प्राण जाए पर पेड़ न जाए…. आज पूरा देश याद कर रहा चमोली से शुरू हुआ वो अनोखा आंदोलन

प्राण जाए पर पेड़ न जाए…. आज पूरा देश याद कर रहा चमोली से शुरू हुआ वो अनोखा आंदोलन

चिपको आंदोलन की जननी गौरा देवी का जन्म 1925 में उत्तराखंड के लाता गांव में हुआ था। उस समय गांव में काफी बड़े पेड़-पौधे थे तो गौरा देवी का उनसे काफी लगाव हो गया। 12 साल में शादी रैणी गांव में हुई। पति किसान थे, पर शादी के 10 साल बाद उनकी मृत्यु हो गई। ऐसे मुश्किल हालात में आगे बढ़कर गौरा देवी लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बनीं।

प्राण जाए पर पेड़ न जाए… आज के दिन पूरा उत्तराखंड इस पंक्ति को दोहरा रहा है। जी हां, 1974 में आज ही के दिन चिपको आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। इस दिन चमोली जिले में गौरा देवी की अगुवाई में रैणी गांव की महिलाओं ने पड़ों की कटाई रोकने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दी थी। आज भी यह आंदोलन पर्यावरण संरक्षण और पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए याद किया जाता है।

आज के युवा, समाज और सरकारें उस आंदोलन को आदर्श मानकर आगे बढ़ रहे हैं। आज के दिन उत्तराखंड ही नहीं, देशभर के लोग प्रकृति को बचाने के लिए ऐसी जीवटता दिखाने वाले आंदोलनकारियों को नमन कर रहे हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने ट्वीट कर लिखा, चिपको आंदोलन की 48वीं वर्षगांठ पर विश्व पर्यावरण की रक्षा के लिए पेड़ों के संरक्षण का संकल्प लें।

पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने लिखा- पर्यावरण की रक्षा के लिए सबसे बड़े और अनोखे ‘चिपको आंदोलन’ की आज वर्षगांठ है। सन् 1974 में आज ही के दिन रैणी गांव चमोली की महिलाओं ने गौरा देवी जी के नेतृत्व में पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दी। ऐसी मातृशक्ति को कोटिशः नमन।

आज का दिन वास्तव में उन नारियों को याद करने का दिवस है, जिन्होंने आधुनिकता की ओर भाग रहे समाज को प्रकृति प्रेम सिखलाया। देश के आधुनिक इतिहास में चिपको आंदोलन प्रभावी आंदोलनों में से एक था। पर्यावरण की रक्षा के लिए पेड़ों की कटाई रोकने का यह अहिंसक और अनोखा आंदोलन था।

26 मार्च 1974 को गौरा देवी के नेतृत्व में 27 महिलाओं के समूह ने पेड़ों की कटाई रोकने के लिए एक पहल की थी, जो आंदोलन का रूप लेता गया। इस आंदोलन का मकसद कारोबाई और कमाई के लिए हो रही वनों की कटाई को रोकना था। आज की पीढ़ी को शायद यह जानकर आश्चर्य हो कि उस समय पेड़ों के काटने के लिए ठेकेदार आते तो महिलाएं पेड़ों से लिपट जाया करती थी। यह प्रकृति प्रेम की पराकाष्ठा थी, जिसने बाद के वर्षों में समाज को जागरूक करने का भी काम किया।

इस आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाओं ने हिस्सा लिया था। इस आंदोलन की नींव 1970 में मशहूर पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा, गोविंद सिंह रावत, चंडीप्रसाद भट्ट और गौरा देवी के नेतृत्व में पड़ी थी।

गौरा देवी का कहना था कि ये जंगल हमारा माता का घर जैसा है, यहां से हमें फल, फूल, सब्जियां मिलती हैं। अगर यहां के पेड़-पौधे कटेंगे तो निश्चित ही बाढ़ आएगी। गौरा देवी अपने जीवन काल में कभी विद्यालय नहीं जा सकी थीं, पर उनका समाज को संदेश परिपक्व और सटीक था।

उत्तराखंड के लोग मानते हैं कि युगों-युगों तक गौरा देवी का नाम पूरी श्रद्धा और पर्यावरण बचाने वाली योद्धा के तौर पर लिया जाएगा।

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