आज ही के दिन उत्तराखंड की धरती से पेड़ों को बचाने का महाअभियान शुरू हुआ था। महिलाओं ने इस मूवमेंट में बड़ी भूमिका निभाई। पेड़ों को कटने से बचाने के लिए पुरुष ही नहीं महिलाएं भी पेड़ों से चिपक जाती थीं। आइए याद करें पर्यावरण बचाने वाले उन योद्धाओं को।
कोरोना वायरस के खिलाफ जंग में देश में जारी लॉकडाउन के बीच आज का दिन बेहद खास है। कमरे में बैठे-बैठे जरा दिमाग पर जोर डालिए क्या है आज? उत्तराखंड के लोगों को तो जरूर याद होगा! जी हां, आज चिपको आंदोलन की वर्षगांठ है। साल था 1974, आज ही के दिन गांव की महिलाओं के एक संकल्प ने देश ही नहीं पूरे विश्व को पेड़ों को बचाने की प्रेरणा दी थी।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने फेसबुक पर लिखा, ‘आज पर्यावरण की रक्षा के लिए सबसे बड़े और अनोखे ‘चिपको आंदोलन’ की वर्षगांठ है। आज के दिन 1974 में चमोली की रैणी गांव की महिलाओं ने गौरा देवी जी के नेतृत्व में पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दी। ऐसी मातृ शक्ति को शत-शत नमन। चिपको आंदोलन आज भी विश्वभर को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित करता है और सदियों तक प्रेरित करता रहेगा।’
भारतीय सदियों से प्रकृति से प्रेम और ईश्वर की तरह पूजते आए हैं। शास्त्रों में भी जल, अग्नि, पहाड़ और वृक्षों की पूजा का जिक्र मिलता है। ऐसे में आइए चिपको आंदोलन की वर्षगांठ पर याद करते हैं चमोली के रैणी गांव की उन महिलाओं को जिन्होंने समाज को प्रकृति प्रेम की राह दिखाई।
खास बात यह है कि किसी न किसी रूप में पर्यावरण की रक्षा का वह आंदोलन आज भी जारी है। तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली में जंगलों की अंधाधुंध और अवैध कटाई के खिलाफ विरोध शुरू हुआ। महिलाएं इनमें आगे थीं। चंडी प्रसाद भट्ट और गौरा देवी के आह्वान पर वृक्षों को बचाने का एक आंदोलन शुरू हो गया। आंदोलन की खास बात थी कि पेड़ों को काटने से बचाने के लिए महिलाएं हों या पुरुष पेड़ों से लिपट जाते थे। तस्वीरें अखबारों में छपीं तो पेड़ बचाने वालों की संख्या भी बढ़ती गई।
उस समय केंद्र की राजनीति में भी पर्यावरण एक महत्वपूर्ण विषय बनकर उभरा। केंद्र सरकार को वन संरक्षण अधिनियम बनाना पड़ा। इसमें कहा गया कि वनों की रक्षा करनी है। बताते हैं कि चिपको आंदोलन की वजह से ही साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एक विधेयक लाईं और हिमालयी क्षेत्रों में वनों को काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगाया गया।
अब तक चिपको आंदोलन उत्तराखंड ही नहीं पूरे देश में फैल चुका था। अगर हम चिपको आंदोलन से पहले का इतिहास पलटें तो पता चलता है कि जिस भूमि में यह आंदोलन अपजा वह 1970 में आई भयंकर बाढ़ से प्रभावित था। इस बाढ़ से 400 किमी तक का इलाका बर्बाद हो गया था और पुल, मवेशी, लाखों रुपये की लकड़ियां नष्ट हो गई थीं।
बाढ़ के पानी के साथ बही गाद इतनी ज्यादा थी कि उसने 350 किमी लंबी ऊपरी गंगा नहर के 10 किमी तक के क्षेत्र में अवरोध पैदा कर दिया जिससे 8.5 लाख एकड़ भूमि सिंचाई से वंचित हो गई और 48 मेगावाट बिजली का उत्पादन ठप हो गया था। अलकनदा की इस त्रासदी ने गांव के लोगों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ी और उन्हें समझ में आ चुका था कि जीवन में वनों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
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