आह! दरक रहे रैणी से गौरा देवी की ‘स्मृतियों का विस्थापन’

आह! दरक रहे रैणी से गौरा देवी की ‘स्मृतियों का विस्थापन’

Guest Article by पद्मश्री कल्याण सिंह रावत, पर्यावरणविद् एवं मैती आंदोलन के प्रणेता I

गौरा देवी के चिपको आंदोलन में शामिल रही महिलाओं ने साल 2010 में ‘चिपको स्मृति यात्रा’ के दौरान एक धार में खड़े होकर ऋषिगंगा में बन रही जल विद्युत परियोजना को दिखाते हुए कहा था कि यह हमारे विनाश का कारण बनेगा। हमारे सारे पेड़ काट दिए गए हैं और हमारा गांव अंदर ही अंदर से खोखला हो गया है। गौरा देवी के साथ प्रमुख रूप से कार्य करने वाली तथा गौरा देवी की सहेली श्रीमती बटनी देवी ने कहा था कि हमने कितना समझा दिया है इनको, पर ये समझते ही नहीं। सरकार भी हमारी कुछ सुनती नहीं, हम क्या करें?

 

पूरे विश्व को चिपको का मूल मंत्र देने वाली चिपको आंदोलन की नायिका स्व. गौरा देवी की धरती आज अशांत है। यहां हो रही प्राकृतिक हलचलें लोगों को भयभीत करने लगी हैं। प्राकृतिक संसाधनों को अपनी असली पूंजी समझने वाले और अपने पारिस्थितिकी तंत्र से ताल-मेल बिठाकर जिंदगी जीने वाले रैणी गांव के लोग लगातार प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेल रहे हैं। जून माह के दूसरे सप्ताह से हो रही लगातार अतिवृष्टि ने फिर से ऋषिगंगा के स्वरूप को डरावना बना दिया। नदी के लगातार बहाव से रैणी गांव का निचला हिस्सा, मोटर मार्ग का काफी बड़ा हिस्सा खिसक गया है। नया बना संपर्क पुल का एक स्तंभ भी पानी के कटाव से खतरे की जद में आ गया है, जिससे आवागमन रोक दिया गया है। ऋषिगंगा से बड़े क्षेत्र में भूस्खलन का खतरा और बढ़ गया है। रैणी गांव पहले ही खतरे के जद में था, अब वहां अधिक खतरा बढ़ने से प्रशासन की ओर से उन्हें तपोवन विस्थापित करने की पहल शुरू कर दी गई है। कुछ लोग तो अपने रिश्तेदारों के यहां जाकर पनाह ले चुके हैं। लेकिन सौ-एक लोग अब भी अपने गांव को छोड़कर आने को तैयार नहीं हैं। उन्हें अपने काम, अपने पशुओं की ज्यादा चिंता सता रही है। ये हिमालयी लोग पशुपालन के बल पर ही अपनी आजीविका चलते हैं। पशुओं के लिए चारा-पत्ती सबसे बड़ी समस्या है। रैणी गांव के साथ-साथ यहाँ के परितंत्र और परिस्थितियों के अनुरूप ढलने के यह आदी हो चुके हैं।  इन्हें अब दूसरी जगह  पर प्राकृतिक संसाधनों, उपलब्ध व्यवस्थाओं की चिंता ज्यादा है। इनके सामने अब सबसे बड़ी समस्या खड़ी है कि वे जाएं तो जाएं कहां?  जिन लोगों के रग-रग में प्राकृतिक प्रेम समाया हुआ हो, अपने जल, जंगल और जमीन, पुस्तैनी धरोहर संजोये हुए हों, वे भला यहां से दूर जाने में कैसे सुकून मान सकते हैं। यही वनों का प्रेम था कि गौरा देवी के नेतृत्व में यहां महिलाओं ने दुनिया को चिपको का मूल मंत्र देकर वन संरक्षण का पाठ पढ़ाया था।

1974 में चिपको आंदोलन की सफलता के बाद से यहां की महिलाएं, अपने प्राकृतिक संसाधनों की चिंता ज्यादा करने लगी थीं। ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना का यहां की महिलाओं और लोगों के खुलकर विरोध किया था। वे इस लड़ाई को सुप्रीम कोर्ट तक भी ले गए थे। इस प्रोजेक्ट के तहत रैणी गांव के निचले हिस्से में बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए थे। पेड़ इतनी चालाकी से कटे गए थे कि यहां की महिलाओं को भनक तक नहीं लगी। लगातार सुरंग बनाने में हो रहे विस्फोटक पदार्थों के धमाकों ने इनके मकानों में दरार तक डाल दी थी। ये लोग बड़े भयभीत होकर जीवन-बसर कर रहे थे। समय-समय पर भारी विरोधों ओर आंदोलन के चलते भी इस प्रोजेक्ट का कार्य आगे बढ़ता रहा।

वर्ष 2010 में गौरा देवी के स्मारक स्थल रैणी में एक चिपको उत्सव मनाने का कार्यक्रम था। 26 मार्च 2010 को हम रैणी पहुंचे और ग्रामीणों के साथ चिपको उत्सव मनाया। उस आयोजन की सबसे बड़ी बात यह थी कि गांव सभी महिलाएं जो गौरा देवी के साथ चिपको आंदोलन में सम्मिलित रही थी पुनः गांव से चार किमी ऊपर पंगराणी के जंगल तक पैदल गई थी और उन्होंने उन पेडों ओर आलिंगन किया था, जिन्हें उन्होंने 26 मार्च 1974 को बचाया था। इस आयोजन का नाम ‘चिपको स्मृति यात्रा’ दिया गया था। रास्ते मे चलते समय जब मैं इनके साथ चिपको की बारीकियों पर बात कर रहा था तब इन्होंने एक धार में खड़े होकर ऋषिगंगा में बन रहे जल विद्युत परियोजना को दिखाते हुए कहा कि यह हमारे विनाश का कारण बनेगा। हमारे सारे पेड़ काट दिए गए हैं और हमारा गांव अंदर ही अंदर से खोखला हो गया है। गौरा देवी के साथ प्रमुख रूप से कार्य करने वाली तथा गौरा देवी की सहेली श्रीमती बटनी देवी ने कहा था कि हमने कितना समझा दिया है इनको, पर ये समझते ही नहीं। सरकार भी हमारी कुछ सुनती नहीं,  हम क्या करें? उन्होंने रास्ते में बड़े-बड़े तरासे गए पत्थरों के ढेर भी मुझे दिखाए और कहा कि यह भूमाफियाओं की करतूत है, जो हमारे जंगल कर पत्थरों को निकाल कर बेच रहे हैं। पंगराणी जंगल मे पहुंचकर तीस महिलाओं और पुरुषों के दल ने उन पेड़ों की पूजा की जिन्हें उन्होंने चिपको आंदोलन के दौरान बचाया था। उन्होंने मुझे पेड़ों पर कुल्हाड़ी के लगे घाव भी बताए। अस्सी वर्षीय अमृता देवी की आंखों से तो आंसू छलक पड़े थे।

27 मार्च 2010 को ‘वर्ल्ड अर्थ ऑवर डे’ मनाया जाना था। 91 देशों के लोग 8:00 बजे से एक घंटे के लिए अपने-अपने घरों का प्रकाश बुझाकर ऊर्जा बचाने का संकल्प लेने वाले थे। रैणी गांव की महिलाओं के साथ बातचीत करके हमने तय किया कि हम इस अवधि में मशाल जलाएंगे था भैलो खेलेंगे ताकि जब पूरी दुनिया अंधेरे में होगी तब हमारे हिमालय से हमारा प्रकाश दुनिया को दिखाई देगा। हम उनका ध्यान हिमालयवासियों, हिमालय की समस्याओं और हिमालय को बचाने के लिए आकृष्ट करेंगे। 27 मार्च को गांव की सभी महिलाएं, पुरुष एक चौक में एकत्रित हुए और सबने मशाल जलाकर भैलो खेला। सबने हिमालय को बचाने और जंगलों को आग से बचाने का संकल्प किया।  गौरा देवी के स्मारक के पास जाकर गौरा देवी की चिपको सहेलियों ने दीप जलाकर उन्हें याद किया। अपने जल-जंगल और जमीन कि चिंता करने वाले और हिमालय के मिज़ाज को करीब से जानने वाले इन लोगों को हिमालय से अलग नहीं किया जा सकता। इन्हें हिमालय के ही करीब  इसी प्रकार के मिले-जुले पारिस्थितिक तंत्र, सदृश्य सुरक्षित स्थान की तलाश कर स्थापित किया जाना आवश्यक होगा ताकि इनकी संस्कृति, परंपरा के साथ-साथ हिमालय भी सुरक्षित रह सके।

यह समय केवल ऋषिगंगा और केदारनाथ आपदा पर सोचने का नहीं, बल्कि पूरे हिमालय के बदलते व्यवहार और स्वरूप को गहराई से मंथन करने का है। उत्तराखंड में समय-समय पर आ रही आपदाएं हमें बार-बार आगाह कर रही हैं। हिमालयी क्षेत्र इस समय कई तरह की धार्मिक, सामरिक और पर्यटन संबंधित गतिविधियों की दिशा में बढ़ रहा है।  उत्तराखंड हिमालय अभी बनने की प्रकिया से गुज़र रहा है। इसका मिजाज़ अभी नाज़ुक है। भारी-भरकम योजनाओं का भार अभी यह क्षेत्र नहीं सहन कर सकता है। विशेषज्ञ भी यही मान रहे हैं कि इस संवेदनशील भू-भाग में संभव हो तो बड़े निर्माण कार्यों से बचा जाना चाहिए। राज्य में इस समय चार हज़ार मेगावाट क्षमता वाले छोटे-बड़े कुल 36 प्रोजेक्ट पहले ही गतिशील हैं जबकि दो हज़ार मेगावाट के लगभग नौ अन्य प्रोजेक्टों पर कार्य चल रहा है। 34 प्रोजेक्ट कतिपय कारणों से अधूरे लटके हुए हैं। सत्तर अन्य पावर प्रोजेक्ट अंतिम मजूरी के लिए भटक रहे हैं। इनमे लगभग 90 प्रतिशत प्रोजेक्ट पहाड़ी जिलों में स्थित हैं। भारी-भरकम पैसा बहाकर जब हिमालय की गोद में हाइड्रो प्रोजेक्ट ढोये जाते हैं तो देर सबेर इनका यही हश्र होता है, जो ऋषिगंगा  तथा तपोवन-विष्णु प्रयाग सहित कई प्रोजेक्टों का हुआ है। अब वक्त आ गया है कि ग्रेटर हिमालय क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों पर लगाम लगाई जानी चाहिए।

एक दशक का वातावरणीय मिजाज यही संकेत दे रहा है कि वैश्विक गर्मी के प्रभाव से अब हिमालय भी अछूता नहीं है। हर साल बादल फटने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। विशेषकर हिमालय की ‘वी’ आकार की घाटियों में ये घटनाएं अधिक हो रही हैं। ग्लेशियरों का पिघलकर जलाशयों का रूप ले लेना,  ज्यादा घातक सिद्ध हो रहा है। हिमालय क्षेत्र में मानवीय हस्तक्षेप बढ़ना भी एक कारण है। इसलिए प्राकृतिक आपदाओं में खड़े इस हिमालयी राज्य को विकास की परिभाषा को फिर से लिखनी होगी। राज्य का विकास न रुके इसलिए सावधानीपूर्वक कदम रखने की जरूरत है। हिमालयी क्षेत्र में नदियों के तेज़ ढलान होने के कारण जल विद्युत परियोजनाओं में अधिक उत्पादन की क्षमता होती है। इन परियोजनाओं को ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों में स्थापित करने की यही अहम वजह है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि अधिक उत्पादन के लालच में हम लागत से अधिक हानि का जोखिम उठा रहे हैं।

रैणी की आपदा अभी टली नहीं है, यह अब धीरे-धीरे गंभीर रूप लेती जाएगी। 7 फरवरी के बाद 13 जून को एक नई झील बनने की बात सामने आई थी और अभी 17-18 जून को भारी बाढ़ से सड़क सहित पुल को क्षति पहुंची है। अब गांव में गौरा देवी का स्मारक हटाकर तथा कई मकानों को तोड़कर सड़क बनाने का कार्य चल रहा है। गौरा देवी की मूर्ति को जोशीमठ स्थापित करने की बात चल रही है। विडंबना है कि ऋषिगंगा गौरा देवी के चिपको आंदोलन की धरती का भूगोल बदलने पर तुली हुई है, जबकि संस्कृति और परंपराएं आस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं।   अच्छा यही होगा कि राज्य में एक ग्लेशियर मॉनिटरिंग सिस्टम तैयार किया जाए, जो समय-समय पर हिमालय में हो रहे परिवर्तनों की जानकारी देता रहे। ग्लेशियर नदियों के उद्गम स्थलों के समीप  भारी-भरकम  प्रोजेक्टों को मंजूरी नही दी जानी चाहिए। हिमालयी क्षेत्रों में प्रस्तावित हर निर्माण कार्य को भू-गर्भीय जांच एवं स्वीकृति के बाद ही कार्यन्वित किया जाना चाहिए। हिमालयी क्षेत्र में मानवीय हस्तक्षेप को सीमित होना चाहिए।

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