उत्तराखंड इस समय मौमस की दोहरी मार झेल रहा है। मई महीने में जहां मैदानी इलाकों में भीषण गर्मी पड़ रही है तो वहीं उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हुई बर्फबारी से तापमान काफी गिर गया है। ऐसे में सरकार और प्रशासन को भी मौमस की दौहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
डॉ हरीश चन्द्र अन्डोला
चारधाम यात्रा के दौरान उत्तराखंड में इस तरह की परिस्थितियां से निपटना सरकार के लिए भी आसान नहीं है। उत्तराखंड में मौसम का इस तरह से बदलना अच्छे संकेत नहीं है। इस साल की जनवरी में जब बहुत सारे मौसम की भविष्यवाणी करने वाली संस्थानों ने अनुमान लगाना शुरू किया था कि अब अल-नीनो का असर खत्म होने जा रहा है और अलनीना का दौर शुरू होगा, तब वे हवाओं के रुख पर ध्यान देने की बजाय अल-नीनो के वार्षिक पैटर्न पर ज्यादा जोर रहे थे और उसी आधार पर इस तरह की खबरों को जारी कर रहे थे। अल-नीनो का असर भारत में बढ़ती हुई गर्मी और मानसून की हवाओं के दबाव के कमजोर हो जाने में अधिक दिखता रहा है। इसका सर्वाधिक असर उत्तर भारत के राज्यों में दिखता है। लेकिन, पिछले साल मानसून की कमजोरियों को केरल के तटों पर पर देखा गया तब उसकी भयावहता का अनुमान लग जाना चाहिए था।
औसत के आधार पर मौसम विभाग ने पिछले साल की बारिश को सामान्य से थोड़ा ही कम की श्रेणी में डाल दिया और खुद मौसम विभाग ने समुद्री हवाओं में थोड़े फेरबदल के साथ अल-नीनों के प्रभाव का आंकने में देर किया। इसका सीधा नतीजा मौसम में आ रहे बदलावों के साथ भारत के विभिन्न राज्यों में इसका क्या असर होगा, इस संदर्भ में कोई खास दिशा निर्देश जारी नहीं किये गये। अप्रैल के महीने में, जब भारत के दोनों तरफ की समुद्री तटों की हवाएं ऊपर उठनी शुरू होती है और मैदानी इलाकों की हवाएं समुद्री तटों की ओर बढ़ती हैं, इस पैटर्न में इस बार बदलाव आया। एंटी साइक्लोनिक हवाएं समुद्र की ओर बढ़ने की बजाय मैदानों की ओर नीचे की ओर दबाव बनानी शुरू कर दीं। इसकी वजह से पहले कर्नाटक और महाराष्ट्र में और फिर बंगाल, उड़ीसा, बिहार, पूर्वांचल, और मध्य प्रदेश के एक बड़े हिस्से में मई के पहले हफ्ते में तापमान 42 से 44 डीग्री सेल्सियस तक पहुंच गया।
समुद्र तटीय इलाकों में ही नहीं, मध्य भारत के मैदानी इलाकों की हवा में नमी की मात्रा में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। तापमान और नमी का यह गठजोड़ मानव शरीर की तापमान सहने की क्षमता को प्रभावित करती है। दरअसल, यही वास्तविक तामपान में बदलता है जिसे आमतौर पर ताप इंडेक्स नाम दिया जाता है। इसे लोकप्रिय भाषा में फील लाइक टेम्परेचर कहा जाता है। यदि धरती की सतह से उठने वाली गर्मी अधिक है, तब हवा में नमी की सहनीयता बढ़ जाती है। यदि धरती की सतह से उठने वाली गर्मी कम है, या यह ठंडी है तब हवा में नमी की सहनीयता कम हो जाती है। इसका मानव शरीर पर सीधा असर नसों में खून का दबाव और दिल के स्वास्थ्य पर पड़ता है। मानव शरीर खुद को ठंडा रखने के लिए अधिक पसीना बाहर करता है जिससे शरीर में पानी की कमी और आवश्यक सोडियम व अन्य पोषक तत्वों की तेजी से कमी देखी जाती है।
इस बार की गर्मी इसी तरह के हालात लेकर आई है। जिस समय भारत का नीचे का हिस्सा गर्मी और उमस से बेहाल था, उस समय उत्तर भारत पश्चिमी विक्षोभ के प्रभाव में था और पहाड़ की ऊंचाईयों पर बारिश और ज्यादातर बर्फबारी देखी जा रही थी। इससे उतरती हवाओं के असर में उत्तर के मैदान ठंडी हवाओं से खुशनुमा बने हुए थे। लेकिन, मई के दूसरे हफ्ते तक इसका असर खत्म हो चुका था। पश्चिमी विक्षोभ से उत्तरी मैदानों में जो औसतन बारिश होती है, वह बेहद कम हुई। दिल्ली जैसे इलाकों में बारिश नाम मात्र की ही हुई। यही स्थिति पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के पूरे इलाके की रही। यही कारण है, नक्षत्र की भाषा में ‘नवतपा’ आने के पहले ही दिल्ली में तापमान औसतन 44 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया जबकि इसके कुछ जिलों में तापमान 47 डिग्री सेल्सियस नापा गया।
वहीं राजस्थान में सुबह 10 बजते-बजते तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर जाने लगा और कई जिलों में यह 50 डिग्री सेल्सियस से भी ऊपर दर्ज किया गया। भारत में गर्म हवाओं के प्रकोप का यह तीसरा साल है। यह भारत के इतिहास में सबसे लंबी गर्मी की अवधि में से एक गिना जा रहा है। लेकिन इस साल गर्मी की मार की अवधि ऐतिहासिक रूप से न सिर्फ लंबी है, बल्कि औसत से अधिक तापमान दर्ज किया जा रहा है। इस बार केरल तक में गर्मी की मार देखी गई और वहीं उत्तराखंड और हिमाचल में बढ़ते तापमान को देखा गया है। इस बढ़ती गर्मी के लिए सिर्फ समुद्री हवाओं का रुख ही मुख्य नहीं है। लेकिन, निश्चित ही उसकी एक बड़ी भूमिका है।
अल-नीनो का असर पूरी दुनिया पर पड़ता है और इसका असर लगभग उसी तरह का है जिस तरह का असर उद्योगों से पैदा हुए ग्लोबल वार्मिंग है। लेकिन, एक बड़ा फर्क यह है कि अल-नीनो भूवैज्ञानिक बनावट और उसकी कार्यकारी स्थितियों का अभिन्न हिस्सा है। पश्चिम से पूरब की ओर बहती हवा दुनिया भर में बारिश की संभावना और ठंडी हवाओं के असर को बढ़ा देता है, वहीं पूरब से पश्चिम की ओर चलने वाली हवा बारिश की संभावना को कम और गर्म हवाओं के प्रभाव को बढ़ा देती है। इससे दक्षिणी और उत्तरी अमेरीका, अफ्रीका का ऊपरी हिस्सा, मध्य एशिया, भारत और दक्षिण एशिया और आस्ट्रेलिया इससे सीधे प्रभावित होते हैं। लेकिन, गर्म हवाओं का असर यूरोप में अक्सर देखने को मिलता है और साथ पश्चिमी विक्षोभ पर होने वाला इसका असर कश्मीर के ऊपरी इलाकों पर पड़ता है और बारिश की कमी नंगे पहाड़ों को और भी भयावह बना देते हैं। यह स्थितियां यदि प्राकृतिक अवस्था के अनुरूप चलती होती तब उसका असर इतना अधिक नहीं पड़ता जितना आज के समय में पड़ने लगा है।
ग्लोबल वार्मिंग, जो आधुनिक औद्योगिक विकास, खासकर पूंजीवादी साम्राज्यवाद के मुनाफे की भूख से पैदा हुई है। इसने सिर्फ धरती का तापमान ही नहीं बढ़ाया है। इसने विकास का जो मॉडल दिया और खेती का जो पैटर्न बनाया है उसमें मौसम के असर को दरकिनार कर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर अधिक निर्भर बना दिया है। दूसरे, शहरों के विकास का जो अर्बन-सबअर्बन मॉडल में दिख रहा है, वह भी न सिर्फ शहरों की संख्या में वृद्धि बल्कि कंक्रीट से बनी विशाल सड़कों का नेटवर्क भी विकसित किया है। यह विकास की ‘कॉरिडोर व्यवस्था’ है जिसमें पूंजी का खुला खेल है। यह कॉरिडोर भारत में धार्मिक कॉरिडोर से इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के रूप में परिणत हुआ है। भारत जैसे देश में शहरों की वजह से 60 प्रतिशत तापमान में वृद्धि हुई है। आईआईटी, भुवनेश्वर ने भुवनेश्वर में तापमान वृद्धि का 90 प्रतिशत कारण शहरीकरण को माना है।
तालाबों का शहर गोरखपुर और झीलों का शहर जमशेदपुर में तापमान में हुई वृद्धि का मुख्य कारण शहरीकरण को आंका गया। हल्द्वानी और देहरादून जैसे पहाड़ी शहर में बढ़ते तापमान को उसके बढ़ते प्रदूषण से जोड़कर देखें, तब भी इस शहरीकरण के प्रभाव को देखा जा सकता है। भौगोलिक स्थितियां, भूपरिस्थितियां और प्राकृतिक संरचना सिर्फ प्राकृतिक अवस्था को ही नहीं बनाती है, मनुष्य के जीवन और उसके समाज को भी रचती हैं। किसी मानव समाज और उसके उत्पादन के अध्ययन में जिन मूलभूत उपकरणों का प्रयोग किया जाता है, उसमें उपरोक्त सरणियां एक निर्णायक भूमिका में होती हैं। भारत में, इन मूल सरणियों का भारतीय समाज, उसके उत्पादन की स्थितियों और रोजमर्रा जिंदगी पर क्या असर पड़ेगा, इसकी चिंता न तो मौसम विज्ञान की खबरों में दिखती है और न ही सरकार की योजनाओं में, यह सिर्फ एक मनोरंजक खबर की तरह प्रस्तुत होता दिखता है जिसमें कई बार नक्षत्रों के सहारे ‘झमाझम बारिश’ की भविष्यवाणी होती है और कभी मौसम विभाग के अनुमानों के आधार पर ‘झमाझम बारिश’ की खबरें प्रकाशित कर दी जाती हैं। जबकि मौसम भारत की जिंदगी के हर हिस्से को प्रभावित कर रही होती है। यह खेती और उद्योग, गांव और शहर, और आम जन के स्वास्थ्य को गहरे प्रभावित करती होती है।
मौसम में आ रहे बदलाव को लेकर जनमानस को न सिर्फ सही सूचना देना जरूरी है, साथ ही उसे मौसम में आ रहे बदलावों और उसके प्रति सतर्कता बरतने के लिए भी सही सूचना देनी जरूरी है। पर्यावरण में बदलाव और मानव जीवन का अनुकूलन कोई नई बात नहीं है। लेकिन, इसके लिए जरूरी है कि अनुकूलन की स्वतंत्रता हो। यदि अनुकूलन की शर्त पूंजी और उसके मुनाफे की हवस है, तब इंसान का जीवन निहायत ही खतरे में पड़ जाएगा। अपने देश में पर्यावरण में हो रहे बदलाव से आम जन का जीवन खतरनाक स्थितियों की ओर बढ़ रहा है। इससे भी बुरा है कि सरकार पूंजी के मुनाफे के लिए पर्यावरण में विनाशकारी हस्तक्षेप को रोकने की बजाय बड़े पैमाने पर बढ़ावा दे रही है, और पर्यावरण के अनुकूल जिंदगी जीने वालों को उन्हें और भी विनाशकारी परिस्थितियों की ओर ठेल रही है। भारत में आमजन पूंजी और पर्यावरण दोनों की मार से बेहाल हो रहे हैं। जरूरी है कि इन दोनों कारणों की समझ बढ़ाएं और जीवन के संघर्ष को आगे ले चलें।
उत्तराखंड में ग्लोबल वार्मिंग का सीधा असर मौसमीय बदलाव के रूप में दिखाई देने लगा है। मैदानी क्षेत्रों में हिटवेव का खतरा तो ऊच्च हिमालयी क्षेत्रों में बर्फबारी के हालात वैज्ञानिकों को हैरान कर रहे हैं। खास बात यह है कि मौजूदा परिस्थितियों ने प्रदेश के लिए दोहरी चुनौतियां भी खड़ी कर रही है। हिटवेव से बचाव की कोशिशों के साथ चारधाम यात्रा होने के चलते ऊच्च हिमलायी क्षेत्रों में बर्फबारी के लिए भी सरकार को तैयार रहना पड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग वैसे तो पूरी दुनिया में कई नए पर्यावरणीय खतरों को बढ़ा रहा है, लेकिन उत्तराखंड में इसके व्यापक असर सीधे तौर पर दिखाई दे रहे हैं। इस बार राज्य में हिटवेव और बर्फबारी एक साथ हो रही है। यह स्थितियां देखकर वैज्ञानिक भी हैरान है और इसके लिए एक वजह उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति को भी मानते हैं।
उत्तराखंड आपदा प्रबंधन विभाग के सचिव भी मानते है कि यह स्थिति काफी हैरान करने वाली है कि राज्य में एक तरफ चारधाम यात्रा शुरू होने के साथ ऊंचे स्थानों पर बर्फबारी के लिए तैयारी हो रही है और दूसरी तरफ हीट वेव के खतरों पर भी चिंतन किया जा रहा है। प्रदेश में यह स्थिति दोहरी चुनौतियों वाली है। खास तौर पर उत्तराखंड में तो कम समय में ज्यादा बारिश का ट्रेंड लगातार बढ़ रहा है। जिसने उत्तराखंड में मानसून सीजन या इससे पहले की प्राकृतिक आपदा के खतरे को काफी ज्यादा बढ़ा दिया है।
लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।
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