उत्तराखंड में ओखली विलुप्त होने के कगार पर

उत्तराखंड में ओखली विलुप्त होने के कगार पर

पहाड़ी क्षेत्रों में ओखली कभी घर-गांवों की शान हुआ करती थी। जिस घर के चौक (आंगन) में ओखली होती थी, उसे गांव के समृद्धशाली परिवारों में गिना जाता था। वक्त बदला तो पहाड़ी क्षेत्रों में ओखली की गमक भी कम सुनाई देने लगी।

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

ओखली अब हिन्दी की किताबों में ‘ओ’ से ओखली के अलावा शायद ही कहीं देखने को मिले। उत्तराखंड में ओखली को ओखल, ऊखल या उरख्याळी कहा जाता है। आज भी किसी पुराने मकान के आँगन में ओखल दिख जायेगा। आज यह घर के आँगन में बरसाती मेढ़कों के आश्रय-स्थल से ज्यादा कुछ नहीं लगते हैं। एक समय था जब ओखल का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान हुआ करता था, हमारे आँगन का राजा हुआ करता था। ओखली को और नामों से भी जाना जाता है। कहीं इसे ओखल तो कहीं खरल कहा जाता है। अंग्रेज़ी में इसे ‘मोर्टार’ और मूसल को ‘पॅसल’ कहते हैं। पॅसल शब्द वास्तव में लैटिन भाषा के ‘पिस्तिलम’ शब्द से सम्बंधित है। लैटिन में इसका अर्थ ‘कुचलकर तोड़ना’ है। मारवाड़ी भाषा में ‘ओखली’ को ‘उकला’ तथा ‘मूसल’ को ‘सोबीला’ कहते हैं। कूटने को मारवाड़ी में ‘खोडना’ कहा जाता है।

डेढ़ दशक पहले की बात होगी उत्तराखंड के गाँवों में सभी शुभ कार्य ओखल से ही शुरू होते थे। किसी के घर पर होने वाले मंगल कार्य से कुछ दिन पहले गाँव की महिलाएं एक तय तारीख को उस घर में इकट्ठा होती थी। जहाँ सबसे पहले ओखल को साफ़ करते और उसमें टीका लगाते। टीका लगाने के बाद सबसे पहले पांच सुहागन महिलायें अनाज कूटना शुरू करती बाकी महिलाएं मंगल गीत गातीं। इसके बाद सभी महिलाएं और लड़कियाँ मिलकर अनाज, मसाले आदि कूटने और साफ़ करने का काम करती। गढ़वाल क्षेत्र में तो ओखली का आज भी मांगलिक कार्य में बहुत अधिक महत्त्व है। गढ़वाल में ओखली को उरख्याली (उरख्याळी) और उसके साथी मुसल को गंज्याळी (गंज्याळी) कहते हैं। आज भी गढ़वाल के गाँवों में मांगलिक कार्य में प्रयोग होने वाली हल्दी उरख्याली में ही कूटी जाती है।पुराने समय में पूरे गांव की एक संयुक्त छत के नीचे कई सारी ओखलियाँ हुआ करती थी। आठ बाई छह के इन कमरों में एक से अधिक ओखल हुआ करते थे। इस कमरे को ‘ओखलसारी’ कहा करते थे।

ओखल उत्तराखंड के जन से बड़े गहरे रूप से जुड़ा है। ओखल को पत्थर के अलावा बांज या फ्ल्यांट की मजबूत लकड़ी से बनाया जाता है। पत्थर से बने ओखल में पत्थर का वजन 50-60 किलो होता है। जिसे डांसी पत्थर कहते हैं। ओखल का पत्थर चौकोर होता है जिसे किसी आँगन में नियत स्थान पर गाढ़ा जाता है। ओखली के चारों ओर पटाल बिछा दिये जाते हैं।ओखल ऊपर से चौड़ा और नीचे की ओर संकरा होता जाता है। जो कि सात से आठ इंच गहरा होता है। दिवाली में इसकी लिपाई पुताई की जाती है और इसके पास एक दीपक जलाया जाता है। कहा जाता है कि यह दीपक अपने पितरों के लिए जलाया जाता है। ओखल में कूटने के लिए एक लम्बी लकड़ी का प्रयोग किया जाता है जिसे मूसल कहते हैं। मूसल साल या शीशम की लकड़ी का बना होता है। मूसल की गोलाई चार से छ्ह इंच होती है ओर लंबाई लगभग पाँच से सात फीट तक होती है। मूसल बीच में पतला होता है ताकि उसे पकड़ने में आसानी हो। मूसल के निचले सिरे पर लोहे के छल्ले लगे होते हैं। जिन्हें सोंपा या साम कहते हैं। इनसे भूसा निकालने में मदद मिलती है।

ओखल में महिलायें छिल्के वाले अनाज और मसाले कूटती हैं। धान ओखल में कूटा जाने वाला एक प्रमुख अनाज है। महिलायें धान को ओखल में डालती हैं और मूसल से अनाज पर चोट करती है। जब मूसल की चोट से धान बाहर छलकता है तो उसे महिलाएं पैरों से फिर से ओखल में डालती हैं। उत्तराखण्ड में धान को कूटकर खाज्जि, सिरौला, च्यूड़े आदि बनाये जाते हैं। पहाड़ में महिलाओं का जीवन हमेशा कष्टकर रहा है। च्यूड़े, खाज्जि जंगल में उनके भोजन के पुराने साथी रहे हैं। पुराने ज़माने में पहाड़ के घरों में सास का खूब दबदबा रहता था। परिवार में बहुओं की स्थिति बड़ी ही दयनीय हुआ करती थी। भर-पेट खाना तक बहुओं को नसीब न था। ऐसे में बहुएं धान को कूटते समय कुछ चावल छुपा कर रख लेती और जंगलों, खेतों में अपनी सहेलियों और साथियों के साथ यह चावल खाती इसे ही खाजा कहते थे।

आज भी पहाड़ में भाई-दूज के त्यौहार के दिन बहिनें अपने भाई का सिर च्युड़े से पूजती हैं। उत्तराखंड में आज अधिकांश घरों में इसकी जगह पोहा प्रयोग में लाया जाता है। च्यूड़ा बनाने के लिए कच्चे धान को पहले तीन-चार दिन पानी में भिगो कर रखते हैं। फिर इसे भूनते हैं और साथ में ही इसे कूटते हैं। जब दो औरतें बारी-बारी से एक साथ ओखल में धान कूटती हैं तो इसे दोरसारी कहते हैं। च्यूड़ा बनाने के लिए कम से कम तीन लोगों का एकबार में होना जरुरी है। एक धान भूनने के लिए, एक कूटने के लिए और एक ओखल में अड़ेलने (करची से हिलाना) के लिए। कच्चे धान को सीधा भूनकर भी सुखाया जाता है। इसे सिरौला कहते हैं। इसे साल में जब भी खाना हो उससे पहले इसे ओखल में कूट लिया जाता है। ओखल में जानवरों के लिए बनाये डाले में डाली जाने वाली का सिन्ने की पत्तियों को भी कुटा जाता है।

आजकल ओखल का प्रयोग सबसे ज्यादा इसी काम के लिए किया जाता है। मशीनों के आने से ओखल हमारे घरों से गायब हो गए हैं। गाँवों में सन् 2000 के बाद बने किसी घर में शायद ही किसी में ओखल भी बनाया हो। भले आज उत्तराखंड के गांवों से लोग पलायन करते जा रहे हैं लेकिन इस परम्परा की यादें आज भी दिल में बसी हैं। आज केवल यादें ही शेष रह गई हैं। मशीनीकरण के दौर और बदलती जीवन शैली के चलते पहाड़ी संस्कृति की प्रतीक ओखली विलुप्त होने के कगार पर है। ऐसे में अब शायद किताबों में ही ओ से ओखली देखने को मिल पाएगी। खास खबर पहाड़ के गांव में अनाज कूटने की चक्की पहुंचने से अब गांवों में भी ओखली और मूसल की धमक कम सुनाई देती है। आगाज फैडरेशन के अध्यक्ष ने बताया कि उनकी संस्था ने कुछ साल पहले लाटा गांव से गोपेश्वर चमोली तक एक सर्वे किया था। पहले क्षेत्रों में चूल्लू, भंगजीरे आदि का तेल भी ओखली में निकाला जाता था।

गाँव की डीजल व बिजली से चलने वाली चक्की पर निर्भरता कम थी, लेकिन अब ओखली का इस्तेमाल कम होने से डीजल चक्की अधिक देखने को मिल रही है। क्षेत्र में 73 चक्कियां चल रही हैं, जो कि प्रदूषण का बड़ा कारक है। ओखली में धान कूटकर निकाले गए चावल को ही नौ ग्रहों की पूजा और पुरोहित को आबदेब दिए जाने के लिए प्रयोग किया जाता है। परंपरा के अनुसार पूर्व में जिन क्षेत्रों में धान नहीं होते थे, वहां के लोग ग्रामीण क्षेत्रों से ओखली में कूटकर इन चावलों को मंगाते थे। तब शुभ कार्यों में इन्हीं का प्रयोग भी करते थे। इस चावल में लक्ष्मी का वास माना जाता है। समय के साथ परंपराएं बदली और जगह जगह मशीनें लगी तो खासकर नगरीय क्षेत्रों के लोग इस परंपरा से विमुख होते चले गए। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों ने आज भी इस परंपरा को सामूहिक रूप से जीवंत बनाए रखा है। वह आज भी इसका निर्वहन कर रहे हैं। ओखली के संरक्षण और इसके महत्व को समझने की आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ियों को इस सांस्कृतिक धरोहर का अनुभव हो सके। इसके लिए स्थानीय स्तर पर जागरूकता फैलाना और पारंपरिक तकनीकों को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।

लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है।

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