसी को रात को बाहर जाना पड़े तो घर के पीछे बने शौचालय में ही जाना होता था। जिसमें आज भी कुछ बदलाव नहीं हुआ है। आज के समय रात्रि में अकेले जानवरों का भी भय हो गया है। किंतु इसका भी एक समाधान लोगों ने खोजा जो पूर्व में भी था.. वह था ‘पश्वा का निर्माण’.. अर्थात् घर के भीतर ही एक कमरे में जिसमें मंदिर न हो वहां पर नहाने और मूत्र विसर्जन के लिए एक चौकोर स्थान बना दिया जाता था और उससे लगी पाइप को पीछे की तरफ निकाल दिया जाता। जिससे घर की स्त्रियां कभी वहां स्नान भी कर सकती थीं और बच्चे, बड़े, सभी रात्रि को बाहर न जाकर मूत्र विसर्जन भी कर लेते थे। अभी भी गांव के कुछ घरों में यह देखा गया, जहां नहीं है इसे बनाया जा सकता है। इस सुविधा के चलते जो गांवों में रहने आयेंगे उन्हें बहुत सुविधा होगी।

पूर्व के समय में खड़ी फसलों को बचाने के लिए “जुगाली का ठेका“ होता था जो गांव के ही किसी व्यक्ति को दे दिया जाता था जो अपने दो तीन कुत्तों के साथ दिन में बंदरों आदि से सभी की खेती की रखवाली करता था जिसके बदले में उसे अनाज या रुपए दिए जाते थे। रात्रि में फसलों को सुअर, सौल, भालू आदि से बचाने के लिए लोग मसालें लेकर, हल्ला मचाते हुए, कनस्तर बजाते हुए प्रतिदिन निकलते थे। साथ ही एक उपाय उन दिनों यह भी था कि कहीं दूर कनस्तर में लोग लकड़ी या घंटी बांध दिया करते थे और उसकी रस्सी को घर तक ले आते थे। रात को दो – चार बार घर से ही उस रस्सी को खींच लेते जिससे दूर खेतों के बीच ध्वनि गूंजने लगती जिससे जानवर जो आते भी थे, भाग खड़े होते थे। इन विधियों को गांवों को आवाद करने, फसलों को सुरक्षित रखने के लिए पुनः प्रयोग में लाया जा सकता है। साथ ही समय – समय पर उपर्युक्त विभिन्न कार्य क्षेत्रों के विशेषज्ञों द्वारा ग्राम पंचायत स्तर पर गांवों में गोष्ठी का आयोजन और सलाह – मशविरा दिया जाता रहना प्रमुख होगा। चकबंदी और भू – कानून का होना भी गांवों की समृद्धि, व्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण कदम होगा।

साथ ही अब रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे। खेती के लिए नए कृषि यंत्र, तकनीक, उन्नत बीज, अच्छी खाद, जल की आपूर्ति, कृषि के विपणन की सही व्यवस्था, गौ पालन, भेड़ बकरी पालन आदि करना होगा। पॉपुलर के पेड़ जो कम पानी में भी अच्छी मात्रा में उग जाते हैं और फर्नीचर आदि के लिए अच्छे प्रयोग में लाए जाते हैं उन्हें गांवों में भी उगाने की व्यवस्था देखी जा सकती है। केसर, मशरूम, बांस / रिंगाल की खेती, फलों के वृक्ष, फूलों की खेती, मोटा अनाज व पहाड़ी दालों का उत्पादन, मिठाई की जगह अरसे, खजूर जैसे खाद्य पदार्थ का निर्माण, मधु मक्खी पालन, मछली पालन, बद्री गाय (देसी, छोटी गाय) का घी जो आज २००० रुपए किलो तक बिक रहा है। बहुत कुछ हो सकता है इन पहाड़ों में… बस एक नई ऊर्जा और संकल्प की शक्ति को लेकर आगे बढ़ना होगा, चलना होगा।

मैंने स्वयं 18-20 वर्षों से सम्पूर्ण उत्तराखंड के विभिन्न जनपदों की यात्रायें की हैं जो मेरे साहित्य लेखन के लिए भी रहा और वर्तमान में भी यात्राएं जारी हैं।

महत्वपूर्ण है कि एक समय इंसान घर – परिवार से, समाज से सिर्फ लेने की अवस्था में होता है और एक समय ऐसा आता है जब उसे विभिन्न रूपों में लौटाने की बारी आती है…। जो शिक्षित हैं, स्वस्थ हैं, संपन्न हैं, सबका विकास चाहते हैं। अपने जीवन का एक अच्छा समय व्यतीत कर चुके हैं उन्हें कम से कम अपने गावों के विकास के लिए सोचना चाहिए और कुछ करना चाहिए। मैं भी करती हूं इसलिए यह सब लिखने के लिए कृत संकल्पित हूं। आगे भी कई अन्य सुझाव मैं देने की स्थिति में रहूंगी।

एक विचार मध्य प्रदेश इंदौर से अजय उनियाल का भी इस संदर्भ में मिला है जिनके अनुसार :- “मेरे अनुभव के आधार पर पलायन जैसे गंभीर विषय पर ब्लॉक स्तर पर स्थानीय एवं हम प्रवासी भाई बहनों द्वारा अपने-अपने ब्लॉक पर समितियां गठित की जाए सरकार से स्थानीय ब्लॉक प्रमुखों के माध्यम से गांव में सड़क बिजली पानी एवं खेतों में पानी हेतु मांग की जाए कृषि विभाग पशुपालन विभाग एवं संबंधित सभी विभागों के अधिकारी समितियां में हमारे साथ कार्य करें सभी ब्लॉकों में एक समान योजना बनाई जाए हम सब मिलकर प्रवास में भी समस्त भाई बहनों से सामाजिक संस्था एवं वरिष्ठ समाजसेवियों द्वारा इस कार्य को एक आपसी सहभागिता सुनिश्चित कर प्रारंभ कर सकें। इसमें सभी का सहयोग अपेक्षित होगा।“

इसलिए जो परिस्थिति को समझेंगे, वह तटस्थ नहीं रह पाएंगे। किसी न किसी रूप में अपनी भूमिका अवश्य निभायेंगे।

शाखें रहीं तो फूल भी पत्ते भी आयेंगे।
फिर पहाड़ों के वो अच्छे दिन भी आयेंगे…..।

डॉ. हेमा उनियाल
(ग्रंथकार)

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