Exclusive: गर्म हो रहे पहाड़? कोरोना काल में अब यह नई बला क्या है, समझिए हर पहलू

Exclusive: गर्म हो रहे पहाड़? कोरोना काल में अब यह नई बला क्या है, समझिए हर पहलू

समंदर के किनारे बसे कई शहर और देश खतरे में हैं। वहां पानी बढ़ रहा है क्योंकि बड़े-बड़े ग्लेशियर पिघल रहे हैं। आर्कटिक और अंटार्कटिका में बहुत बड़ी आइस शीट टूटती रहती हैं। इससे वहां के वाइल्ड लाइफ के लिए खतरा पैदा हो जाता है। आइए समझते हैं कि उत्तराखंड के लिए क्यों है टेंशन की बात….

कोरोना ने पहले ही लोगों को घरों में कैद कर रखा है, अब उत्तराखंड के पहाड़ों में गर्मी बढ़ने की खबर ने लोगों के माथे पर पसीना ला दिया है। रिपोर्ट है कि प्रदेश में मैदानी इलाकों की तुलना में पहाड़ तेजी से गर्म हो रहे हैं। पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय और राज्य पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की इस रिपोर्ट आने के बाद हिल-मेल ने प्रोफेसर एमपीएस बिष्ट से ग्लोबल वॉर्मिंग के हर पहलू को समझने की कोशिश की।

निगेटिव और पॉजिटिव नजरिया

उत्तराखंड के जानेमाने जियोलॉजिस्ट और उत्तराखंड स्पेस एप्लीकेशन सेंटर के निदेशक प्रोफेसर एमपीएस बिष्ट ने कहा कि ग्लोबल वॉर्मिंग को हम नकार नहीं सकते और पूरी दुनिया इससे प्रभावित होने वाली है। अगर तापमान बढ़ता है तो पूरे वातावरण पर असर पड़ेगा लेकिन हर इंसान का अपना-अपना नजरिया होता है, कोई इसे निगेटिव कहता है और कोई इसे पॉजिटिव तरीके से स्वीकार करता है। प्रो. बिष्ट ने कहा कि एक जियोलॉजिस्ट होने के नाते मैं अगर कहूं कि पहाड़ों में भूस्खलन होता है तो मानवता के दृष्टिकोण से कहा जाएगा कि भूस्खलन हमारे लिए एक आपदा है। लेकिन मैं अगर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखूंगा तो कहूंगा कि यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है और यह सतत चलने वाली है। इसे कोई रोक नहीं सकता। जब से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है तब से प्राकृतिक घटनाएं होती रही हैं। भूस्खलन, भूकंप, ज्वालामुखी, सुनामी या कोई आपदाएं ये प्रकृति में होने वाली आए दिन की घटनाएं है। इसे जियोलॉजिकल प्रोसेस कहते हैं लेकिन जब इंसान इससे प्रभावित होते हैं तो उसे आपदा कहा जाता है।

पढ़ें- वह रिपोर्ट, जो दे रही पहाड़ों को लेकर टेंशन

अब यहां समझने की जरूरत है कि अगर इनमें से किसी प्राकृतिक घटना के करीब जा रहे हैं तो मतलब साफ है कि इंसान जोखिम ले रहा है। चाहे आप पहाड़ों में रहने का रिस्क ले रहे हों, नदी के किनारे मकान बनाने का जोखिम उठा रहे हैं तो विज्ञान यह कहता है कि रिस्क लेने से पहले उसके प्रभाव और बचाव को जरूर सोच लेना चाहिए।

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गलना और जमना, सतत प्रक्रियाएं हैं दोनों 

उन्होंने कहा कि हमारे पहाड़ों में जो ग्लेशियर हैं, उनका गलना और उनका जमना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है और यह सतत है। ऐसा नहीं है कि ग्लेशियर आज ही गल रहा है। इसकी चार अवधारणाएं या महाकल्प हैं। अलग-अलग समय में ग्लेशियर पिघले हैं। एक समय तो ऐसा था कि हमारी पृथ्वी का 75 फीसदी हिस्सा पूरी तरह से बर्फ से ढका था। अब सवाल है कि वह कहां गया, वह पिघल गया। कुछ कालखंड में ग्लेशियर का सतत बढ़ना भी शुरू हुआ।

ग्लेशियर बढ़ेंगे तो उसका अपना प्रभाव है। आज हमारा ग्लेशियर पिघल रहा है तो उससे संबंधित जो वनस्पतियां हैं जो कभी जोशीमठ में हुआ करती होंगी, अब ग्लेशियर के पीछे होने से वहां चली गईं। वनस्पति का सीधा संबंध पहाड़ की ऊंचाई और तापमान से है। अब देखिए जो वनस्पतियां स्नो लाइन पर होती थीं, वे स्नो लाइन के पीछे जाने से वहां नहीं होती हैं। वनस्पतियां नहीं होंगी तो उस तरह के जीव-जंतु भी नहीं मिलेंगे। वे भी पीछे चले जाएंगे। काफी नष्ट हो जाएंगे।

प्रोफेसर बिष्ट ने समझाने की कोशिश की कि अगर ग्लेशियर और पिघले तो समंदर में पानी तो बढ़ेगा ही, साथ में पहाड़ की वनस्पतियां भी खत्म हो जाएंगी। इससे वहां का सामाजिक-आर्थिक पूरा वातावरण बदल जाएगा। उन्होंने पहाड़ के कुछ इलाकों का भी जिक्र किया जहां पहले ठंडक ज्यादा थी लेकिन अब वहां टीशर्ट पहना जाता है।

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