उत्तराखंड की एसपी विजिलेंस और भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) अधिकारी रचिता जुयाल द्वारा अपने पद से अचानक इस्तीफा देने की खबर सामने आई। उनके इस फैसले ने पूरे प्रशासनिक, राजनीतिक और नागरिक समाज में हलचल मचा दी है। यह निर्णय यूं ही नहीं लिया गया। अंदर ही अंदर कुछ ऐसा ज़रूर था, जो किसी अफसर को अपने करियर की सर्वोच्च सेवा, यानी आईपीएस जैसी प्रतिष्ठित सेवा को त्यागने के लिए मजबूर करता है।
ब्रिगेडियर सर्वेश दत्त (पहाड़ी) डंगवाल
उत्तराखंड एक शांत, वीरभूमि है—जिसकी माटी ने न केवल प्रकृति का सौंदर्य समेटा है, बल्कि भारत के सुरक्षा बलों को लाखों समर्पित, निष्ठावान और देशभक्त जवान भी दिए हैं। यहीं से शुरू होती है एक ऐसी कहानी, जो आज केवल एक व्यक्तिगत इस्तीफे की घटना नहीं रह गई है, बल्कि यह पूरे प्रदेश की अंतरात्मा को झकझोरने वाला सवाल बन चुकी है — क्या उत्तराखंड में अब ईमानदार और निष्ठावान अधिकारी टिक पाएंगे? और अगर नहीं, तो जिम्मेदार कौन?
रचिता जुयाल का इस्तीफा: सिर्फ एक व्यक्तिगत निर्णय नहीं हाल ही में उत्तराखंड की एसपी विजिलेंस और भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) अधिकारी रचिता जुयाल द्वारा अपने पद से अचानक इस्तीफा देने की खबर सामने आई। उनके इस फैसले ने पूरे प्रशासनिक, राजनीतिक और नागरिक समाज में हलचल मचा दी है। यह निर्णय यूं ही नहीं लिया गया। अंदर ही अंदर कुछ ऐसा ज़रूर था, जो किसी अफसर को अपने करियर की सर्वोच्च सेवा, यानी आईपीएस जैसी प्रतिष्ठित सेवा को त्यागने के लिए मजबूर करता है।
राजनीतिक हलकों में ये कयास लगाए जा रहे हैं कि रचिता जुयाल को राज्य सरकार, विशेष रूप से मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के निकट माने जाने वाले एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री गणेश जोशी से संबंधित एक संवेदनशील भ्रष्टाचार मामले में ‘दबाव’ का सामना करना पड़ा। आरोप है कि मंत्री जी की आय से अधिक संपत्ति, देहरादून के गुनियाल गांव स्थित सैन्य धाम के निर्माण में अनियमितताएं, और उस क्षेत्र में भूमि की प्लॉटिंग व खरीद-फरोख्त के मामलों की छानबीन में रचिता जयाल को बाधाएं उत्पन्न की जा रही थीं।
कांग्रेस पार्टी की मीडिया प्रवक्ता ने भी इस मामले पर खुलकर सवाल उठाए हैं। अगर यह सच है, तो यह किसी एक अधिकारी की नहीं, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक और प्रशासकीय तंत्र की पराजय है।
सत्ता का दबाव और अफसर की आत्मा
जब कोई अधिकारी—विशेष रूप से एक युवा और योग्य महिला आईपीएस अधिकारी अपने स्वाभिमान और अंतरात्मा की आवाज पर चलने का निर्णय लेती है, तो वह किसी राजनीतिक पार्टी या सत्ता के खिलाफ नहीं, बल्कि व्यवस्था के भीतर की उस सड़ांध के खिलाफ खड़ी होती है जो आज आम हो चुकी है।
रचिता जुयाल के इस्तीफे ने हमें एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या ईमानदार अफसरों के लिए अब सिस्टम में कोई जगह नहीं बची? क्या अब सत्य बोलना, भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई करना और जनता के प्रति ईमानदारी बरतना अपराध बन चुका है?
यह कोई पहली घटना नहीं है। देश भर में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जहां ईमानदार अधिकारियों को या तो सजा दी गई, ट्रांसफर कर दिया गया, या फिर मानसिक रूप से इतना प्रताड़ित किया गया कि अंततः उन्होंने हार मानकर सेवा से त्यागपत्र दे दिया।
पूर्व सैनिक समुदाय से सीधी अपील
उत्तराखंड के लिए यह मुद्दा और भी गंभीर इसलिए है क्योंकि यहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा पूर्व सैनिकों और अर्धसैनिक बलों से जुड़ा है। जब कोई मंत्री “सैनिक कल्याण मंत्री” होने का दावा करता है, तो उसका जीवन आचरण भी वैसा ही होना चाहिए साफ, ईमानदार, और अनुशासित। लेकिन जब वही व्यक्ति भ्रष्टाचार, भूमि घोटाले और सत्ता के दुरुपयोग के आरोपों में घिरा हो, तो यह सभी पूर्व सैनिकों और उनके परिवारों के आत्मसम्मान के लिए एक गंभीर चुनौती है।
मेरा उत्तराखंड के समस्त पूर्व सैनिक और अर्धसैनिक बल के भाइयों और बहनों से यह स्पष्ट निवेदन है आप ऐसे मंत्री के चाटुकार या समर्थक बनकर अपना आत्मसम्मान मत गिराइये। यह व्यक्ति सैनिकों का प्रतिनिधि नहीं, बल्कि सत्ता का एक अवसरवादी एजेंट है। उसकी नीतियां, कार्यशैली और छवि उत्तराखंड की उस गौरवशाली परंपरा के विरुद्ध है जिसकी रक्षा के लिए आपने जीवन भर देश सेवा की।
सैन्य धाम या भूमि घोटाला?
गुनियाल गांव में बनने वाला ‘सैन्य धाम’ एक भावनात्मक और सम्मानजनक परियोजना हो सकती थी। यह उत्तराखंड के उन शहीदों की स्मृति को नमन करने का माध्यम बन सकता था जिनकी कुर्बानियों से यह राष्ट्र सुरक्षित है। लेकिन अगर इस पवित्र उद्देश्य के साथ भ्रष्टाचार और जमीन की प्लॉटिंग और खरीद-फरोख्त का खेल जुड़ जाए, तो यह केवल नैतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक अपराध है।
क्या सैनिकों की स्मृति को भी अब सत्ता के दलालों ने अपनी जेब भरने का माध्यम बना लिया है? क्या अब हम उस सीमा तक गिर चुके हैं जहां शहादत की आड़ में भ्रष्टाचार और जमीनें बेची जाएंगी?
एक नई शुरुआत की आवश्यकता
यह समय केवल आलोचना का नहीं, बल्कि आत्मचिंतन और आत्मसुधार का भी है। हमें ऐसे नेताओं और अधिकारियों की आवश्यकता है जो सच्चाई, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के मूल्यों पर खरे उतरें। जब तक हम चुप रहेंगे, तब तक यह तंत्र ऐसे ही ईमानदारों को कुचलता रहेगा।
पूर्व सैनिकों का समुदाय संगठित हो, अपने अधिकारों और सम्मान की रक्षा के लिए एकजुट हो। हम जिन आदर्शों की रक्षा के लिए जीवन भर डटे रहे, वही आदर्श अब सिविल जीवन में भी हमसे आह्वान कर रहे हैं।
हमारा यह नैतिक दायित्व है कि हम ऐसे भ्रष्ट, अवसरवादी और जनविरोधी नेताओं का सामाजिक बहिष्कार करें। उन्हें यह एहसास दिलाएं कि सैनिकों की चुप्पी उनकी स्वीकृति नहीं है।
ईमानदारी की मशाल बुझने ना दें
रचिता जुयाल जैसे अफसरों को हम सलाम करते हैं। उन्होंने एक मुश्किल रास्ता चुना लेकिन सत्य के साथ खड़े रही। यह हम सभी के लिए एक प्रेरणा है कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, अगर हमारी आत्मा स्वच्छ और ईमानदार है, तो हमें किसी पद की आवश्यकता नहीं।
जो अफसर पद की परवाह किए बिना व्यवस्था की गंदगी के विरुद्ध खड़ा हो जाए, वही असली योद्धा है। रचिता जयाल ने यह साबित किया कि वह केवल एक अधिकारी नहीं, बल्कि उस जनचेतना की प्रतीक हैं जो इस प्रदेश में अब फिर से जागने लगी है।
सवाल जो उठने ही चाहिए :
• क्या रचिता जुयाल को न्याय मिलेगा?
• क्या इस पूरे मामले की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच होगी?
• क्या उत्तराखंड में अब भी अफसरों के लिए स्वाभिमान से जीने की जगह है?
• और क्या पूर्व सैनिक समुदाय ऐसे मंत्री के समर्थन से स्वयं को अलग करेगा?
इन सवालों के जवाब हम सब को मिलकर खोजने हैं। यह लेख केवल एक अपील नहीं है, यह उत्तराखंड के समस्त ईमानदार नागरिकों, विशेषकर पूर्व सैनिकों, अर्धसैनिक बलों और युवाओं के लिए एक ‘जागरण गीत’ है।
यह लेखक के अपने विचार हैं।
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