उत्तराखंड की लोक संस्कृति से जुडे पौराणिक वाद्ययंत्र लुप्त होने की कगार पर

उत्तराखंड की लोक संस्कृति से जुडे पौराणिक वाद्ययंत्र लुप्त होने की कगार पर

उत्तराखंड की सम्रद्ध लोक परंपरा में विभिन्न प्रकार के पौराणिक वाद्ययंत्रों की फेहरिस्त रही है। प्राचीनकाल से ही उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के मांगलिक, मनोरंजन, रीति-रिवाजों, युद्ध व संचार कार्यो में अनेकों प्रकार के वाद्ययंत्र बजाये जाते रहे हैं।  धातुओं से निर्मित वाद्ययंत्रों में मंजीरा, बिणाई, करताल, चिमटा, थाली, झाल, घुंघरू, खजडी, घण्टा, झांज, मोठंग, घन या घाना, तुरही, नागफणी, भन्कोरा, रणसिंहा, झंकोर। लकड़ी व चर्म से निर्मित वाद्ययंत्रों में ढोलकी, हुड़का, डौर, साइयां, तबला, मशकबीन। धातु व चर्म से निर्मित नगाडा, ढोल, दमाउ, डफली।

वाद्ययंत्रों का किसी भी संस्कृति से बहुत गहरा नाता रहा है। वाद्ययंत्रों के बिना संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है। वाद्ययंत्र ही हैं जो अपने आधार से संगीत की आत्मा को दर्शाते हैं। उत्तराखंड का पर्वतीय अंचल पारंपरिक वाद्ययंत्रों का खजाना रहा है, जिस बदौलत इस अंचल का लोकगीत-संगीत पारंपरिक तौर पर सम्रद्ध व विविधता से ओत-प्रोत रहा है। विभिन्न प्रकार के वाद्ययंत्रों से निकलने वाले निराले संगीत में अंचल के कौतुहल से भरे प्रकृति के विभिन्न रूपों का वास रहा है। लोकगीत-संगीत प्रकृति से जुडा रहा है। उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में संगीत की ताल को ’चाल’ कहा जाता है। प्रचलित तालौ में कुछ तालै ऐसी हैं जो सम्पूर्ण विश्व में कही नहीं है।

उत्तराखंड की सम्रद्ध लोक परंपरा में विभिन्न प्रकार के पौराणिक वाद्ययंत्रों की फेहरिस्त रही है। प्राचीनकाल से ही उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के मांगलिक, मनोरंजन, रीति-रिवाजों, युद्ध व संचार कार्यो में अनेकों प्रकार के वाद्ययंत्र बजाये जाते रहे हैं।  धातुओं से निर्मित वाद्ययंत्रों में मंजीरा, बिणाई, करताल, चिमटा, थाली, झाल, घुंघरू, खजडी, घण्टा, झांज, मोठंग, घन या घाना, तुरही, नागफणी, भन्कोरा, रणसिंहा, झंकोर। लकड़ी व चर्म से निर्मित वाद्ययंत्रों में ढोलकी, हुड़का, डौर, साइयां, तबला, मशकबीन। धातु व चर्म से निर्मित नगाडा, ढोल, दमाउ, डफली। बांस व रिंगाल से निर्मित बांसुरी व अल्गोजा तथा तार या तांत वाद्ययंत्रों में एकतारा, सारंगी, दो तारा, वीणा मुख्य रहे हैं। अन्य वाद्ययंत्रों में गिटार, आरगन, हार्मोनियम व शंख की भी महत्ता निरंतर बनी रही है। उक्त वाद्ययंत्रों को मुख्य रूप से चार वर्गो मे वर्गीकृत किया गया है।

उत्तराखंड की लोकसंस्कृति में विभिन्न प्रकार के वाद्ययंत्रों मे विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों के अनुरूप भावनाओं को अभिव्यक्त करने की क्षमता पायी जाती है। लोकगीत-संगीत में ताल, लय और स्वरों को वाद्ययंत्र ही नियंत्रित करते हैं। विगत कुछ दशकों से उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल से निरंतर हो रहे पलायन। आधुनिकता की ओर बढते लोगों के कदम तथा परंपरागत चीजां के प्रति युवा पीढी का मोह कम होने से पौराणिक वाद्ययंत्रों के अस्तित्व पर विलुप्ति का खतरा मंडराना आरंभ हो चुका था। समय बीतते धीरे-धीरे उत्तराखंड के वाद्ययंत्रों की श्रृंखला पूरी तरह से विलुप्त होने के कगार पर खडी हो चुकी है। कुछ वाद्ययंत्र या तो लुप्त होने की कगार पर हैं या लुप्त हो चुके हैं।

आधुनिकता, भू-मंडलीकरण व डिजिटलकरण के इस दौर में अधिकतर पौराणिक व पारंपरिक वाद्ययंत्रों की जगह हल्के और आधुनिक यंत्रों व वाद्ययंत्रों जैसे कम्प्यूटर, की-बोर्ड और सिंथेसाईजर ने ले ली है। एक ही यंत्र से सितार, संतूर, तबला तथा दर्जनों अन्य वाद्ययंत्रों की धुन बजाई जा सकती है। गीत-संगीत में रुचि रखने वालों को पाश्चात्य संगीत के वाद्ययंत्र गिटार, की-बोर्ड और ड्रम्स ज्यादा आकर्षित करने लगे हैं। तेजी से डिजीटल होते समय में संगीत भी डिजीटल होता चला गया है। ऐसी परिस्थिति में पौराणिक वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल कम होने तथा बदलती चाहत के कारण उक्त वाद्ययंत्रों की मांग और उपलब्धता पर प्रतिकूल प्रभाव पडा है। पौराणिक वाद्ययंत्रों का संरक्षण न होने से उक्त वाद्ययंत्र चलन से बाहर होते चले गए हैं, उनका अस्तित्व ही दाव पर लग गया है।

विश्व प्रसिद्ध प्राचीन ढोल वाद्य उत्तराखंड की लोकसंस्कृति से जुडा होने के साथ-साथ राज्य वाद्ययन्त्र के तहत सु-विख्यात रहा है। ढोल व दमाउ उत्तराखंड पर्वतीय अंचल के सबसे लोकप्रिय और मांगल वाद्ययंत्रों की श्रेणी मे आते हैं जो शादी-विवाह, नाच-गाने, जागर, रीति रिवाजों इत्यादि में सर्वाधिक प्रचलित वाद्ययंत्र हैं। जगह-जगह उमंग व उत्साह का जलवा बिखेरते नजर आते हैं।
ढोल पर सर्वप्रथम बजाई जाने वाली ’मंगल बढई ताल’ जो बधाई और मंगल का प्रतीक मानी जाती है के साथ-साथ ढोल वादन की अन्य तालौ में जागर की प्रमुख ताल को ’धुयाल ताल’ से जाना जाता है। ’घुडया रासो’ व ’मंडाड ताल’ भी ढोल की मुख्य तालौ में स्थानरत हैं। प्राचीन काल से निरंतर प्रचलित ढोल व दमाउ को ही उत्तराखंड के सुरक्षित वाद्ययंत्रों की श्रेणी में रखा जा सकता है।

अवलोकन कर ज्ञात होता है, वर्तमान मे उत्तराखंड पर्वतीय अंचल के अन्य पौराणिक वाद्ययंत्र अंतिम चरण की सांस लेते नजर आ रहे हैं। उक्त वाद्ययंत्रों को बनाने वाले कुशल कारीगरों व बजाने वाले सिद्धहस्त वादकों की संख्या सिमट सी गई है। वर्तमान दौर में उत्तराखंड के लगभग प्रत्येक गीत-संगीत व मनोरंजन के आयोजनों मे हर वो आधुनिक वाद्ययंत्र उपयोग में लाये जा रहे हैं जो देश या विदेश में संगीत के क्षेत्र में उपयोग किए जा रहे हैं।

उत्तराखंड पर्वतीय अंचल के लुप्तप्राय पौराणिक वाद्ययंत्रों में बांस या मोटा रिंगाल से निर्मित ’अल्गोजा’ (जोया मुरली) जो लोकगीतों खुदेड अथवा झुमैला गीतों तथा पशुचारकों द्वारा बजाया जाता था लगभग लुप्त हो चुका है। धातु निर्मित छोटा सा वाद्ययंत्र ’बिणाई’ जो अधिकतर पर्वतीय अंचल की महिलाओं द्वारा बखूबी बजाया जाता था, विभिन्न तालां में विभिन्न स्वरों के लिए अलग-अलग प्रकार की ’बिणाई’ ताल स्वरां वाली बनाई जाती थी। यह वाद्ययंत्र अब लुप्तप्राय है। आज की पीढी इस वाद्ययंत्र के बावत अंजान रही है।

’हुड़का’ उत्तराखंड के लोकगीत व जागर गायन दोनों में प्रयुक्त होने के साथ-साथ कृषि कार्यो तथा युद्ध प्रेरक प्रसंगों में बजाया जाने वाला लोक वाद्ययंत्र रहा है। इस वाद्य को बनाने वाले कुशल कारीगरों तथा बजाने वाले निपुण वादकों के अभाव में, वाद्ययंत्र से प्रकट होने वाली कर्णप्रिय गूंज के लुप्त होने से इस सु-विख्यात लोक वाद्ययंत्र ने अपना अस्तित्व खो दिया है, जिस कारण यह लोक वाद्ययंत्र विलुप्ति की कगार पर खड़ा है।

शिव को समर्पित, चार मोड वाला व आगे का हिस्सा सांप के मुह की तरह दिखने वाला, डेढ़ मीटर लंबा पौराणिक लोक वाद्ययन्त्र ’नागफणी’ जिसे अंचल के तांत्रिकों, साधुआें द्वारा तथा युद्ध के समय सेना में जोश भरने, धार्मिक, सामाजिक, शादी-व्याह व मेहमानों के स्वागत समारोहों में फूक मारकर बजाया जाता था, लगभग लुप्त हो चुका है।

पर्वतीय अंचल में लोक आस्था के प्रतीक जागर में स्थानीय देवताओं को नचाने में ’डौरू’ या ’डौर’ वाद्ययंत्र जिसकी संरचना दोनों तरफ से समांतर, बीच में मोटाई थोडी कम होती है, वादक द्वारा जांघ के नीचे रख कर बजाता है, विलुप्ति की कगार पर खड़ा है।

जागर व लोकगाथा गायन में ’कांसे की थाली’ का वादन ढोल-दमाउ के साथ किया जाता है। ढोल-दमाउ की गूंज ने ’कांसे की थाली’ के रिदम को जैसे सूना कर दिया है। वाद्ययंत्रों की श्रृंखला से इस जमे-जमाए पौराणिक वाद्य का उपयोग बंद होने से इसके अस्तित्व पर पूर्णरूप से विराम लगता नजर आ रहा है।

अवलोकन कर ज्ञात होता है, राष्ट्रीय फलक पर संगीत की धुनों में आमतौर पर प्रयुक्त होने वाले महत्वपूर्ण वाद्ययंत्र सितार की जगह छोटे से कंप्यूटर साफ्टवेयर वीएसटी ने, भारी भरकम तानपुरे की जगह रेडियोनुमा दिखने वाले इलैक्ट्रानिक तानपुरा ने, की-बोर्ड ने हार्मोनियम सहित कई अन्य दूसरे वाद्ययंत्रों की जगह ले ली है। यहां तक कि अमीरों व बडे-बडे संगीतकारों के सिंबल का प्रतीक रहे ’पियानो’ नामक सबसे बडे वाद्य की जगह एक छोटे से रेडियोनुमा इलैक्ट्रानिक वाद्य ने ले ली है। अस्तित्व खो चुके अनेकों वाद्ययंत्रों की धुनों को एक वादक की-बोर्ड की ’की-कंबिनेशन’ की सहायता से प्रभावशाली रूप से हू-बहू प्रस्तुत कर सकता है।

बाजार भाव, सरलता व वादन की दृष्टि से अगर आधुनिक व पौराणिक वाद्ययंत्रों का तुलनात्मक रूप से अवलोकन करते हैं तो एक इलैक्ट्रोनिक वाद्ययंत्र जो पौराणिक वाद्ययंत्रों से भार की तुलना में हल्का, लाने ले जाने व वादन में सरल तथा कीमत की तुलना में बीस-इक्कीस का ही आंकड़ा रखता नजर आता है। इलैक्ट्रोनिक वाद्ययंत्र का सबसे बड़ा फायदा नजर आता है, एक वादक एक ही यंत्र से कई वाद्यों की धुन निकाल सकता है। आधुनिक वाद्ययंत्रों की सुगमता व बहुलता ही वह कारण माना जा सकता है जिस बल प्राचीन व पौराणिक वाद्ययंत्रों का अस्तित्व समाप्त हुआ है या समाप्ति की कगार पर है।

लेकिन देवभूमि उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के जनमानस का प्राचीन काल से पीढी दर पीढी विश्वास रहा है, अंचल में प्रचलित पौराणिक वाद्ययंत्र दिव्य शक्तियों से ओत-प्रोत रहे हैं। वाद्य व वादक साधारण नहीं असाधारण रहे हैं। जहां भी इन वाद्ययंत्रों का वादन सिद्धहस्त वादकों द्वारा किया गया, वाद्यों की ध्वनि से उक्त स्थान व वहां के जन में सकारात्मक्ता का वास हुआ है।

नकारात्मक जन नाचते देखे गए हैं। सिद्धहस्त वादकां द्वारा वाद्ययंत्रों का वादन कर समय-समय पर जन को जगा सकारात्मक्ता की राह दिखाई गई है। देवभूमि उत्तराखंड में देवताआें का आहवान पारंपरिक तौर पर पौराणिक वाद्ययंत्रों के द्वारा ही किया जाता रहा है, जो आज विलुप्ति की कगार पर खडे हैं।

वर्तमान में उत्तराखंड की जो दशा व दिशा चलायमान है। अनेकों प्रकार की भयावह विपदाओं से जो हा हा कार मचा हुआ है। दिव्य पौराणिक वाद्ययंत्रों के संरक्षण की पहल को नजरअंदाज करने से उन वाद्यों पर जो विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है, इसे देवभूमि उत्तराखंड के परिपेक्ष मे सकुन कहे या अपसकुन? समझा जा सकता है।

देवभूमि उत्तराखंड की संस्कृति के वाहक रहे पौराणिक वाद्ययंत्रों को लुप्त होने से बचाने के लिए अंचल वासियां को चाहिए वे दिव्य वाद्ययंत्रों के संरक्षण व संवर्धन हेतु आगे आए। निपुण वादक देवभूमि के पौराणिक वाद्ययंत्रों का विधि-विधान से वादन कर उनकी ध्वनि से उत्तराखंड में व्याप्त नकारात्मक्ता को दूर कर, देवभूमि उत्तराखंड के जनमानस के सामाजिक व सांस्कृतिक अस्तित्व को बचाने की प्रभावी पहल करें।

– सी एम पपनैं

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