उत्तराखंड में और भी अनेक ऐसे परम्परागत कृषि उत्पाद है जो अपने भौगोलिक क्षेत्र विशेष के आधार पर लगातार वैश्विक पहचान बनाते जा रहे है। यह मिर्च स्वाद में अन्य मिर्च प्रजाति से तीखी तो होती है, लेकिन ज्यादा मात्रा में खाने पर शरीर को कोई नुकसान सामान्यतया नहीं पहुंचाती है।
डॉ हरीश चन्द्र अन्डोला
लखोरा घाटी में होनी वाली लखोरी मिर्च को अपने राज्य में भी वो पहचान नहीं मिल पाई जिसकी वह हकदार है। मिर्च उत्पादन के लिए पूरे देशभर में प्रसिद्ध इस घाटी की मिर्च आज भी सरकार के प्रोत्साहन की बाट जोह रही था पीले रंग की मिर्च की यह विशेष किस्म लखोरा घाटी में पैदा होती है इसी कारण इसका नाम लखोरी मिर्च पड़ा, लेकिन सरकार की कोई ठोस योजना नहीं होने के कारण आज भी किसान इसे बिचोलियों के हाथों बेचने को मजबूर हैं। गढ़वाल सीमा से लगी लखोरा घाटी के सराईखेत, कफलगांव, बुरासपानी, मठखानी, गाजर, इकूरौला, जुनियागढी, घनियाल, मगरूखाल, चक्करगांव, मसमोली, सीमगांव, गुदलेख समेत अनेक गांवों के खेतों की चिकनी मिट्टी में यह मिर्च भारी मात्रा में पैदा होती है। रंग में हल्की पीली इस मिर्च की उत्पाद बाहुल्यता के चलते ही इस घाटी के नाम पर मिर्च को भी लखोरी मिर्च का नाम दिया गया।
उत्तराखंड में और भी अनेक ऐसे परम्परागत कृषि उत्पाद है जो अपने भौगोलिक क्षेत्र विशेष के आधार पर लगातार वैश्विक पहचान बनाते जा रहे है। यह मिर्च स्वाद में अन्य मिर्च प्रजाति से तीखी तो होती है, लेकिन ज्यादा मात्रा में खाने पर शरीर को कोई नुकसान सामान्यतया नहीं पहुंचाती है। कम वर्षा में भी होने वाली मिर्च का अपना व्यवसायिक महत्व है। यह रामनगर की मंडी में जाकर ढ़ाई सौ से चार सौ रुपये किलो तक बिकती है। रामनगर से यह मिर्च कानपुर समेत देश के विभिन्न मंडियों तक पहुंचती है, इसका उपयोग मुख्य रूप से आसू गैंस के भीतर मसाले के रूप में उपयोग भी होता है। क्षेत्र के किसान पूरे वर्ष आजीविका का खर्च भी मिर्च उत्पादन से ही चलाते हैं।
किसानों का कहना है इस खास किस्म की मिर्च को प्रोत्साहन देने के लिए राज्य की अब तक की सरकारों की ओर से कोई कारगर नीति नहीं बनाई गई, जिससे उनके इस उत्पाद को उतना महत्व नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था। उत्तराखंड में कुल 6.48 लाख हैक्टेयर कृषि भूमि हैं जिसमें 3.50 लाख हैक्टेयर क्षेत्रफल पर परम्परागत कृषि उत्पादों का उत्पादन हो रहा है। भारत विश्वभर में लगभग नब्बे देशों को मिर्च निर्यात करता है, लगभग 6.81 लाख हैक्टेयर में 10.09 लाख टन मिर्च का उत्पादन किया जाता है। इसके अतिरिक्त पहाडी मिर्च भी विश्वभर में मसाले तथा अपने तीखे स्वाद के लिए प्रसिद्ध है। इसमें विटामिन ए, सी तथा ई भी पाये जाते है तथा पाचन क्रिया में भी सहायक होती है। रूस के एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार हरी मिर्च में विटामिन पी भी पाया जाता है जो में सहायक होता है।
मिर्च में मौजूद मुख्य एल्कोलाइड ‘केप्सीकीन’ तीखेपन के साथ-साथ औषधीय गुण भी रखता है। केप्सीकीन मुख्यत एंटीकैंसर तथा त्वरित दर्द निवारक गुणों के साथ-साथ ह्दय रोगों में भी लाभदायक पाया जाता है। मैक्सिको में तो लाल मिर्च के पिगमेंट को ‘पॉलेट्री फीड’ में भी मिलाया जाता है ताकि चिकन में लाल पिग्मेंट की वजह से ज्यादा कीमत प्राप्त हो सकें। उच्च फ्लेवनाइडस की वजह से मिर्च में बेहतर एंटी ऑक्सीडेंट गुण भी पाये जाते है जोकि ह्दय को सुचारू संचालन तथा ट्राई गिलेसेराईड की मात्रा को भी कम करता है। रक्त संचार को बेहतर करने के साथ-साथ शरीर में उदर रोगों के निवारण में भी सहायक होता है। पौष्टिक रूप से भी मिर्च अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, इसमें प्रोटीन-15.90 ग्राम, खनिज लवण – 6.10 ग्राम, फाइबर-30.20 ग्राम, कार्बाहाइडेटस- 31.60 ग्राम, केल्सियम- 160 मिग्रा, फासफोरस- 370 मिग्रा, आइरन-2.30 मिग्रा, कैरोटिन- 345 मिग्रा, पोटेशियम- 530 मिग्रा प्रति 100 ग्राम तक पाये जाते है।
उत्तराखंड की पहाडी मिर्च अपनी विशिष्ट स्वाद, तीखेपन तथा बेहतर रंग की वजह से एक अलग पहचान रखती है। प्रदेश में बेतालघाट, सल्ट, स्यालदे, बीरोखाल तथा लोहाघाट मुख्य मिर्च उत्पादक क्षेत्र है। बेतालघाट तथा लोहाघाट की विश्व प्रसिद्ध पहाडी मिर्च अपनी विशिष्ट गुणों तथा सर्वाधिक केप्सीकीन के कारण बाजार में सर्वाधिक मॉग व मूल्य रखती है।यदि प्रदेश के मिर्च उत्पादक क्षेत्रों में केवल व्यवसायिक रूप से उन्ही प्रजातियों का उत्पादन किया जाय जिनमें सर्वाधिक केप्सीकीन की मात्रा पायी जाती है तथा उच्च मूल्य के साथ-साथ सर्वाधिक बाजार मांग भी रखती है, तो अपनी एक विशिष्ट पहचान के साथ-साथ आर्थिकी का भी बेहतर साधन बन सकती हैं। मिर्च उत्पादक क्षेत्रों को चिन्ह्ति कर स्थानीय स्तर पर काश्तकारों के लिए सामूदायिक सुविधा केन्द्र स्थापित कर के तहत मूल्य संवर्धन किया जाय तो मिर्च उत्पादकों को बाजार के साथ-साथ रोजगार का विकल्प भी बनाया जा सकता है।अल्मोड़ा लाखोरी मिर्च, जिन उत्पादों को भौगोलिक संकेतांक प्रमाण-पत्र प्राप्त हुए है, अब उन उत्पादों की मार्केट में ब्राडिंग बढ़ने से अधिक डिमांड बढ़ेगी तथा उनको अच्छा मूल्य प्राप्त होगा। जिससे इन उत्पादों से जुड़े हुए उत्पादक सीधे-सीधे लाभान्वित होंगे। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड सरकार के निर्देशन पर अन्य उत्पादों का जीआई टैग किये जाने का भी कार्य जारी है।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।
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