घर की रसोई में कभी बादशाहत हुआ करती थी कांसे के बर्तनों की

घर की रसोई में कभी बादशाहत हुआ करती थी कांसे के बर्तनों की

कांस्य अथवा कांसा एक पवित्र धातु मानी जाती है और पूजा के पात्रों तथा मंदिर की घंटियों व मूर्तियों के निर्माण में भी इसका उपयोग किया जाता है। कांसे की खनकदार आवास कर्णप्रिय, स्निग्ध व अन्य धातुओं की अपेक्षा ज्यादा तेज गूंजती है।

भुवन चंद्र पंत

पांच-छः दशक पहले तक पीतल, तांबे और कांसे के बर्तनों की जो धाक घरों में हुआ करती, उससे उस घर की सम्पन्नता का परिचय मिलता। रईस परिवारों में चांदी के बर्तनों की जो अहमियत थी, सामान्य परिवारों में कांसे के बर्तन को वही सम्मान दिया जाता। पानी के लिए तांबे की गगरी तो हर घर की शान हुआ करता। तब ’आर ओ’ व ’वाटर फिल्टर’ जैसे उपकरण नहीं थे और पानी की शुद्धता के लिए तांबे के बर्तनों का प्रयोग ही एकमात्र विकल्प था। सामान्य परिवारों में कलई की हुई पीतल की थालियां आम थी, जब कि कांसे की थालियां व अन्य बर्तन प्रत्येक घर में सीमित संख्या में होते और इन्हें सहेज कर जतन से रखा जाता।

घर में कांसे के एक दो ही बर्तन होते तो घर के मुखिया को ही कांसे की थाली में भोजन परोसा जाता। पीतल की कलई युक्त थालियों का कुछ समय प्रयोग करने के बाद उनकी कलई उतर जाती और पीतल का असली रंग उभर आता। पीतल के कलई वाले बर्तनों में अम्लीय खाना (दही, झोली आदि) खाने पर इनकी कलई उतरने के साथ इनमें खाना खाने पर पीतल की महक (पितवैन) आती जो सारे खाने को बेस्वाद कर देती, जब कि कांसा अम्लीय पदार्थों के साथ मिलकर रासायनिक प्रतिक्रिया नहीं करता। शादी आदि मौंकों पर दहेज व उपहार में पीतल, तांबे व कांसे के बर्तन देने का ही चलन था।

दहेज के बर्तन इन्हें रखने के लिए बने एक विशेष जाल में भेजे जाते। दुल्हन मायके से आने वाले बर्तनों की संख्या बताने से नहीं थकती कि मेरे दहेज में इतनी संख्या मे थाली, परात और गगरी आई थी। दहेज में रूपये-पैसों का चलन नहीं के बराबर था और गांवों में अखबार में लपेटी एक थाली को बगल में दबाकर ले जाते हुए लोग देखे जा सकते थे, यह जानने के लिए पर्याप्त था कि अमुक व्यक्ति किसी शादी समारोह में जा रहा है। नजदीकी रिश्तेदार भी भेंट स्वरूप बर्तन ही देते थे, वह अपनी सामर्थ्यानुसार परात अथवा तांबे की गगरी दहेज में भेंट करते। गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने वाले नव बर-बधू को गृहस्थी का सामान जुटाने की यह अनूठी पहल थी।

कांसे के बर्तनों की घरों में इस कदर बादशाहत थी, कि बर्तनों का नामकरण ही इस धातु के जोड़कर कर दिया गया। हमारे कुमाऊं में लोटे को ’कसिन’ बोला जाता था, जिसका नाम कांसे की होने से ही पड़ा लगता है। शुरू मे कांसे के लोटे को ही कसिन नाम दिया गया, बाद में अन्य धातुओं के लोटे ने भी यह नाम सहज स्वीकार कर लिया। इसी तरह सामाजिक उत्सवों में दाल-भात का चलन आम था और दाल प्रायः कसेरे में बनाई जाती, जो कांसे के बने होते थे। जाहिर है कसेरा नाम भी कांसे से लिया गया है। कांसे का तब कितना चलन रहा होगा कि बर्तन बनाने वाले जो तब कांसे के बर्तन बनाते होंगे उनको ही कसेरा नाम से संबोधित किया जाने लगा, लेकिन बाद में हर बर्तन व्यवसायी के लिए कसेरा शब्द आम चलन में हो गया।

कुमाऊं में शादी समारोहों के लिए एक आम शब्द चलन में है – भात- बरात। तब शादी समारोहों का मुख्य भोजन दाल-भात ही हुआ करता था। भात तांबे अथवा पीतल की बड़ी-बड़ी पतेलियों में बनता जब कि दाल के लिए कांसे का पतीला ही उपयुक्त माना जाता। कसेरा (कांसे का बड़े आकार का मोटे तले वाला पतीला) बनाने के पीछे यहीं कारण रहा होगा कि कांसे में ताप को अधिक समय तक संरक्षित करने का गुण है, इसे खड़ी दालों को गलाने में मुफीद माना जाता है। तब आज की तरह प्रेशर कूकर तो थे नहीं, कांसे के बर्तन ही मोटी दाल गलाने के लिए सबसे उपयुक्त माने जाते थे। इनमें बनी दालें सुस्वादु होने के साथ स्वास्थ्य के लिए भी अनुकूल मानी जाती थी। ये कसेरे आकार में बड़े होने के साथ-साथ इतने वजनदार होते हैं कि दो-दो आदमी मिलकर इनको चूल्हे से उतार पाते थे। आज भी पहाड़ के सुदूर गांवों में सार्वजनिक उत्सवों में कहीं कहीं ये कसेरे यदा-कदा देखने को मिल जाते हैं।

कांसा एक मिश्रित धातु है। जो तांबा व रांगा को मिलाकर तैयार किया जाता है, जिसमें तांबे व रांगे का अनुपात लगभग 80 और 20 के लगभग होता है। पीतल अथवा तांबे के समान इसमें लोच न होकर ज्यादा कठोर होता है। कांसे को संक्रमण अवरोधी तथा रक्त व त्वचा रोगों से बचाव करने के लिए जाना जाता है, बुद्धि व मेधावर्धक के साथ यकृत व प्लीहा संबंधित विकारां में भी इसे फायदेमन्द बताया गया है। गाय के घी के साथ कांसे के बर्तन को पैर के तलवों में रगड़ने से त्वचा व रंक्त जनित विकारों के उपचार में भी प्रयोग में लाया जाता है।

कांस्य अथवा कांसा एक पवित्र धातु मानी जाती है और पूजा के पात्रां तथा मंदिर की घंटियों व मूर्तियों के निर्माण में भी इसका उपयोग किया जाता है। कांसे की खनकदार आवास कर्णप्रिय, स्निग्ध व अन्य धातुओं की अपेक्षा ज्यादा तेज गूंजती है।

कांसे की थाली का भोजन पात्र के अलावा और भी कई उपयोग थे। जब गांवों में मवेशी कहीं खो जाते तो कांसे की थाली में पानी भरकर उसके बीचों बीच एक बूंद सरसों का तेल डाला जाता। सरसों के तेल की बॅूद जिस दिशा को जाती, पशु की तलाश उसी दिशा की ओर की जाती थी। यदि पानी में तेल की बूंद फट जाय तो खोये हुए पशु की मृत्यु का सूचक माना जाता। यह वैज्ञानिक आधार पर भले खरा न उतरे, लेकिन यही लोकविश्वास पर विश्वास करना उस समाज मजबूरी थी।

हमारे बुजुर्ग भले ही पढ़े लिखे नहीं थे, लेकिन ये जानते थे कि सूर्यग्रहण को नंगी आंखों से देखने पर आंखों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए बच्चे जब सूर्य ग्रहण देखने की जिद करते तो कांसे की थाली में पानी भरकर सूर्य को सीधे न देखकर कांसे की थाली में पानी पर पड़ने वाले सूर्य ग्रहण के प्रतिबिम्ब पर सूर्यग्रहण की छवि को देखा जाता।

पीलिया जैसे रोग का उपचार भी गांव-देहातों में झाड़कर ही किया जाता था। पीलिया झाड़ने के लिए भी कांसे के बर्तन में सरसों का तेल भरकर इसी में पीलिया झाड़ा जाता और तेल का पीलापन बढ़ना पीलिया के बाहर निकलने संकेत बताया जाता। धार्मिक अनुष्ठानों के लिए भी कांसे का बर्तन पवित्र माना जाता है।

आज स्टेनलैस स्टील, प्रेशर कूकर आदि के चलन से कांसे के बर्तनों का उपयोग अतीत की बात हो गयी है। चमक-धमक और दौड़-भाग भरी जिन्दगी में कांसा भले चलन से बाहर होता जा रहा है, लेकिन इसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता।

(लेखक भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृत्त हैं)

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