युवाओं को प्रशिक्षण और स्व-रोजगार से ही रूकेगा पलायन

युवाओं को प्रशिक्षण और स्व-रोजगार से ही रूकेगा पलायन

मेरे परिवार का कोई भी व्यक्ति सेना में नहीं है, लेकिन इस महान भारतीय सेना का हिस्सा होने पर मैं अपने आपको बहुत भाग्यशाली समझता हूं और यह वास्तव में मेरा एक सपना था जो पूरा हुआ था। डेढ़ साल के प्रशिक्षण के बाद, भारतीय सेना की एक सर्वश्रेष्ठ रेजीमेंट, डोगरा रेजीमेंट की 7वीं बटालियन में कमीशन किया। अंत में 31 अगस्त 2021 में सेना मुख्यालय के आईएचक्यू से एडीजी टीए के पद से सेवानिवृत्त हुआ।

– मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) गुलाब सिंह रावत

मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) गुलाब सिंह रावत अपने 37 साल के लम्बे कार्यकाल के बाद एडीजी टीए के पद से सेवानिवृत हुए और देश-विदेश में उन्होंने देश की सेवा की। उन्होंने बताया कि मेरे परिवार का कोई भी व्यक्ति सेना में नहीं है, लेकिन इस महान भारतीय सेना का हिस्सा होने पर मैं अपने आपको बहुत भाग्यशाली समझता हूं और यह वास्तव में मेरा एक सपना था जो पूरा हुआ था।

जब मैंने प्रवेश लिया, तब ट्रेनिंग के बारे में और किस प्रकार के माहौल से गुजरना होगा, इस बारे में मैं बिल्कुल ही अनजान था। डेढ़ साल के प्रशिक्षण के बाद, भारतीय सेना की एक सर्वश्रेष्ठ रेजीमेंट, डोगरा रेजीमेंट की 7वीं बटालियन में कमीशन किया। जब मुझसे शाखा (आर्म्स) के बारे में पूछा गया, तब मैंने अपने पिता से बात की; तब उन्होंने मुझे खुशी-खुशी कहा कि जो कुछ भी मिले उससे खुश रहना।

मेजर जनरल गुलाब सिंह रावत ने कहा कि यह बड़ी ही शानदार यात्रा रही। मैं राष्ट्रीय बाल विद्या मंदिर, लुधियाना का छात्र रहा हूं। जून 1985 में, आईएमए, देहरादून से मैंने डोगरा रेजीमेंट की 7वीं बटालियन में कमीशन प्राप्त किया। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान विविधतापूर्ण और समृद्ध अनुभव के साथ, विशेषकर अपने देश के पूर्वी और उत्तरी क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की लड़ाइयों और भूक्षेत्रों में सेवा की वह श्रीलंका में भारतीय शांति रक्षक बल का एक हिस्सा रहे तथा कांगो में संयुक्त राष्ट्र मिशन में भी शामिल रहे।

उन्होंने उरी सेक्टर में मैंने 7 डोगरा की कमान सम्हाली और प्रसिद्ध अमन सेतु पुल को खोलने में विशेष योगदान दिया, जिससे होकर श्रीनगर को मुज़फ्फराबाद (पाक अधिकृत कश्मीर) से जोड़ने वाली ऐतिहासिक बस सेवा 7 अप्रैल 2005 को आरंभ हुई। मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) गुलाब सिंह रावत की हिल मेल के संपादक वाई एस बिष्ट के साथ साथ हुई बातचीत के प्रमुख अंश:-

1. आप अपने बारे में बताइये, आप किस गांव में पैदा हुए आपकी पढ़ाई लिखाई कहां हुई ?

मेरा जन्म उत्तराखंड के दूरस्थ क्षेत्र, रथ के गांव चान्गिन (तिरपालीसैण) में हुआ और इस क्षेत्र के लोग राठी कहलाते हैं। मेरे पिता ने 1950 में गांव छोड़ दिया, जिसका मूल कारण यह था कि वे सेना में भर्ती नहीं होना चाहते थे। मेरे दादा चाहते थे कि ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते मेरे पिता सेना में जाएं। 1950 में वे जालंधर चले आए और अपने एक परिचित के घर रहे और उन्होंने वहां काम करना शुरू कर दिया। साथ ही उन्होंने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी, क्योंकि गांव में उन्होंने 10वीं ही पास की थी।

मेरा जन्म 1963 में हुआ और उसी साल उन्होंने लुधियाना में अपना स्कूल खोल लिया और वे एक शिक्षाविद बन गए। 5 वर्ष की आयु में मैं अपने पिता के पास आ गया, लेकिन मेरी मां अभी भी गावं में ही थी। वित्तीय दिक्कतों के कारण, वे उन्हें अपने पास नहीं बुला सकते थे और वे अपने संस्थान, राष्ट्रीय बाल विद्या मंदिर को अपना सब कुछ समर्पित करना चाहते थे। मैंने अपनी स्कूली शिक्षा लुधियाना में आरंभ की और तीन साल बाद, मेरी बहनों के साथ मेरी मां भी लुधियाना आ गईं।

मेरे पिता आरएसएस गतिविधियों और सामाजिक क्रियाकलापों में सक्रिय रूप से शामिल थे; स्कूल के बाद, वे मुझे साइकिल से एक शिक्षक के पास छोड़ जाते थे और फिर वे लोगों की और अपने संस्थान की समस्याओं के समाधान के लिए लुधियाना में घूमते रहते थे तथा रात में वापसी पर वे मुझे उन शिक्षक के घर से ले लेते थे तथा फिर हम साथ में रात का खाना खाते थे।

मेरे पिता बड़े सख्त, अपने वचन के पक्के थे। उनके सामने कोई बोल नहीं सकता था। वे बड़े ही परिश्रमी, निष्कपट और समर्पित व्यक्ति थे। वे बच्चों को अपनी साइकिल पर स्कूल लाते थे, क्योंकि अभी यह शुरूआत थी और वे सबसे अलग भी थे; बाद में यह स्कूल सीनियर सैकेंडरी हो गया।

उन्होंने अपने संस्थान को सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए हर संभव प्रयास किए और परमात्मा की कृपा से वे अपने इस प्रयास में सफल भी हुए और इसके बाद, उन्होंने उत्तराखंड के कई व्यक्तियों को शिक्षा के क्षेत्र में आने के लिए प्रोत्साहित किया और आप आज देखेंगे कि लुधियाना में अधिकतर स्कूल उत्तराखंड के लोगों द्वारा चलाए जा रहे हैं।

मैंने कठिनतम समय भी देखा है, जब मैं और मेरे पिता साथ-साथ रहते थे; वे मेरी देख-भाल करते, मेरे खाने-पीने और मेरे कपड़ों का ध्यान रखते और साथ ही अपने सामाजिक जीवन के साथ-साथ अपने कारोबार को भी सम्हालते थे। वे ऐसा कैसे कर पाते थे, मैं तो सोच भी नहीं सकता – यह तो मेरे लिए असंभव ही था। उन पर मुझे गर्व होता है और मैं बड़ा सौभाग्यशाली था कि मुझे ऐसे माता-पिता मिले।

2. आपके परिवार में कौन कौन लोग हैं और आपके परिवार ने पहाड़ों में किस प्रकार का संर्घष देखा ?

हम दो भाई और तीन बहनें हैं। मैं बुवाखाल (पौड़ी के निकट) से अपने गांव तक पैदल जाता था, जिसमे मुझे करीब तीन दिन लग जाते थे, लेकिन मैंने कभी भी अपने पिता से नहीं कहा कि मैं गांव नहीं जाऊंगा। हर वर्ष, गर्मियों की छुट्टियों में, वे मुझे गांव ले जाते थे और हम वहां 30 से 45 दिनों तक रहते थे।

बाद में, अपने मां, भाई और बहनों सहित मेरा पूरा परिवार गांव जाता था, जहां न तो बिजली थी, न ही सड़क और न ही कोई बाज़ार, बस हम और हमारा परिवार होता था। पानी का निकटतम स्रोत एक किलोमीटर दूर था। मेरे गांव से निकटतम दुकानें करीब 7 से 10 मिलोमीटर दूर थीं। आज भी, हम अपनी संस्कृति, विरासत को बनाए रखे हुए हैं, और अपने गांव जाते हैं। मेरे परिवार में पत्नी अनुपमा रावत और पुत्र अंकित तथा पुत्री गरिमा है।

3. आप अपने कैरियर में कैसे कैसे आगे बढ़े ?

सेना में शामिल होना मेरा सपना था। 12वीं के बाद, मैं एनडीए की योग्यता सूची में नहीं आ सका, इसलिए मैंने सोचा कि शायद मेरे लिए कुछ और होगा, मैं बहुत निराश था। ग्रेजुएशन के बाद, मैंने केवल एक बार एनडीए के लिए प्रयास किया था, इसलिए मैंने सोचा कि एक बाद सीडीएस के लिए प्रयास करूं, लेकिन उन्हीं दिनों एमबीबीएस के लिए मेरी कोशिशें चल रही थीं, क्योंकि 12वीं के बाद में उसे कर नहीं पाया था।

मैं सीडीएस, एसएसबी में सफल हो गया और सेना में जाने का मेरा रास्ता साफ हो गया, लेकिन मेरे माता-पिता खुश नहीं थे, लेकिन बाद में मेरे पिता ने मुझसे कहाः जो तुम्हें अच्छा लगे, करो, चुनना तुम्हें ही है। तब उन्होंने मुझे बताया कि यदि मेरे दादा जीवित होते, तो वे मुझे भारतीय सेना में जाते देख कर, दुनिया में सबसे खुश व्यक्ति होते। क्योंकि मेरे पिता बिल्कुल भी नहीं चाहते थे कि मैं सेना में शामिल हो जाऊं और इससे बचने के लिए वे बिना किसी को बताए घर छोड़कर चले गए। इस तरह वे जालंधर पहुंच गए और बाद में लुधियाना।

मेरे पिता कठिनाइयां झेलते रहे, ताकि हम सभी को और परिवार को अच्छे से अच्छा प्रदान कर सकें। वे एक सहृदय, दूसरों का खयाल रखने वाले तथा धुन के पक्के व्यक्ति थे। वे उत्तराखंडियों में बहुत ही लोकप्रिय थे और गढ़वाल के अपने लोगों के लिए या किसी अन्य मुद्दे पर सदैव ही अतिरिक्त प्रयास करने को तत्पर रहते थे, क्यों गढ़वाल के हमारे इलाके मंे कुछ भी नहीं था।

मेरे परिवार का कोई भी व्यक्ति सेना में नहीं है, लेकिन इस महान भारतीय सेना का हिस्सा होने पर मैं, अपने आप को बहुत भाग्यशाली समझता हूं और यह वास्तव में मेरा एक सपना था, जो पूरा हुआ था। जब मैंने प्रवेश लिया, तब ट्रेनिंग के बारे में और किस प्रकार के माहौल से गुजरना होगा, इस बारे में मैं बिल्कुल ही अनजान था। बहुत सारी रगड़पट्टी से भरे बड़े ही स्मरणीय दिन थे वे।

डेढ़ साल के प्रशिक्षण के बाद, भारतीय सेना की एक सर्वश्रेष्ठ रेजीमेंट, डोगरा रेजीमेंट की 7वीं बटालियन में कमीशन किया गया। जब मुझसे शाखा (आर्म्स) के बारे में पूछा गया, तब मैंने अपने पिता से बात की; तब उन्होंने मुझे खुशी-खुशी कहा कि जो कुछ भी मिले उससे खुश रहना, लेकिन तुम्हारे चाचा ने, जो वायुसेना में हैं, मुझे बताया था कि आराम के लिहाज से सेनाएं सबसे अच्छी हैं।

मैंने अपने पिता से कहा, यदि मुझे सेना में रहना है, तो मैं केवल लड़ाकू सेनाओं में जाऊंगा। इसके साथ ही सेना में मेरी पारी आरंभ हो गई। यह बड़ी ही शानदार यात्रा रही है। मैं राष्ट्रीय बाल विद्या मंदिर, लुधियाना का छात्र रहा हूं। सभी खेल-कूदों में उत्कृष्ट खिलाड़ी रहा। पढ़ाई के अलावा दूसरी गतिविधियों, नाटकों और वाद-विवादों आदि में हिस्सा लेता रहा।

जून 1985 में, आईएमए, देहरादून से मैंने डोगरा रेजीमेंट की सातवीं बटालियन में कमीशन प्राप्त किया। सैंतीस वर्षों के विविधतापूर्ण और समृद्ध अनुभव के साथ, मैंने विशेषकर अपने देश के पूर्वी और उत्तरी क्षेत्र में विभिन्न्ा प्रकार की लड़ाइयों और भूक्षेत्रों में सेवा की है और मैं, श्रीलंका में भारतीय शांति रक्षक बल का एक हिस्सा रहा तथा कांगो में संयुक्त राष्ट्र मिशन में भी शामिल रहा।

उरी सेक्टर में, मैंने 7 डोगरा की कमान सम्हाली और प्रसिद्ध अमन सेतु पुल को खोलने में मेरा विशेष योगदान रहा, जिससे होकर श्रीनगर को मुज़फ्फराबाद (पाक अधिकृत कश्मीर) से जोड़ने वाली ऐतिहासिक बस सेवा का 7 अप्रैल 2005 को आरंभ हुई। एक ब्रिगेड कमांडर के रूप में, मैंने प्रसिद्ध और ऐतिहासिक पीर पंजाल ब्रिगेड की कमान सम्हाली। महू के इन्फैंटरी स्कूल में इंस्ट्रक्टर रहा और कमान तथा सेना मुख्यालय स्तर पर कई महत्वपूर्ण और संवेदनशील पदों पर रहा।

कांगो में संयुक्त राष्ट्र शांति रक्षक मिशन में मिलटरी आब्ज़र्वर रहा तथा श्रीलंका में भारतीय शांति रक्षक दल का भी हिस्सा रहा। प्रतिष्ठित डिफेंस सर्विसिज़ स्टाफ कालेज, वेलिंगटन का ग्रेजुएट होने के साथ-साथ मैंने सिंकदराबाद के रक्षा प्रबंधन कालेज से उच्च रक्षा प्रबंधन कोर्स किया।

डैगर डिविज़न की कमान सम्हालने के दौरान वीरता तथा विशिष्ट सेवा के लिए सम्मानित किया गया, 161 इन्फैंटरी ब्रिगेड (आपरेशन रक्षक) की कमान के दौरान युद्ध सेवा पदक, 7 डोगरा (आपरेशन रक्षक) में सेवा के दौरान सेना पदक, थलसेनाध्यक्ष प्रशस्ति पत्र और जनरल आफीसर कमांडिंग इन चीफ प्रशस्ति पत्र (दो बार) प्राप्त हुए। जम्मू कश्मीर के बारामूला में अपने कार्यकाल के दौरान मैंने ऑपरेशन सदभावना के तहत यहां के बच्चों के कल्याण के लिए बहुत काम किये।

एफटीआईआई पुणे के सहयोग से यहां के बच्चों को सिनेमा के बारे में जानकारी दी गई और इस काम को करने के लिए एफटीआईआई के डॉरेक्टर भूपेंद्र कैंथोला का बहुत सहयोग मिला। उन्होंने अपनी टीम को यहां भेजकर बच्चों के लिए बहुत काम करवाया। जिससे कि यहां के बच्चों में जो आतंक का डर था उसको दूर करने में काफी मदद मिली। एक साल के लिए आईएमए के डिप्टी कमांडैंट के रूप में एक संक्षिप्त कार्यकाल रहा। अंत में, 31 अगस्त 2021 में सेना मुख्यालय के आईएचक्यू से एडीजी टीए के रूप में सेवानिवृत्त हुआ।

4. आपको क्या करना पसंद है?

उत्तराखंड के गांवों में रहने वाले नौजवानों की सशस्त्र सेनाओं और सेंट्रल आर्मड पुलिस फोर्सेस (सीएपीएफ) के लिए तैयारी करने में मदद करना। अपने भविष्य के नौजवानों को जहां भी और जो भी व्यवसाय अपनाने में अपना श्रेष्ठतम योगदान करने के लिए प्रतिबद्ध बनाने और उन्हें प्रेरित करने के उद्देश्य से उनके साथ समय गुजारना।

उत्तराखंड के गांवों के लोगों से जुड़े रहना और उनके कौशल को संवारने और उन्हें स्वतंत्र बनाने के लिए हर संभव सहायता प्रदान करना और आत्मनिर्भर भारत तथा स्किल इंडिया का हिस्सा बनना। खिलाड़ी होने के नाते, मुझे हर तरह के खेल खेलना पसंद है और अपने नौजवानों के साथ कोई भी खेल खेलने और उन्हें भविष्य के लिए तैयार करने में मुझे बड़ा आनंद आता है।

5. आप सेवानिवृत हो गये हैं आप अब अपने राज्य को क्या लौटाना चाहते हैं ?

मेरा बचपन पंजाब में गुजरा, मैंने वहीं से अपनी शिक्षा दीक्षा की है। अब मैं पंजाब से उत्तराखंड चला आया हूं और मैंने चरणबद्ध रूप से निम्नलिखित कार्य करने के लिए भविष्य के परिप्रेक्ष्य में उत्तराखंड के गांवों का दौरा करना शुरू कर दिया है।

  • शराब और नशीले पदार्थों पर नियंत्रण,
  • गांवों में रहने वाले लोगों के मैदानी इलाकों में पलायन को रोकने के लिए लोगों को प्रशिक्षण देना और स्व-रोजगार के लिए तैयार करना,
  • अपनी पुरानी विरासत पर जोर देना और राज्य सरकारों तथा विभिन्न एनजीओ की मदद से कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना,
  • गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्रों के अंदरूनी भागों में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बुनियादी सुविधाओं को उन्नत बनाने के लिए लोगों को सरकारी और स्थानीय संसाधनों के उपयोग के लिए प्रोत्साहित करना,
  • लोगों को उनकी जड़ों से जोड़ना, जिसके लिए गांवों में वापस पलायन के लिए कार्यक्रमों और उत्सवों का आयोजन करना।
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  • सुबेदार हरी सिंह पिमोली सेवानिवृत्त
    September 21, 2022, 9:33 pm

    आपके बिचारों से मैं सहमत हूं।

    गढ़वाल कुमाऊं में पलायन कैसे रुकेगा अभी तक

    किसी भी गृहस्थ आश्रम में रहने वाले लोगों द्वारा कोई

    जमीन से जुड़े हुए ठोस कार्रवाई करके कामों की गुणवत्ता नहीं हुई है।

    केवल अपने स्वार्थ अपने नाम को बढ़ावा देना लोकप्रिय बनने वाले भ्रष्टाचार वाले खोखले सुझाव रहे हैं।

    गरीबी रेखा में अथक परिश्रम प्रयास करने वाले परिवारों को अभी तक 1 मीटर कपड़ा खरीदने के लिए 10 बार सोचना पड़ता है।

    और उत्तराखंड के नेता अधिकारी कर्मचारी इतने भ्रष्ट हैं कि 10 10 20 20 हजार के होल्डिंग लगाकर अपने फोटो को सवारते है।

    दूरदराज के परिवारों को पूछो कि जो जमीन से जुड़े हुए हैं उन्हें कितना परिश्रम करके रोजी रोटी मिलती है।

    और थोड़ा बहुत जो पैसा बचाया रहता है एलोपैथिक का महंगा इलाज स्कूल की फीस में चले जाता है।

    और सरकारी यात्री गाड़ियां तो समय से नहीं चलती नाही दूरदराज के इलाकों में जाती है इसलिए प्राइवेट सेक्टर के गाड़ी वाले इन लोगों से हजारों रुपया आने जाने का लेते हैं।

    कुल मिलाकर शासन और प्रशासन गरीबों की तरफ अनदेखी करके उनके नाम से विकास में खर्च किए धन को अपने परिवार और अपने जेब खर्चे के लिए मे
    तब्दील कर देते हैं ।

    REPLY

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