ग्राउंड रिर्पोटिंग – लोकसभा चुनावों में कितना सफल रहा ‘अपना वोट अपने गांव’ अभियान

ग्राउंड रिर्पोटिंग – लोकसभा चुनावों में कितना सफल रहा ‘अपना वोट अपने गांव’ अभियान

उत्तराखंड में 19 अप्रैल को मतदान हुआ इस बार के लोकसभा चुनावों में मतदाताओं का प्रतिशत थोड़ा कम दिखाई दिया इसके पीछे क्या क्या कारण हो सकते हैं। उसके बारे में हेमा उनियाल की खास रिपोर्ट।

इस बार 17 अप्रैल को निवास स्थान ग्रेटर नोएडा से अपने गांव जल्ठा, डबरालस्यू पट्टी, ब्लॉक द्वारीखाल, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड जाना हुआ। एक-डेढ़ साल पूर्व जो वोटर कार्ड बनाने के लिए प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह पूर्ण हो गई थी और वोटर कार्ड बन कर तैयार था और हमें 19 अप्रैल को अपना वोट डालने अपने गांव जाना था। इससे पूर्व कभी दिल्ली, बाद में ग्रेटर नोएडा हमारा मतदान संपन्न होता रहा है।

इस बार हम दिल्ली से 17 अप्रैल को कोटद्वार के लिए ‘उत्तराखंड परिवहन’ की बस लेते हैं और 17 की शाम अपनी दीदी (पतिदेव की बड़ी बहन, काला परिवार) के यहां रुकते हैं। अगले दिन 18 अप्रैल को पहाड़ों के लिए बसों की बड़ी समस्या थी। अधिकांश बसें, जीपें चुनाव के लिए और उस बीच शादियों के लिए लग चुकी थीं। हमें बताया जाता है कि आप सुबह जल्दी निकल जायेंगे तो जाने का कुछ साधन मिल जायेगा अन्यथा मुश्किल होगी। हम सुबह 4 बजे उठकर 4ः45 में बालासौड, कोटद्वार से पैदल ही स्टेशन की ओर निकल पड़ते हैं और हमें 5ः30 बजे एक बस जिसे कोटद्वार से द्वारीखाल पहुंचना था, मिल जाती है। इस बीच कोटद्वार सरकारी बस अड्डे का अभी भी वही अविकसित रूप और साफ-सुथरे टॉयलेट का न होना अखरता है। कितना मुश्किल है यह लिखना कि जो गढ़वाल क्षेत्र का मुख्य द्वार कोटद्वार है वहां सही से एक बस अड्डा तक नहीं, कोई ठीक प्रसाधन सुविधाएं उपलब्ध नहीं। इसलिए जब बसों से यात्रा करते हैं तो कई सच्चाइयों से भी व्यक्ति रूबरू हो जाता है।

द्वारीखाल पहुंचकर बस में बैठे अन्य लोग भी हमारी तरह अटक जाते हैं जिन्हें चैलूसैण, देवीखेत या आगे तक जाना था। आधा, एक घंटा बसों का इंतजार करने के बाद द्वारीखाल में एक टैक्सी उपलब्ध हो पाती है जो हमें 800 रुपए में देवीखेत से 3, 4 किलोमीटर आगे जौलीधार तक छोड़ती है। वहां से जंगल की लगभग दो किलोमीटर की, मनभावन पैदल यात्रा करके हम अपने गांव सुबह 10, 11 बजे के बीच पहुंच जाते हैं। इस बार जंगलों में आग के कारण घास, झाड़ियां जली हुई थी और रास्ता साफ दिखाई दे रहा था, इसलिए जंगली जानवरों का भय कम था। गांव में अपने पैतृक घर में हम पहुंचते हैं और मदन भाई उनकी पत्नी, बहू रेनू का आतिथ्य हमें मिलता है। सभी गांव वालों से मुलाकात होती है, स्नेह, आदर से हमारे मन अभिभूत हो जाते हैं। गांव की स्थिति पर दो दिनों तक कुछ चर्चा भी हो जाती है।

यह तो हमारे गांव तक पहुंचने की यात्रा का विवरण था। मुख्य बात यह भी है कि हम शहरों की सुविधाओं को छोड़कर पुनः गांवों की ओर क्यों बढ़ रहे हैं…? इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण है और आगे भी रहेगा, वह है गांव और शहर के बीच आबादी का संतुलन न होना। गांव खाली होते जा रहे हैं और शहरों में अतिरिक्त भार बढ़ रहा है, प्रदूषण बढ़ रहा है। बीमारियां बढ़ रही हैं। आज भी गांवों में कोई सुविधा न होते हुए भी शुद्ध हवा, पानी, थोड़ा बहुत घर के आगे खेती तो है ही, जो यहां के लोगों के लिए पर्याप्त है। पानी की, बिजली की समस्या भी अब बहुत हद तक दूर होने लगी है। घर-घर नल लग चुके हैं। पानी को घर-घर पहुंचाने के लिए सरकारी और ‘हंस फाउंडेशन’ की योजना चल रही है। गैस सिलिंडर घरों तक पहुंचने लगे हैं या पहुंचा दिए जाते हैं। गांवों में जब कुछ हलचल होने लगी तब तक गांव खाली हो गए..!

शायद सुविधाएं देने वाले हाथ, गांव तक देर से पहुंचे… लोगों को जरूरत थी, जीवन जीने का एक जज़्बा था, इस संघर्ष के बीच वो इंतजार न कर सके और चले गए। शहरों में भी उन्होंने जीवन जीने के लिए खूब संघर्ष किया किंतु अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दी। मकानों ने अपनी भव्यता बहुत समय तक बारिश, तूफानों के संघर्ष के बीच बचा कर रखी फिर एक दिन ऐसा आया वह गिर गए, हार मान ली…। आगे कुछ लोगों ने कहा कि हम 4 /5 भाई हैं, आपस की साझेदारी है चलो मिलकर इसे पुनः खडा कर देते हैं… किंतु फिर भी उनमें सहमति नहीं बन पाई… न मेरा है न तुम ही बना पाओगे…। दो परिवारों से पहले छह हुए, फिर दस फिर अनेक हो गए, नए गांव बस गए, पुराने छूटते चले गए। कुछ लोग कोटद्वार भाबर जाकर निवास करने लगे और गावों को छोड़ दिया। कुछ शहरों में भी रहे तो गांव आते-जाते रहे। एक लंबी अंतहीन कथा यूं ही चलती रही। आज जो है कल फिर कुछ नवीन होगा… यह सिलसिला चलता रहेगा…!

फिर भी गांवों में जो रहना चाहते हैं उनके लिए कुछ बातें जरूरी लगती हैः-

(1) जो कम संसाधनों में भी अपनी गुजर-बसर करने में संतुष्ट हों।
(2) जिनके हाथ, पैरों की स्थिति सही हो। क्योंकि यहां चढ़ना, उतरना आम बात होती है। साथ ही यहां अधिकतर टॉयलेट हिंदुस्तानी ही बने होते हैं और घर के अलग, पीछे की तरफ बने होते हैं।
(3) गांव में रहना है तो स्वयं की आत्मनिर्भरता भी जरूरी है क्योंकि कब तक रिश्तेदारों के या दूसरों के घर में रहा और खाया जा सकता है।
(4) यहां शहरों की तरह न शोर-शराबा है न प्रदूषण। शुद्ध हवा, पानी और शांति है और सुकून है… और जिनमें थोड़े में जीने की कला है, उनके लिए उत्तम स्थान। साथ ही थोड़ा ऊंचाई पर चले जाइए तो ठंडी हवा का क्या कहने….!
(5) साथ ही यहां रहने के लिए यह भय भी त्यागना होगा कि कहीं कुछ हो गया तो आसपास कोई डॉक्टर भी नही। यहां के व्यक्ति संतुलित खाते हैं, और शुद्ध वातावरण में रहते हैं। और कई लोग ऐसे हैं जो लंबे समय से बिना मेडिकल सुविधा के यहां रह रहे हैं और अभी तक स्वस्थ हैं। यहां अस्पताल बनना, स्कूल बनना, सड़कें बनना यह सब सरकारी परियोजनाएं हैं जिनसे गांव के प्रत्येक व्यक्ति का सरोकार तो है पर उस पर उनका कोई बस नहीं चलता। योजनाओं के इंतजार में रहते-रहते लोग यहां से पलायन कर गए। इंसान वही कर सकता है, जो उसके नियंत्रण में है। यदि गांवों के सही विकास के विषय में पहले से ही सोचा गया होता, नीतियां बनाई गई होती तो आज गांव इस तरह खाली नहीं होते और शहरों पर अतिरिक्त भार न होता। जंगली जानवरों का आतंक एक अलग विकट समस्या है।

इस बार गांव में वोटिंग प्रतिशत भी कम देखा गया जिसके कई कारण रहे होंगे। जिनमें प्रमुख कारण इस बीच बड़े लगन व शादी समारोहों का होना रहा। लोग इधर-उधर फंसे रहे और वाहनों की भी कमी रही। वोटिंग की तिथि निर्धारित करते समय शासन-प्रशासन की ओर से, एक बड़ी भूल इसे कहा जा सकता है कि उन्होंने शादी के इस बड़े लगन को नजरअंदाज किया या उनकी जानकारी दुरुस्त नहीं थी।

अन्य कारणों में जो समझ में आए उनमें स्थानीय नेताओं का गांव से जनसंपर्क ठीक से न होना, गांव से 2 किलोमीटर वोटिंग सेंटर तक बड़े-बूढ़ों के आने-जाने के लिए वाहन की सुविधा सही से न हो पाना तथा आपसी समन्वय की कमी रहना आदि। लोगों में बच्चों के रोजगार को लेकर चिंतित रहना और उदासीन रहना भी एक कारण रहा किंतु उनके द्वारा वोट फिर भी डाले गए। जिन लोगों द्वारा वोट नहीं डाले गए उन्हें आगे कुछ कहने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि व्यक्ति राष्ट्रीय कर्तव्य भूल जाए और सिर्फ आलोचना करें, यह स्वीकार्य नहीं होगा। कुछ वर्षों में गांव का जो विकास हुआ है उसे सभी मानते हैं। कोरोना काल को यहां के सभी लोग अभी तक नहीं भूले हैं। उनका कहना है कि उस समय सरकार हर तरह की अन्न-धन की मदद न करती तो आधे गांव भूख से मर गए होते। मेरी जानकारी में इस गांव की ग्राम प्रधान रेनू उनियाल और ग्राम सभा खेड़ा की प्रधान सुषमा रावत (सुमा देवी) बहुत कर्मठ और जागरूक महिलाएं हैं, जिन्होंने खूब सहयोग किया और कर रही हैं।

हमारा गांव आना-जाना लगा रहेगा। हो सकता है आगे लंबे समय तक वहां ठहरा जाये और कुछ सार्थक कार्य वहां से किए जा सकें। गांव की बसासत को लेकर और समृद्धि को लेकर बहुत कुछ भीतरी चिन्तन क्रियाशील है जिसे ईश्वर ने चाहा तो कुछ साकार रूप मिल सके।

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