कहते हैं कि जब कोई जवान लड़ाई के दौरान अपनी खुखरी निकाल लेता है तो वह खून बहाए बिना म्यान में नहीं जाती। यह भारतीय सेना की गढ़वाल, कुमाऊं और गोरखा पलटनों का पारंपरिक हथियार रहा है। चीनी सैनिकों से झड़प के बाद अब इस धारदार हथियार की डिमांड बढ़ गई है।
पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों के बीच बिना गोली चले खूनी झड़प हुई थी, जिसमें 20 भारतीय जवान शहीद हो गए और चीन के भी 40 से ज्यादा सैनिक मारे गए। कई मीडिया रिपोर्ट में चीन के हताहत सैनिकों की संख्या 100 से ज्यादा बताई गई है। चीनियों ने धोखे से कांटे लगे डंडों का इस्तेमाल किया था। समझौते से बंधे होने के कारण भारतीय जवानों ने हथियार नहीं चलाए, पर अब शायद ऐसी किसी स्थिति के लिए भी जवान तैयार रहना चाहते हैं। यही वजह है कि कुछ बटालियनों में जवान पारंपरिक हथियार रखना चाहते हैं। दरअसल, इस घटना के बाद अचानक खुखरी डिमांड में आ गई है। इस क्लोज कॉम्बैट में सबसे मारक हथियार माना जाता है।
जी हां, गोरखा रेजीमेंट के साथ ही गढ़वाल-कुमायूं रेजीमेंट के जवान नई खुखरियां खरीद रहे हैं। बताते हैं कि खुखरी की अचानक डिमांड देख फैक्ट्रियों में इसका निर्माण बढ़ गया है। देहरादून के डाकरा कैंट में खुखरियों का ज्यादातर काम होता है। 15 जून की घटना के बाद खुखरियों का मांग बढ़ने से फैक्ट्रियां तेजी से काम कर रही हैं।
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यहां खुखरी की दुकान चला रहे सतीश खुखरी हैंडीक्राफ्ट के मालिक ने ‘हिल मेल’ से बातचीत में बताया कि गोरखा, गढ़वाल और कुमायूं के साथ ही कई अन्य जवान भी खुखरी खरीद रहे हैं। कुछ ने तो एक साथ 200 खुखरी खरीदी। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन के दौरान कामकाज जीरो प्रतिशत हो गया था, उस लिहाज से देखें तो कामकाज 100 प्रतिशत बढ़ गया है।
चीनी सैनिकों के साथ झड़प जैसी स्थिति भविष्य में बने तो इसके लिए जवान अपने साथ खुखरी रखना चाहते हैं। सतीश खुखरी चार पीढ़ियों से भारतीय सेना को खुखरी की सप्लाई कर रहे हैं। भारत से बाहर भी खुखरी बेची जाती है। यहां तक कि अमेरिकी सैनिकों के लिए यहां से खुखरी की सप्लाई की जाती रही है।
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