उत्तराखंड में भू-कानून की मांग काफी समय से हो रही है। इस समय यह मुद्दा सुर्खियों में है और सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग टॉपिक है। ऐसे में इस ज्वलंत मुद्दे पर बात करने के लिए हिल-मेल और ओहो रेडियो ने उन विशेषज्ञों को आमंत्रित किया, जिन्हें इस मुद्दे की पृष्ठभूमि, महत्व और जरूरत के हर पहलू की जानकारी है। इस कार्यक्रम में पर्यावरणविद् और मैती आंदोलन के प्रणेता पद्मश्री कल्याण सिंह रावत, हमारा उत्तरजन मंच के अध्यक्ष रणबीर सिंह चौधरी, गरीब क्रांति अभियान के संयोजक कपिल डोभाल और वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत जुड़े। हिल-मेल से अर्जुन रावत और ओहो रेडियो से आरजे काव्य भू-कानून के तमाम पहलुओं पर बात की।
उत्तराखंड जैसे छोटे और पहाड़ी राज्य के गांवों में रोजगार के कम होते अवसरों और पलायन के बाद लगातार बाहरी लोगों का आगमन चरम पर है, जिसके कारण यहां बड़ी संख्या में जमीनें खरीदी और बेची जा रही हैं। फिलहाल उत्तराखंड में कोई भी सख्त भू-कानून लागू नहीं है। इसका सीधा मतलब यह है कि यहां आकर कोई भी, कितनी भी जमीन अपने नाम से खरीद सकता है। पहाड़ी राज्यों में सस्ते दामों पर जमीन खरीदकर उसे बाहरी लोग अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर भू-कानून की मांग कर रहे लोगों का आरोप है कि उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में बाहरी हस्तक्षेप से यहां की संस्कृति को बड़ा खतरा है।
चर्चा में सबसे पहले इस मुद्दे की पृष्ठिभूमि समझाते हुए वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत ने कहा कि भू-कानून शासक इसलिए बनाते थे, जिससे लगान मिल जाए। 1901 का रेवेन्यू एक्ट है, 1939 टेनेंसी एक्ट, जमींदारी एबॉलिशन लैंड रिफॉर्म एक्ट (जेडएलएआर) आया, 1953 में चकबंदी कानून और फिर 1960 में सीलिंग एक्ट आया, ये भी भू-कानून हैं। ऐसे में भू-कानून मांगने वालों का समझना होगा कि ये सब भू-कानून ही हैं। आजादी के आंदोलन में जब यह सोचा गया कि अंग्रेजों के जाने के बाद जमींदार रह जाएंगे और इनकी गुलामी में लोगों को रहना होगा, बंधुआ मजदूरी करनी होगी। 8 अगस्त 1946 में संयुक्त प्रांत में एक प्रस्ताव पास किया गया कि सरकार और काश्तकार में कोई बिचौलिया नहीं रहेगा। हमारे यहां चकराता जैसे इलाकों में तो अब भी बंधुआ मजदूरी की समस्या है।
पहाड़ की परिस्थितियां अलग हैं इसलिए कुमाऊं उत्तराखंड जमींदारी एबॉलिशन लैंड रिफॉर्म एक्ट 1960 में बना और राष्ट्रपति ने मंजूरी दी। यहां सीढ़ीदार खेत होते हैं। उत्तराखंड आंदोलन चला था तो उससे भी पहले से कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक पहाड़ी राज्यों के लिए विशेष दर्जे की मांग हुई थी। हमारा राज्य अलग बना तो एनडी तिवारी पर प्रेशर बनाया गया कि 371 तो मिला नहीं कम से हम हिमाचल प्रदेश का कानून लागू कर दीजिए। हिमाचल के कानून के मुताबिक, जिसके नाम खेती नहीं है, वह जमीन नहीं ले सकता। 2002 में तिवारी ने भी अध्यादेश जारी कर दिया। विरोध हुआ तो एक कमेटी बनी। बाद में इसे हल्का कर दिया गया। जेडएएलआर के 154 में संशोधन कर दिया। आज की तारीख में उसमें काफी सेक्शन जोड़ दिए गए। बाद में ये हुआ कि बाहरी जमीन 500 मीटर से ज्यादा नहीं खरीद सकता और खास बात इसमें यह जोड़ी गई कि यह केवल ग्रामीण क्षेत्र में लागू होगा।
देहरादून में आपको जमीन के लिए कितना पापड़ बेलना पड़ता है लेकिन पहाड़ों में आप एक हफ्ते में किसी की जमीन खरीद सकते हैं। भूकानून के पीछे अंग्रेजों के समय जमींदारों से बचने की भावना थी, आज देखिए गैरसैंण में जमीन खरीदने वालों में होड़ लग गई है।
- जय सिंह रावत
जय सिंह ने कहा कि आपने देखा होगा 2 साल पहले कई नगर पालिकाओं का विस्तार किया गया। उस विस्तार के चक्कर में चाल देखिएगा, जितना नगरपालिका का विस्तार होगा वह एक्ट लागू नहीं होगा। वहां की जमीनें भी अलटी-पलटी कर दी जाएंगी। उनके बाद खंडूरी सीएम बने, उन्होंने कहा कि 500 वर्ग मीटर तो ज्यादा है, और उन्होंने 250 वर्ग मीटर कर डाला। उसके आधार पर उन्होंने चुनाव भी लड़ा।
2012 में सरकार बदली, तो गैरसैंण में चर्चा चली कि यहां की जमीनों की खरीद-फरोख्त बंद कर दो। 2017 में सरकार बदली, तो जुलाई में गैरसैंण वाला बैन समाप्त कर दिया गया। उस समय सवा लाख करोड़ का निवेश आया तो कानून में संशोधन कर दिया गया। पहाड़ों में नाली से मापन होता है उस हिसाब से समझिए कि सब सीमाएं खत्म कर दी। धारा 143 में बदलाव कर दिया गया कि एक हफ्ते के भीतर कलेक्टर को लैंड यूज चेंज करना होगा। देहरादून में आपको जमीन के लिए कितना पापड़ बेलना पड़ता है लेकिन पहाड़ों में आप एक हफ्ते में किसी की जमीन खरीद सकते हैं। भू-कानून के पीछे अंग्रेजों के समय जमींदारों से बचने की भावना थी, आज देखिए गैरसैंण में जमीन खरीदने वालों में होड़ लग गई है।
कल्याण सिंह रावत ने कहा कि यह एक बड़ा गंभीर मुद्दा है, जब राज्य 2000 में बना था, तभी हमें इस पर काम करना चाहिए था। आज पहाड़ के लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या है कि खेती ही नहीं रह गई और इसीलिए पलायन हो रहा। 1960 के बाद भूमि प्रबंधन आज तक नहीं हुआ। कई पीढ़ियां आईं और आज हमारे पास दो खेत भी नहीं है। एक खेत पूरब में है तो दूसरी दो किमी दूर पश्चिम में है। ऐसे में कोई कैसे अपनी आजीविका कमाने के लिए काम करे। अगर कुछ उगता है तो बंदर और सुअर बर्बाद कर देते हैं। ऐसे में पहाड़ के लोग मनरेगा से जुड़े और बाद में पलायन कर गए। पहले खेती पर फोकस होता था लेकिन ये हाल देख अब मां-बाप सोचते हैं कि हम अपने बच्चों को पढ़ाएं और नौकरी के लायक बनाएं।
उत्तराखंड के घर-घर से आज के समय में जवान बॉर्डर पर तैनात है और एक-एक इंच जमीन की रक्षा कर रहा है लेकिन गांवों में उसके पास जमीन ही नहीं बची है। गौचर और पिथौरागढ़ जैसी जगहों की अच्छी जमीनें हमारे हाथ से निकल गई हैं।
- कल्याण सिंह रावत
आज की स्थिति में हमारे पास कानून के नाम पर कुछ नहीं है। कोई भी कहीं भी जमीन ले सकता है। इंडस्ट्री के नाम पर सब किया गया पर हासिल कुछ नहीं है। आज हमारे गांव में अगर लोग बागान लगाना भी चाहें तो पानी की कमी है। जंगली जानवर और फिर गांव के आसपास विदेशी घासें फैल गई हैं। अब फ्री देने का लॉलीपॉप दिया जा रहा है। बिजली राशन फ्री मिलने से काम नहीं चलने वाला, लोगों को अपना स्थायित्व बनाना है। उत्तराखंड के घर-घर से आज के समय जवान बॉर्डर पर तैनात है और एक-एक इंच जमीन की रक्षा कर रहा है लेकिन गांवों में उसके पास जमीन ही नहीं बची है। कल्याण सिंह ने कहा कि गौचर और पिथौरागढ़ जैसी जगहों की अच्छी जमीनें हमारे हाथ से निकल गई हैं।
महज मिट्टी का टीला नहीं जमीन, सारी लड़ाई इसी के लिए
जय सिंह कहते हैं कि जमीन का मतलब मिट्टी का टीला नहीं होता है, जमीन आधार होता है। जीवन जीने का आधार है जमीन, मिट्टी खोदोगे तो भी जमीन मिलेगी। दुर्योधन ने क्या कहा था कि सुई की नोक के बराबर जमीन नहीं दूंगा, तो महाभारत हुआ। भारत-पाकिस्तान या चीन के साथ क्यों विवाद है. जमीन के लिए। जमीन नहीं है तो कुछ भी नहीं है। भूमि कानून ऐसा चाहिए, जो धरातल पर उतरे।
रणबीर सिंह चौधरी ने कहा कि वह 60 के दशक में देहरादून आए। वैसे वह मूल रूप से रुद्रप्रयाग से ताल्लुक रखते हैं। वह अपनी भूमि छोड़कर आए हैं। वह आज भी बंजर पड़ी हुई है। इसके पीछे सरकारों की उदासीनता जिम्मेदार है। वहां लोगों ने बंदरों और सुअरों के लिए अपील की कि उसकी रोकथाम के लिए उपाय करो, लेकिन कुछ नहीं हुआ। हिमाचल प्रदेश में कानून ऐसा है कि नगर निगम क्षेत्र में परमिशन लेकर 500 मीटर जमीन घर बनाने और 250 मीटर जमीन व्यवसाय के लिए मिल सकती है पर कृषि वाले इलाके में आपको परमिशन है ही नहीं। साथ ही शहरी इलाके में जो जमीन आपने खरीदी है, उसे आप फिर बेच नहीं सकते। अगर आपने बेचने की कोशिश की तो जमीन का अधिकार पुराने मालिक के पास चला जाएगा। अब नैनीताल हो या देहरादून, जितने भी मॉल बने हैं शायद ही किसी पहाड़ी की हो, सब पर भू माफियाओं का कब्जा है।
ऐसी सैकड़ों बीघा जमीन है, जिसे ट्रस्ट बनाकर संस्थान के नाम पर खरीदा गया लेकिन लैंड यूज का सरकार को रेवेन्यू भी नहीं मिला, कोई मॉनिटरिंग नहीं हुई। व्यवस्था देखिये कि दोबारा परमिशन लेकर उसे बेच भी दिया गया। आज तक इस पर एक्शन नहीं हुआ।
- रणबीर सिंह चौधरी
उस समय सरकार ने क्या कहा कि अगर कोई जमीन लेगा तो उससे रेवेन्यू तो मिलेगा ही प्रदेश का विकास होगा। कहीं कॉलेज खुलेंगे, अस्पताल खुलेंगे, कृषि केंद्र खुलेंगे। तब सरकार ने कहा कि ट्रस्ट बनाकर जमीन खरीद सकते हैं। और हुआ क्या कि कृषि भूमि किसी ने कॉलेज, अस्पताल के नाम पर ली लेकिन उसकी निगरानी नहीं हुई। उन्होंने अंडरटेकिंग दी थी कि हम तीन से पांच साल में काम पूरा करेंगे और रोजगार देना शुरू कर देंगे। सरकारों की भावना तो अच्छी थी कि रोजगार मिलेगा। बाद में सरकार बदली तो 500 मीटर को 250 मीटर किया गया। मैं ऐसी सैकड़ों बीघे जमीनें जानता हूं जिसे ट्रस्ट बनाकर संस्थान के नाम पर खरीदा गया लेकिन लैंड यूज का सरकार को रेवेन्यू भी नहीं मिला पर कोई मॉनिटरिंग नहीं हुई। व्यवस्था कितनी लचर है कि दोबारा परमिशन लेकर उसे बेच भी दिया गया। आज तक एक भी भूमि का टुकड़ा इस तरह बेचे जाने पर एक्शन नहीं हुआ।
आज गांवों में जमीनें बंजर दिखाई देती हैं और अगर कोई पहाड़ का व्यक्ति जमीन नहीं बेचना चाहता तो क्या उसे मजबूर किया जा सकता है। इस सवाल पर कल्याण सिंह ने कहा कि आज हमारे गांव में अधिकांश लोग जो पलायन कर चुके हैं। वे शहरी हो चुके हैं पर जमीनें गांव में खाली पड़ी है। वे न खुद कुछ करना चाहते हैं और न गांववालों को दे रहे हैं। ऐसे में पास के जंगल से चीड़ के बीज आकर उगने लगे। चीड़ के जंगल खड़े हो जाएंगे तो अपने आप जमीन वन विभाग की हो जाएगी। ऐसे में वह जमीन वन विभाग के पास चली गई।
22 प्रतिशत क्षेत्र प्रदेश का नेशनल पार्क और सैंक्चुरी में चला गया है। पहाड़ में से अच्छी जमीन बची नहीं है। वे सब हवाई अड्डे और बिल्डिंग बनाने में खत्म हो गए। कुछ लोग बिना गांव आए ही जमीन किसी को बेच दी। इस प्रकार से गांवों में बाहर के लोगों का हस्तक्षेप शुरू हो गया है। हमारी बोली, भाषा, संस्कृति हमारी जमीन से जुड़ा है लेकिन इस तरह जमीनें जाने से सब प्रभावित हो रहा है।
1980 में वन प्रबंधन कानून आया था, कई पाबंदियां लगी थीं कि 2000 मीटर के सारे जंगलों में बैन लगा था कि आप कोई व्यावसायिक कटान नहीं कर सकते। हमने उसका पूरी तरह पालन किया। जंगलों के जल स्रोत ही हमारे लिए पानी के आधार हैं। जंगल से निकलने वाली छोटी-छोटी नदियां ही गंगा और यमुना को आकार देती हैं। अगर ये नदियां न निकलें तो बड़ी नदियां बड़ी नहीं हो पाएंगी। प्रतिबंधों के चलते चीड़ पूरे उत्तराखंड में बेतहाशा बढ़ा है। हमने सरकार से भी सवाल किया, हम विरोध नहीं कर रहे पर चीड़ खतरनाक हो गया। इसे अंग्रेज लाए थे उन्होंने कुमाऊं और गढ़वाल में खूब बीज बोए और बड़े जंगल खड़े किए। उन्होंने खूब पैसा कमाया। चीड़ के बीज हवा में उड़कर दूर तक जा सकते हैं। ऐसे में हुआ क्या कि जहां भी जमीनें थीं, चीड़ के पेड़ खड़े हो गए।
चीड़ के कारण ही आग लग रही है। आज बांज के जंगलों में चीड़ का साम्राज्य स्थापित हो गया है। जहां आग नहीं लगती थी कभी, वहां भी लगने लगी है। जंगली जानवरों की जान खतरे में है। हम न तो जमीन संभाल पा रहे न जंगल। मेरा तो यह कहना है कि चीड़ के जंगलों का हम वैज्ञानिक प्रबंधन क्यों नहीं करते। इस पर ध्यान देना चाहिए। चीड़ की लकड़ी के मकान बनेंगे तो पर्यटन को फायदा होगा, रोजगार बढ़ेगा। सबसे बड़ी बात कि कृषि को रोजगारपरक बनाया जाए। हम हिमाचल की बात करते हैं कि वहां बढ़िया है, उन्होंने एक इंच जमीन किसी बाहरी को नहीं दी। दशकों नौकरी करने के बाद ही कोई जमीन ले सकता है। वहां बगीचे तैयार हो गए। हमारे गांवों में जो बगीचे थे वो भी उजड़ चुके हैं।
चकबंदी में क्या अड़चन है, अब तक हम क्यों नहीं कर पाए…
जय सिंह रावत कहते हैं कि 60 के बाद बंदोबस्त नहीं हुआ, इस कारण चकबंदी नहीं हुई। 1950 वाला जब जमींदार लैंड एबॉलिशन रिफॉर्म एक्ट बना तो उसकी वजह से रेवेन्यू एक्ट का चैप्टर 5 से लेकर चैप्टर 8 लोप हो गया और उसी में बंदोबस्ती व्यवस्था थी और वो चली गई। इस वजह से बंदोबस्त नहीं हो पा रहा है। बंदोबस्त का मतलब अपडेट. जब तक रिकॉर्ड नहीं होंगे तब तक आपके पास लैंड का डाटा नहीं मिलेगा। आपको जानकारी ही नहीं है कि किसके पास जमीन है और किसके नाम से नहीं है। 1985 में खटीमा में चकबंदी दफ्तर खुला। वहां जिसके पास जमीन है, उसके नाम नहीं है, क्योंकि वह ट्राइबल लैंड है। जनजातियों की जमीन ट्रांसफर नहीं हो सकती लेकिन किसी जमाने से लोगों ने कब्जा कर रखा है। वहां सोना उगल रहा है। ऐसे में वहां चकबंदी नहीं हो पाई। पहाड़ में कुजा एक्ट है, वहां ज्वाइंट एकाउंट हैं। चाचा-ताऊ सबका एक ही खाता है अभी तक। अल्मोड़ा में एक सज्जन ने बताया कि उनके खाते में 150 लोगों के नाम हैं और अब अपने हिस्से की जमीन पर कर्ज लेना चाहता हूं तो मैं नहीं ले सकता। एक भाई कलकत्ता में तो एक गुजरात में रह रहा है तो मैं किस किससे सिग्नेचर कराकर लाऊं। अब उस जमीन का क्या करेंगे जिसे न हम बेच पाएं। कुजा एक्ट, ज्वाइंट अकाउंट की वजह से दिक्कतें आ रहे हैं इसलिए जरूरी है कि जब तक भूमि उपयोग नीति जब तक नहीं होगी हम भूमि का प्रबंधन नहीं कर सकेंगे। जब तक डेटा नहीं होगा पॉलिसी नहीं बना सकते। सन 60 के बाद कोई डेटा नहीं है। कब्जा किसका है, धरती पर कुछ है, रिकॉर्ड पर कुछ है। जय सिंह रावत ने कहा कि बिजली फ्री देने की बातें होने लगी हैं, उससे पहले उत्तराखंड सरकार को जमीन का काम करना चाहिए।
अगर कब्जा किसी के पास आजादी के समय से ही है, तो भी उसे बेदखल किया जा सकता है। एक घटना का जिक्र करते हुए जब यह चर्चा उठी तो रणबीर सिंह चौधरी ने कहा कि पूरा पहाड़ इस समय बड़े-बड़े धनपतियों के पास गिरवी हो चुका है। ये बात अलग है कि उनका कब्जा 1945 से था, लेकिन एक्ट के तहत एक आदमी के पास लैंड होल्डिंग साढ़े 12 एकड़ से ज्यादा नहीं हो सकती है। लेकिन बड़े कारोबारियों के पास सैकड़ों एकड़ जमीन कैसे है। सरकार ने कानून बनाए हैं, नोटिस पहुंचा तो जमींदारों ने उसे छोटे सेक्शन में बांट दिया। सरकार चाहे तो सब कर सकती है, ऑर्डिनेंस लाकर सब ठीक कर सकती है। ये मामला हाइलाइट नहीं हुआ था, अब सोशल मीडिया पर और वैसे भी जन-जन आवाज उठा रहा है। 2017 में इस पर बैठक करके सीएम को ज्ञापन दिया गया था। 42 विधायकों से मुलाकात कर उन्हें समझाया, सबने कहा कि भूमि कानून लागू करना चाहिए लेकिन करता कोई नहीं है। 1600 एकड़ जमीन बता रहे हैं ऐसे तो सब बिकता जा रहा है। सरकार कानून लाकर ब्रेक लगा सकती है।
आखिर कैसे निकलेगा हल?
1.
अपनी जमीनें किसी भी कीमत पर बाहर वालों को न बेचें गांव के लोग – कल्याण सिंह रावत
हमारे उत्तराखंड में बेनीताल की चर्चा हुई, इतनी खूबसूरत जगह एक आदमी के कब्जे में है तो इससे बड़ा अलग सा लगता है। सवाल उठता है क्यों, पहले वह पूरा इलाका चाय का बागान था। आज चाय का एक पौधा नहीं दिखता। बीच में एक तालाब हुआ करता था, अब वहां बांस की तरह पेड़ भरा पड़ा है। वह जल अभ्यारण्य के तौर पर काम करती है वहां से आसपास के गांवों को पानी मिलता था। लेकिन अब हालात खराब हो गए हैं। उत्तराखंड में भू-कानून कैसे बनना चाहिए, इस पर बात होनी चाहिए। कोई भी सरकार अगर ईमानदारी से काम करती है तो उसे कड़वे घूंट पीने पड़ेंगे। वो हमारे लिए फायदेमंद होगे। इसलिए मैं कहूंगा कि दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए होगा। अब हर शख्स को इस दिशा में सोचना और काम करना चाहिए। बड़ी मुश्किल से चकबंदी कानून बना है, अगर यह अच्छी तरह से प्रदेश में लागू हो जाता है तो हमारे दो खेत भी अगर एक जगह मिल जाएंगे वहां पर मैं अपनी पानी की व्यवस्था कर सकता हूं, सब्जियां उगा सकता है और वह एक रोजगार का जरिया बन सकता है। सब लोग मिलकर अगर प्रबंधन करें और चकबंदी विशेषज्ञ आगे आकर इसमें मदद करें तो स्थितियां बदली जा सकती हैं।
कल्याण सिंह ने कहा कि गांव में जो जमीनें बंजर हो चुकी हैं, उसे पंचायत को दे देनी चाहिए ताकि वे बांटकर बाग-बगीचे उगाएं। उत्तराखंड के लोगों के लिए आने वाले समय में जमीन ही सबसे बड़ी पूंजी होगी। इस समय प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री हैं और खटीमा के रहने वाले हैं। वह जानते हैं कि कैसे जमीनों पर कब्जा हो गया है। अगर सभी मिलकर इस दिशा में सोचें तो हालात बदले जा सकते हैं। ऐसा नियम किया जाए कि पहाड़ के लोग बाहर के लोगों को अपनी जमीन न दें। यह जिम्मेदारी पूरे गांववालों को अपने से निभानी होगी।
उन्होंने कहा कि अब हमें अपनी जमीनों को ऐसे विकास कार्य के लिए नहीं देना है जो हमारे काम ही न आए। अब यह समझ में आ गया है कि पहले पहाड़ से नीचे की ओर पलायन हो रहा था, जल्द ही यह ऊपर से नीचे की ओर होने वाला है। आनेवाले समय में उसके लिए हमें तैयार रहना होगा। भूकानून बहुत जरूरी है। हिमाचल में हालात ऐसे है कि बागानों में फूल लगते हैं तो सब बिक चुके होते हैं। वहां लोग हमसे ज्यादा संपन्न और खुश हैं। वह बड़ा रोजगार है। वे अपने गांव को नहीं छोड़ रहे हैं।
2.
लैंड इनवेंटरी बने, भूमि बंदोबस्त के लिए कानून में संशोधन समय की मांग – जय सिंह रावत
हमारी जमीनों का अधिग्रहण करने का अधिकार राष्ट्रपति के जरिए सरकार के पास है। 100 साल पहले फॉरेस्ट सेटलमेंट हुआ। वन की सीमाएं बना दी गई थी, गांवों को घेर दी जाती थी। उसके बाद ही प्राइवेट जमीन होती थी। पहाड़ के ढालनुमा खेत काफी सीधे हैं। 1हजार साल के बाद टॉप सॉइल एक इंच बनती है। हमारे पहाड़ में जब बनती है और हर साल खेत जोतते हैं तो वह बह जाती है। धीरे-धीरे जमीनें बंजर होती चली गईं। उत्तराखंड से ही अनाज हरित प्रदेश के इलाकों में जाता था। छोटे-छोटे बंटवारे के कारण मुश्किलें बढ़ती गई।
दोबारा सेटलमेंट होना चाहिए अच्छी जमीनें गांववालों को दे दो और 400-500 गांव जो खराब हो रहे हैं, जमीनें डीग्रेड हो रही है उसे फॉरेस्ट को दे दो। पलायन आयोग तो सरकार ने बनाया पर बेहतर होता आप जमीनों का भी डाटा तैयार करते। किस गांव में कितनी जमीन आबाद है। लैंड की इनवेंटरी बननी चाहिए। भूमि बंदोबस्त के लिए कानून में संशोधन समय की मांग है।
3.
लैंड सीलिंग एक्ट से एक सीमा से ज्यादा जमीन की जा सकती है सील – रणबीर सिंह चौधरी
समस्या यह है कि सरकार और प्रशासन के पास डेटा नहीं है। लैंड सीलिंग एक्ट से हम ज्यादा जमीन वाले की भूमि सील कर सकते हैं। बेनीताल के केस में ही देखिए, 1945 से लैंड होल्ड एक आदमी कैसे कर रहा है। मौजूदा कानून में संशोधन होना जरूरी है और हम डिमांड कर रहे हैं कि यह हिमाचल के पैटर्न पर हो। वहां अगर कोई बाहरी जमीनों पर काम शुरू करता है तो वहां सब ज्वाइंट वेंचर में होता है। वहां लोगों को रोजगार मिलता है। वहां फल के बागान हैं उद्योग धंधे हैं। यहां औली में लगाइए, आपके पास पैसा है, हमारे पास जमीन है। शेयर बांट लेंगे। हिमाचल प्रदेश में बड़े-बड़े लोगों को सुदूर इलाके में जमीन दे देते हैं, उससे वहां विकास होता है। ऐसे में वहां से पलायन नहीं होता है। वहां लोग वापस लौटते हैं, हमें भी इस दिशा में अब सोचना होगा।
2 comments
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Shyam Sunder
July 21, 2021, 6:01 pmभू कानून जरूरी है, नही तो हमारी आनेवाली पीढ़ी उसका प्रतिकूल फल भुगतेगी।
REPLYRaju
July 21, 2021, 10:10 pmBhu kanun bahut jaruri hai apni uttarakhand ki dharohar ko bachane k liye.
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