कुमाऊं की पर्वत श्रंखलाएं अपने आंचल में प्राकृतिक सौंदर्य का खजाना छिपाए जहां पर्यटकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करती हैं। वहीं इन पर्वत श्रंखलाओं ने ऐसे कवियों और वीर सपूतों को जन्म दिया है। जिनकी वीर गाथाएं आज भी घर घर बड़े बुजुर्ग नई पीढ़ी को बड़े उत्साह से सुनाया करते हैं।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
स्वतंत्रता आंदोलन में देश को आजाद कराने में वैसे तो पूरे कुमाऊं का विशेष योगदान रहा है। लेकिन अल्मोड़ा जनपद में स्थित सल्ट क्षेत्र की आजादी की लड़ाई में एक अलग पहचान है। आज भी सल्ट में आजादी की लड़ाई में शहीद हुए रणबांकुरों की वीर गाथाएं घर घर गाई जाती हैं। यहां के लोगों में आजादी के अपना सब कुछ समर्पित कर देने की भावना के चलते बापू ने सल्ट को कुमाऊं की बारदोली का नाम दिया था। वर्ष 1921 में कुली बेगार प्रथा आंदोलन में यहां के लोगों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। वहीं झन दिया लोगों कुली बेगारा, अब है गई गांधी अवतारा, सल्टियां वीरों की घर घर बाता, गोरा अंग्रेजा तू छोड़ि दे राजा जैसी जनवादी कवियों की रचनाओं ने यहां के लोगों को उत्साहित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
वर्ष 1930 में सल्ट की शांत वादियां सविनय अवज्ञा आंदोलन को लेकर छटपटाने लगी। सल्ट के लोगों ने गोरी सरकार के आदेशों को धत्ता बताते हुए समूचे कुमाऊं में आंदोलन का जो शंखनाद किया। उससे अंग्रेजों को इस बात का अहसास हो गया था कि अब यहां के लोग आजादी के लिए कुछ भी कर सकते हैं। इस आंदोलन में हरगोविंद पंत, पुरुषोत्तम उपाध्याय व लक्ष्मण सिंह अधिकारी जहां तीन महीनों तक मुरादाबाद में जेल की सलाखों के पीछे पड़े रहे। वहीं फिरंगी सरकार से देश को आजाद कराने के लिए खुमाड़ निवासी पुरुषोत्तम उपाध्याय, पोखरी के कृष्ण सिंह ने रानीखेत में धारा 144 तोड़ी। 05 सितंबर 1942 का दिन कुमाऊं के लोग कैसे भूल सकते हैं। 03 सितम्बर को एस.डी.एम. जानसन पुलिस, पटवारी, पेशकार और लाइसेंसदारों का जत्था लेकर खुमाड के लिये रवाना हुआ। इस जत्थे में लगभग 200 लोग थे, यह जत्था भिकियासैंण होता हुआ देघाट, चौकोट में गोलीकांड कर खुमाड़ की ओर चला। क्वैराला में जब यह जत्था पहुंचा तो लोग खुमाड़ की ओर उमड़ पड़े।
लोगों को खबर मिली कि पुलिस खुमाड में सेनानियों के अड्डे पर हमला करने जा रही है। पुलिस पटवारी के साथ एस।डी.एम. बितड़ी पहुंचा तो लालमणि ने उनका रास्ता रोक दिया, उनकी पिटाई कर हाथ पीछे बांध दिये गये, इस जत्थे ने दंगूला गांव में भी लोगों को आतंकित करने के लिये उपद्रव किया। जब यह दस्ता खुमाड़ पहुंचा तो वहां पर तिल रखने की भी जगह नहीं थी। चारों ओर भीड़ ही भीड़ थी, गोविन्द ध्यानी नाम के नवयुवक ने इनका रास्ता रोककर नारेबाजी शुरु कर दी। जानसन आगे बढा और स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में जानकारी न देने पर आग लगाने की धमकी दी और भीड़ को आतंकित करने के लिये हवाई फायर करने लगा। सल्टवासियों की इसी देशभक्तिपूर्ण शहादत के कारण गांधीजी ने इस क्षेत्र को ‘कुमाऊं की बारदोली’ कहा था।
गौरतलब है कि कुमाऊं का अभिप्राय उस समय टिहरी रियासत को छोड़कर सम्पूर्ण उत्तराखण्ड से था। खुमाड़ सल्ट तथा सालम में जिस विद्रोह का प्रस्फुटन हुआ, उसकी पृष्ठभूमि को समझने के लिए कुमाऊं में ब्रिटिश राज के इतिहास को समझना भी आवश्यक है। सन 1815 में ब्रिटिश-गोरखा युद्ध में गोरखा की पराजय से नेपाल संधि से कुमाऊं में ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ। जिसका संचालन तीन कमिश्नरों ट्रेल, जे.एच. बैरन तथा हेनरी रैम्जे द्वारा किया गया। उस वक्त कुमाऊं का अधिकांश क्षेत्र, जहां आबादी निवास करती थी। बीहड़ पर्वतीय क्षेत्र था और 90 प्रतिशत क्षेत्र में जंगल थे। लगान में यहां अंग्रेजों की रुचि नहीं रही, इस कारण समाज की आन्तरिक व्यवस्था में भी अंग्रेजों द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया गया। इस कारण 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में काली कुमाऊं (चम्पावत), हल्द्वानी भाबर को छोडकर समूचा क्षेत्र लगभग शांत रहा। काली कुमाऊं चम्पावत में कालू सिंह मेंहरा, आनन्द सिह फर्त्याल, बिशन सिंह करायत जो कि बिशंग पट्टी से थे और रूहेलखंड के नबाब के संपर्क में थे, ने बागी दल बनाकर बगावत का बिगुल फूका और लोहाघाट में ब्रिटिश बैरक में हमला किया।
खबर अल्मोड़ा में हमला करने की भी थी जिस कारण ब्रिटिश परिवार सुरक्षा की दृष्टि से नैनीताल आ गए। बागी दल के विद्रोह को सहायक कमिश्नर सर कैल्विन ने काबू कर लिया। आनन्द सिंह फर्त्याल और बिशन सिंह करायल को गोली मार दी गई, जबकि कालू सिंह को आजीवन जेल हुई। 1868 में अल्मोड़ा में साम्य विनोद अखबार का प्रकाशन शुरू हुआ और 1871 में अल्मोड़ा से ही अल्मोड़ा अखबार का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इसके संपादक कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे, विक्टर मोहन जोशी और राम सिंह धौनी हुए, जो कि सभी प्रगतिशील विचारो के थे। सामाजिक कुरीतियों छुआछूत उन्मूलन और शिक्षा के विस्तार में चेतना का कार्य इस अखबार द्वारा किया और इस क्षेत्र को राष्ट्रीय मुख्यधारा से जोडने में महत्वपूर्ण योगदान देकर स्वतंत्रता संग्राम की चेतना का विस्तार किया, जो आगे चलकर कुमाऊं परिषद 1917 के गठन के रुप में दिखाई दिया। कुमाऊं परिषद का विलय कालान्तर में राष्ट्रीय कांग्रेस में हुआ। परिषद के हरगोविन्द पन्त तब सम्मानित नेता थे, जो लगातार क्षेत्र में भ्रमणशील रहकर युवाओं को विभिन्न रचनात्मक गतिविधियों के माधयम से परिषद और कांग्रेस से जोड जोड रहे थे।
जहां सल्ट के खुमाड़ नामक स्थान पर ये क्रांतिकारी लोग शहीद हुए थे, वहां इनकी याद में शहीद स्मारक बना है। प्रतिवर्ष 05 सितंबर को यहां इन क्रांतिकारी वीर शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है और इनके योगदान को लक्ष्य करके कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया जाता है। सल्ट के असहयोग आन्दोलन में स्थानीय कुमाउनी कवियों ने भी ग्रामीणों के हृदय में देशप्रेम व देशभक्ति का जोश भरने का महत्त्वपूर्ण काम किया – सल्ट को कुमाऊं की बारदोली जब खुमाड़ में आयोजित क्रांतिकारियों की सभा में एसडीएम जानसन ने अंधाधुंध गोलीबारी कर अपनी हैवानियत का परिचय दिया। जिसमें क्रांतिकारी दो सगे भाई गंगा राम और खीमानंद मौके पर शहीद हो गए। जबकि गोलीबारी में घायल चूड़ामणी और बहादुर सिंह ने भी कुछ दिनों बाद दम तोड़ दिया। आजादी के बाद पांच सितंबर उन्नीस सौ चौरासी में खुमाड़ में इन शहीदों की याद में एक शहीद स्मारक का निर्माण कराया गया। जिसके बाद से हर साल 05 सितंबर यहां शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। राजनीतिक दलों के नुमाइंदों के अलावा प्रशासनिक अधिकारियों और स्थानीय लोगों का जमावड़ा यहां लगता है और शहीदों को उनकी बरसी पर याद किया जाता है।
सल्टवासियों की इसी देशभक्तिपूर्ण शहादत के कारण गांधीजी ने इस क्षेत्र को ‘कुमाऊं की बारदोली’ कहा था। गौरतलब है कि कुमाऊं का अभिप्राय उस समय टिहरी रियासत को छोड़कर सम्पूर्ण उत्तराखंड से था। जहां सल्ट के खुमाड़ नामक स्थान पर ये क्रांतिकारी लोग शहीद हुए थे, वहां इनकी याद में शहीद स्मारक बना है। प्रतिवर्ष 05 सितंबर को यहां इन क्रांतिकारी वीर शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है और इनके योगदान को लक्ष्य करके कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया जाता है। सल्ट के असहयोग आन्दोलन में स्थानीय कुमाउनी कवियों ने भी ग्रामीणों के हृदय में देशप्रेम व देशभक्ति का जोश भरने का महत्त्वपूर्ण काम किया – वास्तव में सल्ट के इन महान् क्रांतिकारियों ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में उत्तराखंड का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करवा दिया है।
आजादी की लड़ाई में आज भी अल्मोड़ा जिले का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाता है। अल्मोड़ा के क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत को भारत आजाद होने तक चैन से नहीं बैठने दिया। अंग्रेजी हुकूमत को लगातार एहसास दिलाते रहे की पहाड़ी लोग आजादी के कितने मतवाले हैं। देश की आजादी के लिए जान न्योछावर करनेवालों में कुछ गुमनाम शहीद भी हैं। अल्मोड़ा की क्रांति को आज भी बड़े फख्र के साथ याद किया जाता है। सल्ट क्रांति के इन सभी क्रांतिवीरों को कोटि कोटि नमन !! तथा 5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ के अवसर राष्ट्रभक्त शिक्षकों को शत शत नमन !!
(लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।)
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