उत्तरकाशी के मोरी, बड़कोट, पुरोला और उपला टकनौर क्षेत्र में कोटि बनाल शैली के भवन देखने को मिलते हैं। पुराने समय में पंचपुरा भवनों को पहाड़ की आर्थिक समृद्धि का प्रतीक माना जाता था। ये भवन स्थापत्य और विज्ञान का शानदार नमूना हैं। यह भवन भूकंप के झटकों को भी ये आसानी से सह लेते हैं।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत धर्म, भक्ति, अध्यात्म और साधना का देश है, जहां प्राचीन काल से पूजा-स्थल के रूप में मंदिर विशेष महत्व रखते रहे हैं। यहां कई मंदिर ऐसे हैं, जहां विस्मयकारी चमत्कार भी होते बताए जाते हैं। जहां आस्थावानों के लिए वे चमत्कार दैवी कृपा हैं, तो अन्य के लिए कौतूहल और आश्चर्य का विषय है। आइए, भारत के कुछ विशिष्ट मंदिरों के बारे में, जिनके रहस्य असीम वैज्ञानिक प्रगति के बाद कोई नहीं जान पाया है। उत्तराखंड के इतिहास और स्थापत्य के शानदार नमूने यहां के पंचपुरा भवन आज भी विज्ञान के लिए पहेली बने हुए हैं। पंचपुरा भवन उत्तरकाशी के कई क्षेत्रों में देखने को मिलते हैं। आजकल की बिल्डिंगें कुछ ही साल तक टिक पाती हैं, पर पहाड़ में बने पंचपुरा भवन ना जाने कितनी सदियों से ऐसे ही अडिग, अचल खड़े हैं। उत्तरकाशी क्षेत्र कई बड़े भूकंपों का गवाह रहा है। लेकिन हैरानी की बात है कि ये भूकंप भी पंचपुरा भवनों की नींव को हिला नहीं पाए।
विज्ञान भी इन भवनों का रहस्य खोजने में जुटा हुआ है, ताकि भूकंप के समय होने वाले जान-माल के नुकसान से बचा जा सके। उत्तरकाशी के मोरी, बड़कोट, पुरोला और उपला टकनौर क्षेत्र में कोटि बनाल शैली के भवन देखने को मिलते हैं। पुराने समय में पंचपुरा भवनों को पहाड़ की आर्थिक समृद्धि का प्रतीक माना जाता था। ये भवन स्थापत्य और विज्ञान का शानदार नमूना हैं, भूकंप के झटकों को भी ये आसानी से सह लेते हैं। अफसोस की बात ये है कि आज इस शैली के भवन बनना बहुत कम हो गए हैं। पारंपरिक घरों की जगह सीमेंट-कंक्रीट से बने मकानों ने ले ली है, पर आज भी जौनसार बावर क्षेत्र में कोटि बनाल शैली से बने घर देखने को मिल जाते हैं। ये भूकंपरोधी होने के साथ ही इको फ्रैंडली भी होते हैं।
जानकर हैरानी होगी कि तिलोथ के वीर भड़ नरू-बिजोला, रैथल के राणा गजे सिंह और झाला गांव के वीर सिंह रौतेला के पंचपुरा भवन दशकों बीत जाने के बाद भी गर्व से खड़े हैं। इन्हें देख आप उत्तराखंड के गौरवशाली इतिहास को फिर से जी सकते हैं। सशक्त भवन निर्माण शैली का प्रतीक रहे पंचपुरा भवनों को भूकंप और प्राकृतिक आपदा भी डिगा नहीं सकी। आपको बता दें कि कोटी बनाल शैली के इन्हीं घरों पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘कोटि बनाल’ ने एशिया के सबसे बड़े ग्रीन फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड हासिल किया है। डॉक्यूमेंट्री कोटि बनाल का निर्माण पहाड़ के शिक्षक श्रीनिवास ओली ने किया है, ये फिल्म सीएमएस वातावरण इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में छाई रही। फिल्म ने सेलिब्रेटिंग हिमालयाज कैटेगरी में बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड हासिल किया।
उत्तराखंड भूकंप की दृष्टि से बेहद ही संवेदनशील है। कई बार भूंकप के कारण यहां तबाही मच चुकी है। धरती की एक हल्की सी थरथराहट से बड़ी बड़ी इमारतें पलक झपकते ही धराशायी हो जाती हैं। वैज्ञानिकों ने उत्तराखंड में कभी भी बड़े भूकंप के आने की चेतावनी तक दे दी है। उनका कहना है कि इस हिमालयी इलाके में कभी भी आठ या उससे ज्यादा रेक्टर का भूकंप आ सकता है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी के लोग 1000 साल पहले ही इस वैज्ञानिकों विनाशकारी भूकंप से लड़ने का तरीका खोज चुके थे। उत्तरकाशी के लोगों ने घरों को बनाने की एक ऐसी शैली खोज निकाली थी जिसे अपनाकर ये लोग भूकंप से लड़ते आ रहे हैं और खास तरीके से बनी ये इमारतें कई भूकंप झेलने के बाद भी ज्यों की त्यों खड़ी हैं।
रिसर्च पेपर में बताया गया है कि जिस तरह लकड़ियों को अरेंज करके ये मकान बनाए जाते हैं वो इन्हें भूकंप के लिहाज से सबसे सुरक्षित बना देते हैं। अब लकड़ी मजबूत होने के साथ साथ काफी हल्की भी होती है जिस वजह से भूकंप के दौरान पैदा होने वाला कंपन इन मकानों में उतना इफेक्ट नहीं डालता क्योंकि वो पूरे घर में समान रूप से वितरित हो जाता है। लेकिन सीमेंट के मकानों में ऐसा होना पॉसिबल नहीं है। यही वजह है कि कोटी बनाल शैली में बने ये लकड़ी के मकान साल 1334, 1505 और 1991 जैसे खतरनाक भूकंप झेलने के बाद भी सही सलामत खड़े हैं।
आम जिंदगी में ये कहा जाता है कि पुरखों से मिले ज्ञान का आधार वैज्ञानिक होता है और वो रोज मर्रा की जिंदगी की मुश्किलों को ध्यान में रख ईजाद किया जाता है। कुछ ऐसा ही ज्ञान पहाड़ों की परंपराओं में दिखाई देता है, जो कि पहाड़ की मुश्किल जिंदगी में पर्वतनजनों के काम आता रहा है। जबकि इस बात को हाल ही में आई आपदा विभाग की एक रिपोर्ट ने भी माना है। आपदा विभाग की उत्तराखंड डिजास्टर रिस्क मैनेजमेंट रिपोर्ट में इस बात को माना है कि पहड़ों में पुरखों से मिले ज्ञान की बदौलत हमारे पुरखे बड़ी से बड़ी आपदा को मात दे देते थे। दो साल की मेहनत के बाद वर्ल्ड बैंक की मदद से बनाई गई इस रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है। इस दिशा में कुछ सार्थक बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)
Leave a Comment
Your email address will not be published. Required fields are marked with *