उत्तराखंड के पास एशिया का ‘वाटर टावर’ होने के बावजूद यहां पेयजल संकट बरकरार है। आलम ये है कि राज्य में 62% प्राकृतिक स्रोत ऐसे हैं, जो करीब 50% तक सूख चुके हैं। वैसे पेयजल संकट को लेकर यह स्थिति केवल उत्तराखंड की नहीं है, देश में खासकर उत्तर भारत के ज्यादा राज्य ऐसे हैं, जहां पानी का संकट एक बड़ी समस्या बन गया है।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का एक गीत है- गंगा जमुना जी का मुल्क मनखी घोर प्यासा… कहने को तो ये गीत सालों पहले पिछली शताब्दी में गाया गया था। लेकिन इसकी बातें अब पूरी तरह सच साबित हो रही हैं। जी हां… देश के अनेक राज्यों की प्यास बुझाने वाली गंगा और यमुना नदियों के प्रदेश के लोगों के हलक पानी के बिना सूख रहे हैं। जैसे-जैसे गर्मियां आ रही हैं, जंगलों की आग के साथ-साथ उत्तराखंड को एक और गंभीर समस्या का सामना करना पड़ रहा है- वह है पीने के पानी का संकट। उत्तराखंड जल संस्थान और जल निगम विभागों के एक हालिया सर्वेक्षण से पता चलता है कि राज्य के 148 शहरों और 317 ग्रामीण क्षेत्रों में जल्द ही पानी खत्म हो सकता है। गढ़वाल में 84 शहर और 134 ग्रामीण क्षेत्र खतरे में हैं, जबकि कुमाऊं में 64 शहर और 183 ग्रामीण क्षेत्र कमी का सामना कर रहे हैं। देहरादून, अल्मोड़ा और नैनीताल में स्थिति विशेष रूप से गंभीर है, जहां पानी की मात्रा तेजी से घट रही है। इस संकट से निपटने के लिए उत्तराखंड जल संस्थान एक योजना लेकर आया है। प्रभावित क्षेत्रों में पानी पहुंचाने के लिए वे अपने खुद के 69 पानी टैंकरों का उपयोग करेंगे और अतिरिक्त 198 टैंकर किराए पर लेंगे। जल संस्थान की मुख्य महाप्रबंधक का कहना है कि वे स्थिति पर कड़ी नजर रख रही हैं और मदद के लिए अन्य जल स्रोतों की तलाश की जा रही है।
देश के अन्य हिस्सों की भांति उत्तराखंड भी पेयजल संकट से अछूता नहीं है। फिर चाहे वह पर्वतीय इलाके हों अथवा मैदानी, दोनों ही जगह पानी की किल्लत है। पहाड़ी क्षेत्रों में जलस्रोत सूखने से दिक्कत बढ़ी है तो मैदानी इलाकों में भूजल के अंधाधुंध दोहन से। साफ है कि हम पानी का दोहन तो कर रहे, लेकिन इसे बचाने के बारे में नहीं सोच रहे हैं। यही सबसे बड़ी चिंता का कारण भी है। सरकार भी मानती है कि राज्य में पेयजल का संकट है और निपटने के मद्देनजर ही प्रदेश की जल नीति लाई जा रही है। नीति में नदियों के पुनर्जीवन के साथ ही वर्षाजल संरक्षण पर फोकस होगा, ताकि बूंदों को सहेजकर जलस्रोतों को जीवित किया जा सके। वर्षा जल संरक्षण के लिए पांरपरिक तौर-तरीकों खाल-चाल (छोटे-बड़े तालाबनुमा गड्ढे) को भी नीति में शामिल करने की कवायद की जा रही है। साथ ही जल स्रोतों के इर्द-गिर्द जल संरक्षण में सहायक पौधों का रोपण किया जाएगा। इस आलोक में थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो खाल-चाल जैसे पारंपरिक तरीके लोग खुद अपनाते थे। एक दौर में अकेले गढ़वाल मंडल में ही तीन हजार से अधिक खाल-चाल थीं। कुछ स्थानों का नामकरण तक इन खाल के नाम पर हुआ। वक्त ने करवट बदली और धीरे-धीरे खाल-चाल गुम होते चले गए। इसका असर सूखते जलस्रोतों और सूखती नदियों के रूप में सामने आया है।
नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि उत्तराखंड में करीब तीन सौ छोटी-बड़ी नदियां या तो सूख चुकी हैं या फिर सूखने के कगार पर हैं। इनमें अधिकांश वे नदियां हैं, जिनके जीवन का आधार हिमालय नहीं, बल्कि प्राकृतिक जलस्रोत हैं। पेयजल महकमे के आंकड़ों को ही देखें तो यहां की 17032 बस्तियों को आज भी आंशिक रूप से पेयजल उपलब्ध हो पा रहा है। खासकर पर्वतीय इलाकों में संकट अधिक है। ऐसे में जरूरी है कि प्राकृतिक जलस्रोतों को पुनर्जीवन दिया जाए। इस लिहाज से देखें तो राज्य के लिए जल नीति समय की मांग है। बात समझने की है कि जलस्रोत पुनर्जीवित होंगे तो पहाड़ और मैदान सभी जगह पेयजल संकट से निजात मिलेगी ही, खेती-किसानी को भी पानी उपलब्ध हो सकेगा। इसके लिए वर्षा जल का संरक्षण सबसे उत्तम उपाय है।
सरकार ने भी इस पर फोकस किया है। राज्य सरकार को चाहिए कि वह ठोस एवं प्रभावी जल नीति लेकर आए और पूरी गंभीरता से क्रियान्वित भी करे। पहाड़ी जिलों में पानी और संबंधित प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और योजना को मजबूत करने और सुधारने में बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है। हालाँकि, ठोस परिणाम तभी संभव हैं जब धन की कोई हेराफेरी न हो और कार्य वैज्ञानिक रूप से दीर्घकालिक दृष्टिकोण से डिजाइन किया गया हो और ईमानदारी से कार्यान्वित किया गया हो।
उत्तराखंड के पास एशिया का ‘वाटर टावर’ होने के बावजूद यहां पेयजल संकट बरकरार है। आलम ये है कि राज्य में 62% प्राकृतिक स्रोत ऐसे हैं, जो करीब 50% तक सूख चुके हैं। वैसे पेयजल संकट को लेकर यह स्थिति केवल उत्तराखंड की नहीं है, देश में खासकर उत्तर भारत के ज्यादा राज्य ऐसे हैं, जहां पानी का संकट एक बड़ी समस्या बन गया है। विभिन्न राज्यों में ग्राउंड वाटर भी बेहद तेजी से कम हो रहा है। उत्तराखंड में जल स्रोत सूखने के बाद पहाड़ी जिलों के अलावा मैदानी जिलों में भी परेशानियां बढ़ी हैं। देहरादून के विभिन्न क्षेत्रों में टैंकर के जरिए पानी पहुंचाया जा रहा है। देहरादून जिले में 142 जल स्रोत मौजूद हैं, जिनमें 46% ऐसे हैं, जिनका पानी 76% से ज्यादा सूख चुका है। इसी तरह पौड़ी में 645 में से 161 जल स्रोत सूख गए हैं। चमोली में 436 में से 36 सूख चुके हैं। उधर, रुद्रप्रयाग में 313 में से 5 जल स्रोत अब गायब हो गए हैं। नई टिहरी में 627 में से 77 जल स्रोत का पानी सूख चुके हैं। उत्तरकाशी में 415 में से 63 जल स्रोत सूख गए हैं। वहीं, नैनीताल में 459 में से 36, अल्मोड़ा में 570 में से 13, पिथौरागढ़ में 542 में से 25 जबकि, चंपावत में 277 और बागेश्वर में 198 में से एक-एक जल स्रोत 76% से ज्यादा सूख चुके हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि आने वाला समय भयानक पेयजल संकट से गुजरेगा।
वैसे तो देशभर में भूजल के कम होने के पीछे इसके बेहद ज्यादा उपयोग और वाटर रिचार्ज की मात्रा कम होना माना जा सकता है, लेकिन एक बड़ी वजह पर्यावरण में आ रहा वो बदलाव भी है, जिसके कारण में बारिश का बेहद कम होना है और तापमान में बेहद ज्यादा बढ़ोत्तरी होना भी है। राज्य के करीब 500 ऐसे स्रोत हैं जहां पानी 75 से 100 प्रतिशत तक सूख गया है। यानी ये स्रोत पूरी तरह खत्म होने की स्थिति में हैं। करीब 1200 ऐसे जल स्रोत हैं जहां पानी 60 प्रतिशत तक सूख चुका है। राज्य में 50 प्रतिशत तक सूखने वाले स्रोतों की संख्या लगभग 732 है। यह हालत पूरे प्रदेश की है, जिसमें पहाड़ी और मैदानी दोनों के जिले शामिल हैं। लेकिन राज्य में जनसंख्या का सबसे ज्यादा घनत्व मैदानी जिलों में है और पानी की जरूरत भी सबसे ज्यादा मैदानी जिलों में ही रहती है। लिहाजा यह जानना भी जरूरी है कि जल स्रोतों के मामले में मैदानी जिलों के क्या हालात हैं। इसका जवाब यह है कि गर्मी में सूरज की तपिश का सबसे ज्यादा असर मैदानी जिलों में ही दिखाई दे रहा है। देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर जिलों में पिछले दिनों पारा 40 डिग्री के पार दिखाई दिया।
देहरादून में कुल अनुमानित जल स्रोतों की संख्या 142 मानी गयी है। इनमें 42 जल स्रोत सबसे ज्यादा प्रभावित हैं और इनमें करीब 70 से 90% तक पानी सूखने का अनुमान है। राजधानी में ऐसे 62 जल स्रोत हैं जहां करीब 60% तक पानी के सूखने की आशंका है। इसी तरह 40 से 50% तक 15 जल स्रोत सूखने की कगार पर हैं। राज्य में जिन स्रोतों में पानी की कमी आई है, उनमें खासकर गदेरे और झरने शामिल हैं। जाहिर है कि छोटे-छोटे इन पानी के स्रोतों को विकास कार्यों ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। इसीलिए गधेरा और स्प्रिंग आधारित पेयजल योजनाओं के स्रोतों में बड़ा संकट आ चुका है। जबकि ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां एक समय जल स्रोत लोगों की पेयजल समस्या को खत्म करने के लिए अहम योगदान रखते थे, लेकिन अब टैंकरों से गर्मियों के समय पानी की आपूर्ति करना मजबूरी हो गया है।
प्रकृति के साथ ज्यादा छेड़छाड़ सही नहीं है। जब ऐसा होता है तो प्रकृति खुद के स्वरूप को पुनर्स्थापित करने के लिए कुछ ऐसे बदलाव करती है जो इंसानों पर भारी पड़ सकते हैं। लिहाजा जो संकेत पेयजल को लेकर मिल रहे हैं, उन पर जल्द से जल्द गंभीर विचार कर कदम उठाना बेहद जरूरी है। नहीं तो पहाड़ से नीचे नदी तो दिखेगी, लेकिन पहाड़ पर पीने का पानी नहीं होगा। इसके अलावा पेयजल अभावग्रस्त गांवों में वर्षा जल संरक्षण के लिए कदम उठाए जाए और वहां आबादी के हिसाब से टैंक बनाकर इनमें बारिश के पानी का संग्रहण किया जाना चाहिए। फिर इसे उपचारित कर पेयजल के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। हालांकि, सरकार की ओर से कई बार कवायद तो शुरू की जाती हैं, पर अधिकांश धरातल पर उतरने के बजाय सिर्फ कागजों में रह जाती हैं।
लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं और यह लेखक के निजी विचार हैं।
Leave a Comment
Your email address will not be published. Required fields are marked with *