रम्माण उत्सव में स्थानीय लोगों और पर्वतीय समुदायों के सदस्य भाग लेते हैं और इसे उत्तराखंड की परंपरा, संस्कृति, और धार्मिक विरासत के रूप में महत्वपूर्ण माना जाता है। इस उत्सव के दौरान, केदारनाथ मंदिर में श्रद्धालुओं का आगमन होता है और विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।
रम्माण यानि उत्तराखंड कि वो खुबसूरत विधा जिसको विश्वस्तर पर एक अलग पहचान प्राप्त है। रम्माण उत्सव एक प्रसिद्ध उत्सव है जो उत्तराखंड के चमोली जिले के सलूड़ गांव में हर वर्ष वैशाख महीने में मनाया जाता है। यह उत्सव स्थानीय धारोहरिक और सांस्कृतिक परंपराओं को महसूस कराने का एक अवसर प्रदान करता है। इस उत्सव में लोग परम्परागत गीतों, नृत्यों, पर्वतीय खेलों और स्थानीय वस्त्रधारा के आकर्षणों का आनंद लेते हैं। यह उत्सव स्थानीय समुदाय के लोगों के बीच एक मेला और सामुदायिक समारोह के रूप में भी मनाया जाता है। रम्माण उत्सव स्थानीय संस्कृति और विरासत की गरिमा को बढ़ावा देने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है।
यूनेस्को ने 2009 इस उत्सव को राष्ट्रीय धरोहर भी घोषित किया है। यह धार्मिक विरासत 500 वर्षों से चली आ रही है। इसमें राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान के पात्रों द्वारा नृत्य शैली में रामकथा की प्रस्तुति दी जाती है।
इसमें 18 मुखौटे 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊं, 8 भंकोरे का प्रयोग होता है। इसके अलावा रामजन्म, वनगमन, स्वर्ण मृग वध, सीता हरण और लंका दहन का मंचन ढोलों की थापों पर किया गया। इसमें कुरू जोगी, बण्यां-बण्यांण और माल के विशेष चरित्र होते हैं। यह लोगों को खूब हंसाते हैं। साथ ही वन्यजीवों के आक्रमण का मनमोहक चित्रण म्योर-मुरैण नृत्य नाटिका होती है। ये पात्र लोगो हसांते तो है ही लेकिन इनका मंचन इतना बेहतरीन होता है की ये सबका मन मोह लेते है।
रम्माण के अंत में भूम्याल देवता प्रकट होते हैं। समस्त ग्रामीण भूम्याल देवता को एक परिवार विशेष के घर विदाई देने पहुंचते हैं। उसी परिवार द्वारा साल भर भूम्याल देवता की पूजा-अर्चना की जाती है। इसके बाद उस घर के आंगन में प्रसाद बांटा जाता है। इसके साथ ही इस पौराणिक आयोजन का समापन होता है।
उत्सव में गाँव ध्यानियों यानी बेटियों को विशेष रूप बुलवाया जाता है। रात्रि के समय प्रांगण में महिलाए और पुरुष मिलकर चांचड़ी लगाते है। यह उत्सव देव पूजा के साथ साथ कई भावनात्मक पहलुओं से जुड़ा हुआ है।
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