केदारनाथ क्षेत्र की विशिष्ट भौगोलिक और भूगर्भीय स्थिति ऐसी है कि वहां भूस्खलन, भूकम्प और बादल फटने जैसी प्राकृतिक घटनाओं के साथ चलने की कला सीखनी ही होगी। अगर हमने प्रकृति के प्रतिकूल जिद नहीं छोड़ी तो भगवान केदारनाथ के कोप का बार-बार भाजना बनना ही होगा।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
इसरो ने 2023 में देश के भूस्खलन संवेदनशील 147 जिलों का जोखिम मानचित्र तैयार किया था। इसमें सबसे ऊपर रुद्रप्रयाग जिले को रखा था, जहां 31 जुलाई को आई आपदा के कारण इन दिनों हजारों तीर्थयात्रियों की जानें संकट में फंसी रही। दूसरे नम्बर पर उत्तराखंड का ही टिहरी जिला अत्यंत जोखिम की श्रेणी में रखा गया था। वहां भी गत 26 एवं 27 जुलाई की रात को भूस्खलन से तिनगढ़ गांव तबाह हो गया। इसरो के जोखिम मानचित्र पर पश्चिमी घाट पर्वत श्रेणी से लगे केरल के वायनाड सहित सारे 14 जिले शामिल किये गये थे। वर्ष 2013 की आपदा के बाद, शासन स्तर पर केदारनाथ में डॉप्लर रडार लगाने की बात कही गई थी, जिससे मौसम का सटीक पूर्वानुमान मिल सके और इस तरह की मुश्किलों से निपटने के लिए पहले से इंतजाम किए जा सकें। लेकिन एक दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी केदारनाथ क्षेत्र में अर्ली वार्निंग सिस्टम स्थापित नहीं हो सका।
विशेषज्ञों का कहना है कि केदारनाथ में डॉप्लर रडार स्थापित होता तो बीते 31 जुलाई को पैदल मार्ग पर बादल फटने के बाद उपजे हालात से निपटने के लिए शासन, प्रशासन को इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग, तथा विश्वविद्यालय के भूवैज्ञानिकों ने केदार घाटी, जो कि सबसे संवेदनशील मुख्य केन्द्रीय भ्रंश (एमसीटी) के दायरे में आती है, तथा केदारनाथ धाम, जो स्वयं एक मलबे पर स्थित है, वहां भारी निर्माण की सख्त मनाही कर रखी है। वहां फिर भी सौंदर्यीकरण और सुरक्षा के नाम पर बहुत भारी निर्माण कर दिया गया। यही नहीं, सन् 2013 में चौराबाड़ी ग्लेशियर पर बादल फटने और ग्लेशियर झील के टूटने के कारणों की अनदेखी की गयी।
दरअसल, योजनाकार ही नहीं बल्कि आपदा प्रबंधक भी जलतंत्र की अनदेखी करने की भूल कर रहे हैं। हिमालय पर ऊपर चढ़ते समय बादल स्थाई हिमाच्छादित क्षेत्र में बारिश की जगह बर्फ बरसाते हैं। लेकिन 2013 में ऐसा नहीं हुआ जो कि जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट संकेत था। केदार घाटी बहुत तंग है और उसके अंत में 3,583 मीटर ऊंचा केदार पर्वत या केदार डोम है। जिसे अलकनन्दा घाटी की ओर से चले बादल पार नहीं कर पाते हैं, इसलिए वहीं बरस जाते हैं। तंग घाटी होने के कारण बादलों का वेग अधिक होता है जिससे पहाड़ से टकराकर बादल फटने जैसी स्थितियां पैदा हो जाती हैं। इसीलिये इस घाटी में निरन्तर बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं होती रहती हैं।
एक स्वैच्छिक संगठन की याचिका पर सुप्रीमकोर्ट ने 2018 में केदारनाथ की बेहद सीमित धारण क्षमता को अनुभव करते हुए वहां प्रतिदिन 5000 से कम यात्रियों के जाने की सीमा तय की थी। लेकिन सरकार पर यात्रियों से ज्यादा हितधारकों और राजनीतिक दबावों के चलते इस साल सीमा को बढ़ाकर बद्रीनाथ के लिये प्रतिदिन 20 हजार, केदारनाथ 18 हजार, गंगोत्री 11 हजार और यमुनोत्री के लिये 9 हजार यात्री कर दिया गया। इससे भी दबाव कम नहीं हुआ तो सरकार ने जून में सारी सीमाएं हटा दीं। केदारनाथ धाम के ऊपर मौजूद सुमेरू पर्वत से 30 जून 2024 को हिमस्खलन हुआ। पिछले साल भी हुआ था। उसके पिछले साल भी, हर साल ही होता है, लेकिन क्यों? कहीं ऐसा गौर करने वाली बात यह है कि पहले बद्रीनाथ जाने वाले यात्रियों की संख्या केदारनाथ से बहुत अधिक रहती थी। बद्रीनाथ के लिये सीधे वाहनों से जाया जाता है जबकि केदारनाथ के लिये लगभग 21 किमी की कठिन पैदल यात्रा भी है। लेकिन अब केदारनाथ में बद्रीनाथ से अधिक भीड़ जा रही है।
उत्तराखंड राज्य गठन से पूर्व पूरे सीजन में केदारनाथ के यात्रियों की संख्या औसतन 1 लाख तक और बद्रीनाथ जाने वालों की संख्या 9 लाख तक होती थी। पिछले साल केदारनाथ में 19,61,277 तक तीर्थयात्री पहुंच चुके थे। यात्रियों का यह सैलाब है जो कि केदारनाथ की धारण क्षमता से अत्यधिक होने से आपदा का एक कारण बन रहा है। 31 जुलाई को करीब 7ः30 बजे केदारनाथ में तेज बारिश के बाद भूस्खलन और कटाव हुआ था। आपदा प्रबंधन और पुनर्वास सचिव के मुताबिक 2 अगस्त तक कुल 7,234 यात्रियों को रेस्क्यू किया गया। 3 अगस्त को 1,865 यात्री रेस्क्यू कर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाये गये। 3 अगस्त तक कुल 9,099 यात्रियों को रेस्क्यू किया जा चुका था। रविवार को, प्रशासन के मुताबिक करीब 1,000 यात्रियों को रेस्क्यू किया जाना है। 1 अगस्त को रुद्रप्रयाग के ज़िलाधिकारी सौरभ गहरवार के एक्स हैंडल पर करीब 200-300 लोगों के धाम के आसपास होने की जानकारी साझा की थी। 2 अगस्त की शाम तक ये आंकड़ा 7,000 पार कर गया।
31 जुलाई के आसपास केदारनाथ में ठीक-ठीक कितने तीर्थयात्री मौजूद थे। क्या सरकार के पास ये आंकड़े हैं? राज्य सरकार ने इस वर्ष चारों धाम में रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था की थी। रजिस्ट्रेशन के बाद ही यात्रा की अनुमति थी। क्या ये व्यवस्था काम कर रही थी? लापता लोगों की सूचना को स्थानीय प्रशासन भ्रम फैलाने वाली ख़बरें बता रहा है। क्या मृतकों की भी सही-सही संख्या पता है? रोहित गोस्वामी आश्चर्य जताते हैं कि इस वर्ष रुद्रप्रयाग प्रशासन ने रात के समय भी यात्रा जारी रखी। जबकि पहले शाम 3-4 बजे तक केदारनाथ धाम से नीचे या गौरीकुंड से ऊपर यात्रियों को रोक दिया जाता था।
मुख्यमंत्री ने मीडिया को बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह हालात पर नजर रख रहे हैं। गढ़वाल सांसद ने भी क्षेत्र का हवाई निरीक्षण किया। वायुसेना का एक चिनूक और एक एमआई-17 हेलिकॉप्टर रेस्क्यू अभियान के लिए उपलब्ध कराया गया। ताकि फंसे हुए लोगों को एयरलिफ्ट कर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जा सके। इसके साथ ही 5 अन्य हेलीकॉप्टर भी रेस्क्यू में जुटे हैं। हालांकि खराब मौसम के चलते हवाई उड़ान में बाधा आ रही है। रेस्क्यू अभियान भी प्रभावित हो रहा है। एनडीआरएफ के 83 जवान, एसडीआरएफ, डीडीआरएफ और पीआरडी के 168 जवान, पुलिस विभाग के 126, अग्निशमन के 35 कर्मचारी अलग-अलग स्थानों पर रेस्क्यू के लिए तैनात हैं। 35 आपदा मित्र भी सहयोग दे रहे हैं।
31 जुलाई की भारी बारिश से राज्यभर में 15 मौतों की आधिकारिक सूचना है। इसमें से 3 रुद्रप्रयाग जिले के हैं। रेस्क्यू अभियान के दौरान की एक तस्वीर स्टेट डिजास्टर रिस्पांस फोर्स यानी एसडीआरएफ ने जारी की थी। जिसमें भारी चट्टानों के नीचे फंसे हुए एक व्यक्ति को सुरक्षित निकाला गया। ये तस्वीर मृतकों और लापता लोगों से जुड़ी आशंकाएं बढ़ाती है। 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बनी हाईपावर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में हर एक धाम की आपात स्थिति में बाहर निकालने की योजना बनाने के लिए कहा था। इस कमेटी के अध्यक्ष रहे डॉ रवि चोपड़ा कहते हैं ‘धाम में मंदिर तक पहुंचने के लिए हम जैसे-जैसे ऊपर जाते हैं, रास्ते संकीर्ण होते जाते हैं। हर धाम की एक आपात निकासी योजना होनी चाहिए। राज्य सरकार और प्रशासन पूरी तरह लापरवाह है। रजिस्ट्रेशन की बात कही गई। लेकिन कोई ये चेक नहीं करता कि ये सिस्टम काम कर रहा है या नहीं। जब तक इच्छाशक्ति नहीं होगी कुछ नहीं बदलने वाला। इन्हें कितनी रिपोर्ट्स चाहिए’।
जलवायु परिवर्तन के चलते पहाड़ों में भारी बारिश और इसकी बढ़ती तीव्रता को देखते हुए डॉ चोपड़ा सुझाव देते हैं ‘भारी बारिश का अलर्ट आने पर जिलाधिकारी जिस तरह स्कूल बंद करते हैं, उसी तरह यात्रा क्यों नहीं रोकी जाती। भविष्य में, मौसमी बदलाव को देखते हुए, यात्रा सीजन में बदलाव करना पड़ेगा’। जुलाई-अगस्त के महीने बारिश और भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील होते हैं। भारी बारिश के पूर्वानुमान के बाद जिला प्रशासन स्कूल बंद करा देते हैं, लेकिन यात्रा को नहीं रोका जाता यही नहीं, बहुत संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र वाले इन धामों में वाहनों की बाढ़ लगातार बढ़ती जा रही है।
अति संवेदनशील गोमुख में भी इस साल अब तक 6,309 यात्री पहुंच गये जिनमें ज्यादातर कांवड़िये ही थे। प्रकृति के साथ अगर ऐसा ही खिलवाड़ होता रहेगा तो मानवीय संकट को टाला नहीं जा सकेगा। बेशक आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास की अत्यन्त आवश्यकता है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम प्रकृति के साथ इतनी छेड़छाड़ कर दें कि अपने ही नागरिकों को जान के लाले पड़ जायें। इन आपदाओं के लिए हर बार वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के सुझावों और चेतावनियों की अनदेखी को जिम्मेदार माना जा सकता है।
(यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं और वह दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।)
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