उत्तराखंड वीरों की भूमि है और इस वीर भूमि से अनेक वीरों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कई वीर सैनिक अपने देश के खातिर अपने प्रोणों की आहुति दे चुके है। जिनमें उत्तराखंड़ के अनेक वीर योद्धा भी शामिल हैं।
ब्रिगेडियर सर्वेश दत्त डंगवाल
अब समय आ चुका है कि देश की रक्षा करने के अलावा भी हमारे देश के वीर सपूतों को अपनी नई भूमिका में भी आना होगा। उत्तराखंड से देश की सेना और अद्धसैनिक बलों में अनेक सैनिक अपना योगदान देते हैं और सेवानिवृति के बाद भी उनको अपनी दूसरी पानी में जनसेवा के कार्यों को करना चाहिए। इसलिए मेरा मानना है कि उत्तराखंड की राजनीति में क्यों न हमारे सैनिक उतरे और जैसे उन्होंने देश की सेवा की है वैसे ही अब वह दूसरी पारी में राज्य की राजनीति में उतरकर लोगों की सेवा करें।
मैं पहले अपने बारे में कुछ बताना चाहता हूं। मैं अपने को आप में से एक मानता हूं। मैं चतुर्थ गढ़वाल राइफल्स (नूरानांग) में 14 नवम्बर 1971 को भारतीय सैन्य अकादमी से सेकंड लेफ्टिनेंट पद पर कमिशन होकर अपनी पलटन, जो झंगड़, नौशेरा में तैनात थी, में 29 नवम्बर 1971 को पहुंचा था और 3 दिसम्बर 1971 को युद्ध छिड़ गया था। केवल 9 दिन की सर्विस में, मैंने एक पैट्रोल का नेतृत्व किया और एलओसी पार कर दुश्मन के मोर्चों के बीच घुसपैठ का प्रयास किया। हालांकि हमारा पैट्रोल असफल रहा, लेकिन हमने लगभग 40 मिनट तक दुश्मन की ताबड़तोड़ फायरिंग का सामना किया। मेरे साथी, राइफलमैन (स्वर्गीय सूबेदार) जमन सिंह, राइफलमैन जीत सिंह और लान्स नायक गबर सिंह थे, और हम सभी मौत के मुंह से बचकर वापस लौटे। इस घटना ने मेरे सैन्य जीवन को सशक्त बनाया और मुझे एक नया दृष्टिकोण दिया।
अब, वर्तमान परिदृश्य पर आते हुए, मैं आपकी भावनाओं का सम्मान करते हुए आप सबके सामने एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव लेकर आया हूं, और वह है भूतपूर्व सशस्त्र सैनिकों की एकता। यह हमारे प्रदेश की वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति की एक अनिवार्यता है। हमें इसमें भागीदारी करनी होगी और यह तभी सम्भव है जब हम अपनी संगठनात्मक शक्ति को एकजुट होकर उपयोग करें और अपनी पहचान को सशक्त बनाएं।
मैं खुले मन से स्वीकार करता हूं कि उत्तराखंड के सेवानिवृत्त अधिकारियों ने आपकी (ओआरओपी) और (एमएसपी) में जो विसंगतियां हैं, उनके खिलाफ आपके गौरव सैनानी/ सैन्य संगठनों ने जो आंदोलन और प्रदर्शन किया, उसमें इच्छाधित योगदान और समर्थन नहीं किया। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहा और इसकी भर्त्सना करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं। लेकिन यह निश्चित है कि उन्हें अपनी इस करतूत पर बहुत अफसोस है और इसलिए वह क्षमा योग्य हैं। मैं व्यक्तिगत तौर पर इसके लिए क्षमा का प्रार्थी हूं।
आशा और उम्मीद करता हूं कि, आप हमें क्षमा करेंगे और पुनः एक दूसरे के प्रति परस्पर आदर भाव से सहयोग करते हुए अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर अग्रसर होंगे। सैनिक के बगैर अधिकारी व्यर्थ है, और सेना में हमारा सैनिक ही केंद्र है। इस धारणा को प्रचारित और सशक्त करना अनिवार्य है, यदि हम अपने इच्छादित राजनीतिक पटल पर कामयाब होना चाहते हैं। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण और प्राथमिकता वाली बात है – एकजुट होना।
यदि हम एकजुट नहीं हुए, तो राजनीतिक दल हमें विभाजित कर अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करेंगे। हम वर्तमान और भविष्य में भी मनमुटाव रखते हुए विभाजित रहकर, आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अपनी अपार राजनीतिक संभावनाओं को प्रज्वलित नहीं कर पाएंगे। हमारा दोहन और शोषण होता रहेगा और हम किसी भी तरह की परिपक्वता को नहीं दिखाते हुए जहां के तहां रहेंगे। जो भावनात्मक खाई वर्तमान में हमारे बीच बन गई है, उसे पाटना बहुत जरूरी है और संवाद के माध्यम से इसे सुधारना भी आवश्यक है।
मैं आप सबके सामने अपने सकारात्मक प्रस्ताव को रखना चाहता हूं ताकि हम एक-दूसरे की नीयत पर किसी तरह का शक या आक्षेप न करते हुए, एकजुट होकर अपने राजनीतिक मंसूबों को प्रदेश के उत्थान और प्रगति के लिए सुनियोजित रणनीति बनाकर आगे बढ़ें। हमारे इस सारगर्भित अभियान में निःस्वार्थ सेवा भाव, योग्यता, संचालन अनुभव, संचार शक्ति (लिखित और वाक), ऊर्जा और समर्पण भाव से काम करने की क्षमता को ही प्राथमिकता और अवसर मिलेगा, चाहे वह कोई भी हो। हम किसी ओहदे के दबाव में या फिर प्रभावित होकर अपना राजनीतिक बिगुल नहीं बजायेंगे।
अब वह समय आ गया है जब हमारे बीच जो वर्गीकरण है, उसे समाप्त कर दिया जाए, और ’जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी भागीदारी’ के मंत्र को अपनाते हुए हम 2027 के विधान सभा चुनाव के लिए अपनी कमर कसें।
यह लेखक के अपने निजी विचार है।
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