उत्तराखंडी टोपी की इंटरनेशनल ब्रांडिंग, एक दिन में निकल रहा एक महीने का स्टॉक

उत्तराखंडी टोपी की इंटरनेशनल ब्रांडिंग, एक दिन में निकल रहा एक महीने का स्टॉक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाव-भाव, पहनावे से जुड़ी हर बात उन्हें दूसरों से अलग करती है। साल 2014 में देश की कमान संभालने के बाद से गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर उनका पहनावा और सिर पर बांधी जाने वाली पगड़ी चर्चा का विषय रही है। लेकिन इस गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री मोदी पगड़ी की जगह एक खास तरह की टोपी पहने नजर आए। यह उत्तराखंड की पारंपरिक टोपी थी, जिस पर चार रंगों की एक तिरछी पट्टी और उत्तराखंड का राज्य पुष्प ब्रह्मकमल लगा हुआ था। बस पीएम मोदी की ‘ब्रांडिंग’ ने उत्तराखंड की इस पारंपरिक टोपी को वैश्विक पहचान दिला दी है। आज यह टोपी इतनी डिमांड में है कि इसे तैयार करने वाले कारीगर मांग पूरी नहीं कर पा रहे हैं।

उत्तराखंड भले ही 53483 वर्ग किलोमीटर में फैला एक छोटा सा पहाड़ी सूबा हो लेकिन अपनी बोली, भाषा और पहनावे को लेकर तमाम विविधताओं से भरा है। यहां के हर इलाके का एक अलग पहनावा है लेकिन साझा है तो सिर पर एक खास तरह की टोपी पहनने की परंपरा। उत्तराखंड की इसी परंपरा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गणतंत्र दिवस पर विशिष्ट सम्मान दिया। पीएम मोदी जब राजपथ पर पारंपरिक उत्तराखंडी टोपी पहने दिखे तो देवभूमि का हर नागरिक गर्व से भर गया। नतीजा यह हुआ कि ‘मोदी स्टाइल ब्रांडिंग’ के बाद उत्तराखंडी टोपी की वैश्विक मांग बढ़ गई है।

पीएम मोदी ने गणतंत्र दिवस पर जो टोपी पहनी उसमें चार रंग की एक पट्टी बनी हुई थी। दरअसल यह जीव, प्रकृति, धरती, आसमान के सामंजस्य का प्रतीक है। इसके साथ ही टोपी पर ब्रह्मकमल लगा हुआ था। यह फूल विशेषरूप से केदारनाथ को अर्पित किया जाता है। इसलिए इसे देवपुष्प भी कहते हैं। पीएम मोदी के लिए इस टोपी को मसूरी के सोहम हिमालयन सेंटर से भेजा गया था। इस सेंटर को समीर शुक्ला और उनकी पत्नी कविता शुक्ला संचालित करते हैं। इन टोपियों को स्थानीय कारीगरों द्वारा तैयार किया जाता है। पीएम मोदी ने जो टोपी पहनी वह उनके सेंटर के साथ जुड़े मसूरी के कारीगर जगतदास ने तैयार की। इस टोपी में पहले सिलाई का काम होता है और उसके बाद हाथ से पट्टी पर काम किया जाता है।

 

इस टोपी के अस्तित्व में आने की कहानी बड़ी दिलचस्प है। समीर शुक्ला ने हिल-मेल को बताया कि हम लोग 1996 से उत्तराखंड की संस्कृति पर काम कर रहे हैं। सोहम हिमालयन सेंटर के नाम से। जब साल 2000 में उत्तराखंड राज्य बन गया तो हमें वो हर चीज चाहिए थी, जिसके केंद्र में उत्तराखंड हो। उस लिहाज से बहुत सारी चीजें थीं, हमने सभी पर काम किया। हमें पूरा हिमालय घूमते-घूमते यह लगा कि सब प्रदेशों के अपनी पहचान के तौर पर वस्त्र हैं। तो उत्तराखंड का भी कुछ अलग होना चाहिए। जब यह चीज दिमाग में बैठ गई तो 2017 में हमने इस बात पर फोकस किया कि उत्तराखंड से एक ऐसी चीज बनाई जाए, जो पारंपरिक तो हो ही, लेकिन यूथ को भी कनेक्ट करे।

गढ़वाल और कुमाऊं में काले रंग की टोपी पहनी जाती है, कुमाऊं में कुछ जगह लोग सफेद रंग की भी टोपी पहनते हैं। तो इसका बेसिक डिजाइन एक कोने से दूसरे कोने तक सर्वामान्य है लेकिन इसको या तो बुजुर्ग पहन रहे थे या गांव के लोग। बाकी लोग कभीकभार किसी खास मौके पर इन टोपियों को पहन लेते थे। यूथ इसकी ओर आकर्षित नहीं हो रहा था। या कहें इसे गर्व के तौर पर नहीं स्वीकार रहा थआ। चूंकि हम आर्टिस्ट हैं और कला पर काम करते रहे हैं तो हमें लगा कि कुछ ऐसा ऐड किया जाए कि इसमें प्राइड का एलीमेंट जुड़ जाए। इस पर काफी सोच विचार करते हुए दो चीज आईं। सबसे पहले एक तिरछी पट्टी आई। इसके अलावा कई प्रयोग किए लेकिन लगा कि कांप्लीकेटेड नहीं होना चाहिए। टोपी अच्छी भी लगनी चाहिए। प्रयोग करते-करते एक चार रंग की पट्टी लगाई गई। फिर आया कि एक ब्रह्मकमल होना चाहिए। इसका एक खास कारण भी है, क्योंकि यह हमारे लिए देवपुष्प है। हम शिवभक्त हैं तो लगा कि केदारनाथ में चढ़ाए जाने वाले ब्रह्मकमल से अच्छा कुछ नहीं हो सकता। यह हमारा राज्य पुष्प भी है। इसके बाद 9 नवंबर 2017 के उत्तराखंड दिवस के दिन को इस टोपी को लांच किया गया।

दिवंगत सीडीएस जनरल बिपिन रावत ने सबसे पहले टोपी को सराहा

समीर शुक्ला बताते हैं कि हमने पहली लॉट में पहाड़ के उन सभी लोगों को ये टोपी भेजी जो अच्छी पोजीशन पर थे, जैसे एनएसए अजीत डोभाल, जनरल बिपिन रावत और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री। सबसे पहले एकनॉलेजमेंट जनरल बिपिन रावत का आया था। तो वहां से सिलसिला शुरू हो गया। इसके बाद हमने प्रवासी उत्तराखंड के लोगों को टॉरगेट किया। ये लोग दूर रहकर भी पारंपरिक चीजों के लिए योगदान देते हैं। समीर शुक्ला के मुताबिक, मसूरी में इस टोपी को फैलाने में समय लगता, इसलिए उन्हें लगा कि मुंबई या विदेश में फैलाना ज्यादा अच्छा होगा, क्योंकि दूर बैठा व्यक्ति इसको जल्दी से ग्रैब करता है। पांच साल से यह अपवर्ड ट्रेंड है, चाहे कोविड ही क्यों न हो, कुछ चीजें जरूर रुकी लेकिन पहले लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर फिर बल्क में मंगानी शुरू कर दी। बाहर से डिमांड आने लगी कि हमें लेडीज की इतनी और जेंट्स की इतनी टोपी चाहिए। इस तरह से टोपी का प्रमोशन बराबर होता रहा और बढ़ता रहा। 2017 से अभी तक जितने भी सीएम हुए सभी ने किसी न किसी अवसर पर इस टोपी को पहना। पीएम मोदी के पहनने से पहले ऋषिकेश में एक शादी थी, वहां इस टोपी को पहनना कंपलसरी था। ऐसे बहुत से अवसर आए जब यह सेरेमोनियल पहचान बनई गई। मैं 26 जनवरी से पहले की बात कर रहा हूं।

कोविड के दौरान जमा स्टॉक 10 दिन में निकल गया

समीर बताते हैं कि कोविड के दौरान हमारे पास गांव के पारंपरिक कारीगर थे। हमने कोशिश की कि हर महीन एक मिनिमम क्वांटिटी में टोपियां बनाते रहें और हालत यह हो गई थी कि कोविड के दो दौर में मेरे कमरे भर गए थे। लेकिन जब 26 जनवरी को जब पीएम मोदी ने इस टोपी को पहना तो साल भर का स्टॉक 10 दिन में ही निकल गया। जब इरादे ठीक हों तो कुछ काम हो ही जाता है। उस समय टोपियां इसलिए भी बनती रहीं कि कपड़ा भी मेरे पास था और कारीगर भी काम मांग रहे थे तो मैंने काम उनसे हर महीने करवाया। चाहे बिके या न बिके। अब जो स्टॉक था वो निकल गया अब मांग ज्यादा है और चीज हमारे पास कम है।

पीएम मोदी तक कैसे पहुंची टोपी?

समीर शुक्ला ने बताया कि मैं जो भी चीज बनाता हूं, उत्तराखंड पर केंद्रित होती है। मैंने हमेशा इन्हें सारे उपलब्ध मीडियम से जोड़ा। चाहे वह सरकार के पोर्टल हों या स्टॉर्टअप इंडिया। मैं कम्युनिकेशन में हर चीज रखता हूं। चाहे वो देखी जा रही हैं या नहीं। मैंने हर चीज को अपडेड किया, चाहे सोशल मीडिया का कोई भी प्लेटफार्म हो, चाहे पीएम मोदी को टैग करना हो। हमारे तमाम बड़े लोग पहन रहे थे, ऐसे में किसने रिकमंड किया मुझे नहीं पता। मुझे एक दिन पीएमओ से फोन आया कि ये खास साइज है और इसमें आप जितने भी सेड्स दे सकते हैं दे दीजिए। इसके बाद एक आदमी आया और उसको मैंने 6 सेड्स दिए। मुझे लगा कि इलेक्शन आ रहा है, बहुत सी रैलियां होनी हैं इसके लिए चाहिए होंगी। मुझे यह बिल्कुल ही पता नहीं था कि वह इस टोपी को 26 जनवरी को पहनने जा रहे हैं। हां ये बात तो पता थी कि वह इन्हें पहनेंगे जरूर। टोपी कौन ले गया, यह न बताने का प्रोटोकॉल है।

 

टोपी का साइज क्यों बदला?

आमतौर पर उत्तराखंड की टोपी तीन अंगुल की नाप की बनती है, ऐसे में आपकी टोपी का साइज बड़ा है, जब हिल-मेल ने यह सवाल समीर शुक्ला से किया तो उन्होंने बताया कि श्रीनगर यूनिवर्सिटी के रिटायर प्रोफेसर डीआर पुरोहित की सलाह पर ऐसा किया। उन्होंने कहा कि मैं उन्हें काफी नॉलेजेबल इंसान मानता हूं, मैंने जब यह टोपी उन्हें दी तो उन्होंने कहा कि इसका पटका साढ़े तीन इंच कर दो, ताकि ये सिर पर कस जाए। दरअसल, पहले क्या था कि जब हम लोग टोपी पहनते थे तो पैदल चलते थे। ऐसे में सिर पर रखी टोपी गिरती नहीं थी। अब लोग मोटरसाइकिल या स्कूटर पर चलते हैं तो इसका सिर पर कसे रहना जरूरी है। हमने उनके सुझाव पर ऐसा किया था, मुझे भी लगा कि यह ठीक है। पहले पौने तीन इंच और अब तीन साढ़े इंच कर रहे हैं।

 

2017 से 2022 तक नहीं बढ़ाए दाम

समीर बताते हैं कि हमने साल 2017 में टोपी का जो दाम रखा था, 2022 में भी वही है। 250 रुपये आलवेदर और 350 रुपये वूलन। दरअसल, हमारे पास कपड़ा काफी स्टोर था। हमने तय किया कि जब तक हमको सामान मंहगा नहीं मिलेगा हम इसी रेट पर देंगे। हमारा मकसद पहले टोपी को एक पहचान देना था। मुझे चंपावत से लेकर उत्तराकाशी तक कई दुकानदारों के फोन आए, वो अपनी दुकानों में टोपी रखना चाहते हैं। यह एक अच्छा संकेत है। इसके लिए हम अपने यहां परंपरागत टेलर को बढ़ा रहे हैं। वह मेरे लिए थोड़ा कठिन पड़ रहा है लेकिन मैं यह नहीं चाहता कि ‘वोकल फॉर लोकल’ की थीम को हल्का कर दूं। कोशिश यही है कि हमारे पास जो मार्जिलाइज्ड टेलर हैं, उनको अपने साथ रखूं। मैं कोशिश भी कर रहा हूं। चूंकि ये सबकुछ ऐसे समय में हुआ, जब चुनाव थे, इसलिए थोड़ा प्रेशर बना गया लेकिन अब सब कुछ स्टेबल हो जाएगा और उसके बाद हमारे पास जो भी ऑर्डर आएंगे हम उसको पूरा कर लेंगे। अब इसका प्रचार इतना हो गया है कि डिमांड बढ़ती ही जाएगी। मेरे पास कर्णप्रयाग, रूद्रप्रयाग, धारीदेवी, गौचर, चंपावत, रानीखेत सब जगह से लोग छोटी क्वांटिटी में लगातार ले रहे हैं। इनमें से बहुत से लोग पहले भी ले रहे थे। लेकिन उनकी फ्रीक्यूंसी बढ़ी है लेकिन एक्चुअल नंबर हम तब मानेंगे जब ये दौर गुजर जाएगा।

 

एक दिन में निकल रहा एक महीने का स्टॉक

उत्तराखंडी टोपी की ऑनलाइन सेल करने वाली कंपनी टड्स लाइफस्टाइल के रमन शैली बताते हैं कि हम हर प्रकार की पहाड़ी टोपियां विगत तीन वर्षों से अपने ऑनलाइन और ऑफलाइन स्टोर पर बेच रहे थे जिसमें हिमाचली टोपियों की लगभग हमेशा से अच्छी डिमांड रहती थी। पीएम मोदी ने जब से उत्तराखंड की पारंपरिक टोपी पहनी है तो जितना वोल्यूम हम महीने में बेच पाते थे, अभी वो रोजाना निकल रहा है। हर दिन कुछ नए लोग हमसे जुड़ते हैं और नए कॉल वेबसाइट पर इन्क्वायरी करते हैं। इस वक्त पहाड़ी टोपियों और खासकर ब्रह्मकमल टोपियों के लिए बहुत डिमांड है। मेरे हिसाब से जिस तरह के रुझान थे कि इलेक्शन के बाद यह खत्म हो जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। ये लगातार चल रहा है और मेरे हिसाब से उत्तराखंड की टोपी को नई पहचान मिली है। इसमें हम और नए डिजाइन आगे लेकर आएंगे। आमतौर पर पहाड़ी टोपी की जो डिमांड थी, वह लगभग पहाड़ के लोगों और बाहर देशों में रहने वाले लोगों के बीच ही रहती थी।  उसी प्रकार का रूझान पीएम के पहाड़ी टोपी पहनने पर हमने देखा कि कई लोग जो पहाड़ के नहीं हैं लेकिन उसे वह एक पहाड़ के सिंबल के रूप में ले रहे हैं। उसे सोविनियर के रूप में ले रहे हैं। हमारे दो तीन स्टोर हैं और बाकी हमारे फ्रेंचाइजी स्टोर हैं, जहां पर अक्सर ट्रैवलर्स आ रहे तो इस टोपी को पसंद कर रहे हैं, इसकी डिमांड कर रहे हैं।

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