पर्यावरण दिवस पर विशेष : जल, जंगल, जमीन व जीवन का सवाल

पर्यावरण दिवस पर विशेष : जल, जंगल, जमीन व जीवन का सवाल

भारत को अपनी समस्याओं से पार पाने और उनके उत्तर तलाशने के लिए बार-बार गांधी की तरफ लौटना ही होगा। आने वाले कई वर्षों तक गांधी न तो राजनीति में अप्रासंगिक हो सकते हैं न ही समाजविज्ञान में। आगत समय के संकटों को लेकर उनकी चिंता और चिंतन किसी कुशल समाजशास्त्रीय से भी महत्वपूर्ण नज़र आते हैं।

डॉ. प्रकाश उप्रेती
असिस्टेंट प्रोफेसर, पीजीडीएवी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

‘पर्यावरण’ शब्द का प्रयोग भले ही गांधी के चिंतन में न हो लेकिन उन्होंने इन सब समस्याओं पर चिंता और चिंतन किया है जिन्हें आज पर्यावरण के तहत देखा जाता है। गांधी की दृष्टि एकदम साफ थी वह पर्यावरण-दोहन के खिलाफ थे। साथ ही उनका विरोध आधुनिक ‘गमला संस्कृति’ से भी था। गांधी के लिए ‘पर्यावरण’ जीवन से अलग नहीं था। वह इसे ‘नैतिक चेतना’ से जोड़ने पर बल देते थे, संयम, स्वावलंबन, संरक्षण और स्वच्छता उसी चेतना के अंग हैं।

मनुष्य और प्रकृति का सहचर का संबंध है। सभ्यता के विकास के साथ यह संबंध कमजोर होता गया। हमारे देश में जल, जंगल और जमीन भारतीय संस्कृति और पवित्रता के प्रतीक माने जाते हैं। नदियों को देवतुल्य सम्मान देकर पूजा जाता है, जमीन को मां का दर्जा दिया जाता है और वनों को पूजा जाता है जबकि आधुनिक जीवन शैली ने इन शब्दों के मायने बदल दिए हैं। इन तीनों के साथ खिलवाड़ और व्यक्तिगत लालसाओं के चलते प्रकृति को हम संरक्षित करने के बजाय नष्ट करने में लगे हैं जिसका नतीजा है कि प्रकृति हमारे खिलाफ खड़ी नजर आती है। वन खत्म हो रहे हैं या किए जा रहे हैं, जल स्तर लगातार गिर रहा है, नदियां सूख रही हैं, जो कुछ बची हैं वह प्रदूषित हो गई हैं या बड़ी-बड़ी कंपनियों के कब्जे में हैं। जमीन का अंधाधुंध अधिग्रहण और कॉर्पोरेट भूमाफियों की सांठ-गांठ से आम लोग तो विस्थापित हो ही रहे हैं साथ ही जमीन भी धीरे-धीरे खत्म हो रही है।

प्रकृति पर आधारित संघर्ष की घटनाएं भारत में बढ़ती जा रही हैं। इसका बड़ा कारण आधिपत्य का भाव है। साथ ही वन, भूमि, जल और मत्स्य क्षेत्र पर हक़ जताने की कवायद से जुड़ा है। यह हक जताने की कवायद आज संघर्ष में तब्दील हो चुकी है। दरअसल यह संघर्ष खास वर्ग की लालसा, सरकारी नीतियों और संसाधनों पर कब्जे से उत्पन हुआ है। देश के 80 % संसाधनों पर 20 % का कब्जा है वहीं देश की 80 % जनता के पास केवल 20 % संसाधन ही हैं, यही विषमता और खास वर्गों की हितकारी नीतियों ने प्राकृतिक संसाधनों को दिनों-दिन नष्ट करने में अहम भूमिका निभाई है। परंतु आरंभ से ऐसा नहीं था।

इस जमीन पर मानव जाति के पदचिह्न बहुत पुराने हैं। कई युग पहले ही भारत ने प्राकृतिक वन भूमि की स्थिति को त्याग दिया था। 10,000 साल पहले, प्रस्तर युग में ही विन्ध्याचल के पहाड़ों में जंगली सूअर और हिरणों का शिकार, मधु संग्रहण और सपाट मैदानों के निवासियों के साथ व्यापार आम बात थी। भोपाल के पास गुफाओं में पाई जाने वाली चित्रकारी इस बात का सबूत हैं। पांच हजार साल पहले विंध्य के पशुपालक भेड़ों के लिए कटघरा बनाने के लिए ताल के पेड़ काटते थे और अपने को गर्म रखने के लिए उपले जलाते थे। मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे पर निर्भर थे।

आरंभ में प्रकृति के साथ मनुष्य का रिश्ता ‘उपयोग’ था न की आज कि तरह ‘उपभोग’ का। जैसे-जैसे आबादी बढ़ने लगी प्रकृति और मनुष्य का रिश्ता कमजोर होता गया। हमने आज प्रकृति को अपनी मुट्ठी में कर रखा है और उसका संरक्षण करने के बजाय भरपूर दोहन कर रहे हैं। यह दोहन औपनिवेशिक काल से आरंभ हुआ और बदस्तूर आज तक जारी है। अगर हमें एक ऐसी मशीन मिल जाए जिसमें बैठकर समय की सैर कर सकें और 18वीं शताब्दी के बीच के भारत की झांकी को देखकर तुरंत दो शताब्दी आगे पहुंचें तो हमें एक ऐसा उपमहाद्वीप दिखाई देगा जहां पानी और भूमि का चेहरा पूरी तरह बदल गया है। इस बदलाव के पीछे उपनिवेशी मानसिकता और मनुष्य की असीमित लालसों की बड़ी भूमिका है। 1928 में ‘यंग इंडिया’ में गांधी ने भविष्य को आंकते हुए लिखा कि “भगवान न करे कि भारत कभी भी पश्चिम के देशों कि तरह औधोगीकरण को अपनाए। एक छोटे से द्वीप राज्य (इंग्लैण्ड) के आर्थिक साम्राज्यवाद ने आज सारी दुनिया को बन्दी बना रखा है। अगर 30 लाख लोगों का देश इस प्रकार के बर्ताव पर उतर आए तो दुनिया ही उजड़ जाएगी”। गांधी की यह चिंता लाज़मी थी। आज के भारत की स्थिति को देखते हुए यह भय पैदा करने वाला ख़्याल है।

यह बात तो हुई बर्बरता और उपभोग की लेकिन आज हमारी मूल चिंता है संरक्षण। कैसे हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करें? क्योंकि मनुष्य और प्रकृति का संबंध जीवन-मरण का संबंध है। आधुनिक सभ्यता ने इस संबंध को कमजोर भी किया और खत्म करने की कोशिश भी की। हमारे जीने के तरीके और पर्यावरण से संबंध रखने पर गांधी की दी गई आधुनिक सभ्यता की दार्शनिक आलोचना बहुत मायने रखती है- ‘आधुनिक सभ्यता का विशिष्ट लक्षण है जरूरतों का अपरिमित बाहुल्य’ जबकि प्राचीन सभ्यताओं में ‘इन पर रोक लगाई जाती थी और जरूरतों को नियंत्रित किया जाता था {यंग इंडिया 2/6/1927}। अस्वाभाविक उत्तेजना के साथ उन्होंने यंग इंडिया में लिखा कि ‘इस पागल चाह से वे तहे दिल से नफरत करते हैं जो दूरी और समय को खत्म करना चाहती है। वह भी भूख को बढ़ाती है, जिसे पूरा करने के लिए लोग दुनिया का कोना कोना छानने को तैयार हैं।

अगर यही आधुनिक सभ्यता का प्रतीक है, और मेरी समझ में है भी, तो मैं इसे पैशाचिक ही कहूंगा (यंग इंडिया 17/3/1927)। गांधी जी के इस कथन और ‘आधुनिक सभ्यता’ के विकास के बीच ही कहीं न कहीं संरक्षण के बीज भी हमें खोजने होंगे। जिनमें गांधी जी का यह कथन कि ‘प्रकृति में सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता है पर लालसा एक मनुष्य की भी नहीं’। इस पूरे संदर्भ को देखें तो हम पाते हैं कि इस बेलगाम प्राकृतिक दोहन का मुख्य कारण हमारी बढ़ती जरूरतें और अनियंत्रित लालच है। इसलिए संरक्षण में सबसे पहले हमें अपनी जरूरतों और लालसाओं पर नियंत्रण करना होगा।

कहा जाता है की अगला विश्वयुद्ध यदि हुआ तो उसका कारण जल-संकट होगा। संसार में उपलब्ध जल का 97 प्रतिशत जल खारा है, शुद्ध जल की मात्रा सिर्फ़ तीन प्रतिशत है। उसमें से दो प्रतिशत उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ़ के रूप में जमा हुआ है। शेष एक प्रतिशत जल में से आधा भू-जल है और आधा वर्षा के रूप में धरती पर प्राप्त होता है, जिसे सहेजकर रखने की परम्परा अब तक भारत में विकसित नहीं हो पाई है। कम-वृक्षारोपण और रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम को अपनाने की अनिवार्यता होनी चाहिए।

मीरा बेन ने 1949 में लिखा – ‘दुख की बात है कि आज के शिक्षित और संपन्न वर्ग अपने अस्तित्व का मूलाधार धरती माता और उससे पोषित जीवों से अनजान हैं। मौका मिलते ही मनुष्य प्रकृति की सुनियोजित से-कम नवनिर्मित भवनों में दुनिया को लूटने, बर्बाद करने में और अव्यवस्थित करने में लग जाता है। अपने विज्ञान और मशीनों के प्रयोग से कुछ समय के लिए उसे भले ही बहुत लाभ मिलता हो, पर आखिरी नतीजा विध्वंस ही होगा’। अगर शारीरिक और नैतिक रूप से स्वस्थ जाति बनकर हमें जीना है तो प्रकृति के संतुलन को समझ कर हमें उनके कानून का पालन करना चाहिए।

जल जंगल और जमीन के संरक्षण के लिए निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना समचीन होगा।

• हमारा विकास का मॉडल ग्लोबल न होकर लोकल हो। स्थानीयता को महत्व दिया जाना चाहिए।
• संसाधनों के असमान वितरण पर लगाम लगाई जानी चाहिए।
• जल संरक्षण के लिए नदियों को सुरक्षित रखना जरूरी है और वर्षा के पानी को स्टोर करने की व्यवस्था करनी चाहिए।
• स्टेट की भूमिका तय हो की वह कितना और कहाँ तक प्राकृतिक संसाधनों के संदर्भ में अपना दखल दे।
• जंगलों की कटाई पर रोक लगे और एक पेड़ के बदले 10 पेड़ की स्कीम को सख्ती से लागू किया जाए।
• खाली जमीन या फिर खेती उपयुक्त जमीन की खरीद फरोख्त बंद हो और खेती वाली जमीन पर कोई भी कारख़ाना न लगाया जाए।
• जल जंगल और जमीन के संरक्षण के लिए सख़्त कानूनी प्रावधान हो। कानून सिर्फ हाथी के दांत न हो।
• जल जंगल और जमीन के संदर्भ में जब भी कोई नीति बनाई जाए तो उसमे उन लोगों का विशेष ध्यान रखा जाए जिनका उस पर मूल अधिकार है आदि।

भारत जैसे विकासशील देश में, जहां अधिसंख्यक आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है और बुनियादी सुविधाओं से वंचित है, वहां सरकार का यह दायित्व है कि औद्योगीकरण से लेकर आवास-समस्या हल करने तक जितनी भी नीतियां बनायी जायें उनमें पर्यावरण संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाये। दुर्भाग्यवश, आज भी भारत की नीतियां विश्व बैंक और हार्वर्ड द्वारा ही निर्धारित की जाती हैं, जिनकी सोच भारतीय आवश्यकताओं से कतई मेल नहीं खाती। सरकार को स्वयं ही अपने देश की आवश्यकता को ध्यान में रखकर अपनी क्षमता के अनुरूप उन्नति, विकास एवं पर्यावरण, संरक्षण हेतु नीतियों का निर्धारण करना चाहिए और इसमें विभिन्न संस्थाओं के साथ-साथ जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित होनी चाहिए।

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