जंगल की आग में खोने वाले परिवारों का दर्द कौन करेगा महसूस

जंगल की आग में खोने वाले परिवारों का दर्द कौन करेगा महसूस

कुमाऊं सहित पूरे राज्य में जिस तरह से आग की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं, उसका मुख्य कारण यह है कि फायर सीजन शुरु होने से फायर लाइनों की बिल्कुल सफाई नहीं की गई। सफाई के नाम पर खानापूर्ति की गई।

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

जिले में राज्य सरकार की ओर से संचालित जिला अस्पताल तक बदहाली का शिकार है। ऐसे में करोड़ों खर्च होने के बाद भी लोगों को समुचित स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ नहीं मिल पाना सपने के समान है। ढाई महीने से कुमाऊं के जंगलों की आग बेकाबू है। वनाग्नि में अब तक नौ लोगों की मौत हो चुकी है। बृहस्पतिवार को जिस तरीके से अल्मोड़ा के बिनसर अभयारण्य में भीषण आग से चार कार्मिकों की दर्दनाक मौत हुई है, उसी आग के शिकार हुए चार लोग जिंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। इस दुखद घटना से पूरे सिस्टम पर सवाल खड़ा हो रहा है। यह स्थिति क्यों पैदा हुई? ग्राउंड से जो सूचनाएं आ रही हैं, उससे साफ है कि आग पर काबू पाने के लिए संसाधन विहीन वन कर्मी ही जूझ रहे हैं।

राज्य के जंगलों में लगी आग पर काबू पाने के लिए रणनीति बनाने के बजाय विभाग के बड़े अफसर दो दिन से कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में प्रोटोकॉल बजाने में व्यस्त थे, जबकि कॉर्बेट से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर भीमताल, नैनीताल से लेकर अल्मोड़ा तक के जंगलों में लगातार आग की घटनाएं सामने आ रही हैं। मुख्यमंत्री अफसरों को लगातार निर्देश दे रहे हैं कि ग्राउंड पर जाकर स्थिति देखें, लेकिन सचिवालय से लेकर वन मुख्यालय तक के अफसर व मंत्री कार और कमरों से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। मातहतों का उनकी ओर से मार्गदर्शन नहीं किया जा रहा है। मौत की घटनाओं को भी पूरी मशीनरी बेहद हल्के में ले रही है।

कुमाऊं सहित पूरे राज्य में जिस तरह से आग की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं, उसका मुख्य कारण यह है कि फायर सीजन शुरु होने से फायर लाइनों की बिल्कुल सफाई नहीं की गई। सफाई के नाम पर खानापूर्ति की गई। बजट की कमी का हवाला देकर फायर वाचरों को समय से नहीं रखा जाता है। इस साल का बजट अगले साल मिलता है। बजट मिलता भी है तो आधा-अधूरा। इस कारण फायर वाचरों का समय पर भुगतान नहीं हो पाता। ऐसे में फायर वाचर पूरी तत्परता के साथ से काम नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा फायर वाचरों को समय से ट्रेनिंग देने की व्यवस्था भी नहीं होती।

संसाधनों के अभाव में आज भी आग को पारंपरिक तरीकों से ही कंट्रोल किया जा रहा है। जंगलात से कम होते संवाद के कारण ग्रामीण भी पहले की तरह आग बुझाने में सहयोग करने से परहेज कर रहे हैं। अल्मोड़ा जिले के किसी भी अस्पताल में आग में झुलसे लोगों के इलाज की कोई सुविधा नहीं है। करोड़ों की लागत से खोले गए मेडिकल कॉलेज के साथ ही किसी भी अस्पताल में बर्न वार्ड तक नहीं है। यदि स्थानीय स्तर पर बर्न वार्ड होता तो बिनसर में जंगल में लगी आग की चपेट में आने से झुलसे चार घायलों को हायर सेंटर रेफर नहीं करना पड़ता।

छह लाख की आबादी वाले अल्मोड़ा जिले में नौ सीएचसी, छह पीएचसी, जिला, महिला अस्पताल, बेस के साथ ही 425 करोड़ रुपये की लागत से बने मेडिकल कॉलेज तक में बर्न वार्ड नहीं है। दीपावली में पटाखे या जंगल की आग के अलावा किसी हादसे में कोई अनहोनी हो जाए तो प्रभावित लोगों के लिए हल्द्वानी, बरेली रेफर करना मजबूरी है बिनसर में जंगल की आग में चार वन कर्मी बुरी तरह झुलस गए और उन्हें उपचार के लिए मेडिकल कॉलेज के अधीन बेस अस्पताल लाया गया। यहां बर्न वार्ड नहीं होने से अस्पताल प्रबंधन ने उपचार से हाथ पीछे खींचते हुए सभी को हायर सेंटर रेफर कर औपचारिकता निभा दी। यदि स्थानीय स्तर पर बर्न वार्ड होता तो घायलों को समय पर उपचार नसीब होता और परिजनों को उन्हें लेकर हायर सेंटर की दौड़ नहीं लगानी पड़ती। आम तौर पर आगजनी की घटना में झुलसे लोगों के उपचार के लिए प्लास्टिक सर्जन जरूरी है, लेकिन जिले के सबसे बड़े अस्पताल बेस और मेडिकल कॉलेज में प्लास्टिक सर्जन तक तैनात नहीं हैं।

आगजनी की घटनाओं में घायल लोगों का प्राथमिक उपचार सामान्य चिकित्सक करते हैं। जिले में स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव भी कई बार यहां आपात स्थितियों में मुसीबत का सबब बनता है। वनाग्नि समेत अन्य घटनाओं में झुलसने के कई मामलों के सामने आने के बाद भी अभी तक अल्मोड़ा मेडिकल कॉलेज में ब्लड बैंक संचालित किया जा सका है। मेडिकल कालेज रक्त के लिए जिला अस्पताल में स्थापित ब्लड बैंक पर निर्भर है। लेकिन कई बार जरूरत पड़ने पर वहां भी खून उपलब्ध नहीं हो पाता है। जिला अस्पताल में बर्न वार्ड नहीं है।

आगजनी की घटनाओं में सामान्य रूप से घायल मरीजों का उपचार अस्पताल में तैनात चिकित्सक करते हैं। लेकिन सरकार सिस्टम का जरा नजारा देखिए कि घटना के 30 घंटे बाद भी कोई मंत्री पीड़ित परिवारों के आंसू पोछने नहीं पहुंचा। यह पहली मर्तबा नहीं है कि जब ऐसा हुआ हो। पिछले 41 दिनों में अल्मोड़ा जिले में ही जंगल की आग ने तीन घटनाओं में दो दंपतियों और तीन वन कर्मियों समेत नौ लोगों की जान ले ली है।

इनमें से किसी भी हादसे के बाद मंत्री को इतना भी वक्त नहीं मिला कि वे पीड़ित परिवारों से जाकर मिलते और उन्हें सांत्वना देकर उनका दर्द बांटते। क्या किसी मंत्री के विधानसभा में ऐसा दर्दनाक हादसा हुआ होता तो भी वे वहां नहीं जाते। इस बारे में जब विभागीय मंत्री से बातचीत की गई तो उन्होंने टका सा जवाब दिया कि वन कर्मियों की अंत्येष्टि में विभाग के सबसे बड़े अधिकारी को भेजा था। आपका यह रवैया और बयान हैरान करता है जब वनाग्नि ने अकेले कुमाऊं जिले में इतनी जानें ले ली हों।

अल्मोड़ा के बिनसर सेंचुरी में वनाग्नि की जो घटना हुई है, वह काफी दर्दनाक और चिंताजनक है। ऐसे में वन मंत्री को स्वयं यहां आकर हादसे के मृतकों के परिजनों से मिलने आना चाहिए था। यह उनका नैतिक दायित्व भी है। साथ ही वन मंत्री अल्मोड़ा की वर्तमान स्थिति और वन विभाग की कार्यप्रणाली से भी रूबरू हो पाते लेकिन इतनी बढ़ी घटना के बाद भी उनका इस ओर ध्यान न देना उचित नहीं है। विधायक अल्मोड़ा केंद्रीय अध्यक्ष उपपा ने वर्तमान में पूरा उत्तराखंड खासकर अल्मोड़ा जिला वनाग्नि से बुरी तरह प्रभावित है। तीन हादसो में ही नौ लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं। ऐसे में वन मंत्री का यहां न आना जिले के प्रति उनकी बेरुखी को दर्शाता है। वन मंत्री यहां दौरा कर स्थितियों का जायजा लेते तो प्रभावित परिवारों को त्वरित गति से मदद मिल पाती और वनाग्नि से निपटने के लिए किए जा रहे प्रयासों को और अधिक कारगर बनाया जा सकता था।

लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

1 comment
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1 Comment

  • Harish Purohit
    June 17, 2024, 1:29 pm

    How disgraceful is this when hill region popullation cry for safety and whole government machinery watch blindly helplessly. This country is only meant for safety of looter politician and uncivilised filmy actor actresses. Shame on such democracy.

    REPLY

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